कुश्ती

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लेख सूचना
कुश्ती
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 76-81
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक शिवशंकर राम; परमेवरीलाल गुप्त

कुश्ती (मल्ल्युद्ध) एक प्रकार का द्वंद्वयुद्ध जो बिना किसी शस्र की सहायता के केवल शारीरिक बल के सहारे लड़ा जाता है और प्रतिद्वंद्वी को बिना अंगभंग किए या पीड़ा पहुँचाए परास्त किया जाता है। इसका आरंभ संभवत: उस युग में हुआ होगा जब मनुष्य ने शास्रास्रों का उपयोग जाना न था। उस समय इस प्रकार के युद्ध में पशु बल ही प्रधान था। पशु बल पर विजय पाने के लिए मनुष्य ने विविध प्रकार के दाँव पेंचों का प्रयोग सीखा होगा और उससे मल्ल युद्ध अथवा कुश्ती का विकास हुआ होगा। शत्रुता निवारण के इस द्वन्द्व युद्ध ने विशुद्ध व्यायाम और खेल का रूप ले लिया है। इस खेल अथवा व्यायाम से शरीर के सभी स्नायु एवं इंद्रियाँ सबल और कार्यक्षम होती हैं। इस खेल की कला से परिचित व्यक्ति कम शक्तिवाला होकर भी अधिक शक्तिशाली व्यक्ति पर विजय प्राप्त कर सकता है। कुश्ती से न केवल शरीर बनता है वरन्‌ मानसिक विकास भी होता है और आत्मविश्वास बढ़ता है। धैर्य, अनुभवशीलता, चपलता आदि अनेक बातें पैदा होती हैं।

मिस्र में नीलनद के तट पर स्थित बेंने-हसन की शव-समाधि के दीवारों पर मल्लयुद्ध के अनेक दृश्य अंकित हैं। उनसे अनुमान होता है कि लगभग ३००० वर्ष ई. पूर्व मिस्र में मल्ल्युद्ध का पूर्ण विकास हो चुका था। कुछ लोगों की धारणा है कि इसका विकास भारतवर्ष में वैदिक काल में हुआ होगा किंतु वैदिक साहित्य में स्वास्थ्यवर्धन और शक्तिसंचय के निमित्त, आसन, प्राणायम आदि यौगिक क्रियाओं के साथ घुड़सवारी, रथों की दौड़, शस्त्रास्त्रों के अभ्यास के उल्लेख तो मिलते है किंतु उसमें मल्लयुद्ध की कहीं कोई चर्चा नहीं है। अत: इस देश में इका आरंभ वैदिक काल के बाद ही किसी समय हुआ होगा। रामायण और महाभारत में कुश्ती की पर्याप्त चर्चा हुई है। रामायण से बाली-सुग्रीव का युद्ध और महाभारत से भीम-दुर्योधन के युद्ध का उल्लेख उदाहरणस्वरूप दिया जा सकता है। किंतु इस प्रकार के द्वंद्वयुद्ध की अपनी एक नैतिक संहिता थी ऐसा इन युद्धों के वर्णन से प्रकट होता है। उसके विरुद्ध आचरण करनेवाला निंदनीय माना जाता था। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम द्वारा जरासंध के संधियों के चीरे जाने और दुर्योधन की जाँघ पर प्रहार करने की निंदा लोगों ने की है।

पुराणों में इसका उल्लेख मल्लक्रीड़ा के रूप में मिलता है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि इसके प्रति उन दिनों विशेष आकर्षण और आदर था। विशिष्ट उत्सव प्रसंगों पर राजा लोग मल्लयुद्ध का आयोजन किया करते थे और प्रसिद्ध मल्लों को आमंत्रित करते थे। मल्लक्रीड़ा आरंभ होने से पूर्व धनुर्यज्ञ होता था जिसमें मल्ल लोगों को अपनी शक्ति का परिचय देने के लिए एक भारी धनुष की प्रत्यंचा खींचकर चढ़ानी होती थी। ऐसे ही एक उत्सव प्रसंग पर मथुराधिपति कंस ने कृष्ण और बलराम को आमंत्रित कर उनकी हत्या का षड्यंत्र किया था किंतु कृष्ण बलराम ने कंस के मल्ल चाणूर और मुष्टिक को अपने मल्ल कौशल से पराजित कर दिया। इसी प्रकार जिन दिनों पांडव छद्मवेश में विराट नगरी में रह रहे थे, उन दिनों वहाँ ब्रह्मोत्सव का आयोजन हुआ था। उसमें भीम ने जीमूत नामक मल्ल को परास्त किया था।

जातक कथाओं में भी कुश्ती के उल्लेख प्राप्त होते हैं। उनमें अखाड़े, अखाड़े के सामने प्रक्षकों के बैठने की जगह, उसकी सजावट, मल्लयुद्ध आदि के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। विनयपिटक में उल्लिखित एक प्रसंग से ज्ञात होता है कि स्रियाँ भी मल्लयुद्ध में भाग लेती थी। उसमें शेवती नामक एक मल्ली के भिक्षुणी हो जाने का उल्लेख है। जैनियों के प्रसिद्ध ग्रंथ कल्पसूत्र से ज्ञात होता है कि राजा लोग भी कुश्ती में भाग लेते थे।

मध्यकाल में मुस्लिम में साम्राज्य और संस्कृति के प्रसार के साथ भारतीय मल्लयुद्ध पद्धति का मुस्लिम देशों की युद्ध पद्धति के साथ समन्वय हुआ। यह समन्वय विशेष रूप से मुगलकाल में हुआ। बाबर मध्य एशिया में प्रचलित कुश्ती पद्धति का कुशल और बलशाली पहलवान था। अकबर भी इस कला का अच्छा जानकार था। उसने उच्चकोटि के मल्लों को राजाश्रय प्रदान कर कुश्ती कला को प्रोत्साहित किया। वह समन्वयवादी सम्राट था। उसने सभी क्षेत्रों में हिंदू तथा मुस्लिम संस्कृतियों में सामंजस्य लाने का प्रयत्न किया। फलत: कुश्ती कला भी उसकी उदार नीति से वंचित नहीं रही। उसी समय से कुश्ती को राज्य संरक्षण प्राप्त होता रहा। मुगल सेनाओं में कुश्ती लड़नेवाले पहलवानों का विशेष सम्मान था। विजयनगर नरेश कृष्णदेश राय के राज दरबार में नित्य मल्लयुद्ध का प्रदर्शन होता था। पेशवा परिवार के लोग मल्लयुद्ध प्रवीण थे, ऐसा तत्कालीन आलेखों से ज्ञात होता है। थामस ब्राउटन नामक अंग्रेज सैनिक अधिकारी ने दौलताराव सिंधिय के सैनिकों के बीच मल्लविद्या के प्रचार का विस्तृत वर्णन किया है। पेशवा कल में स्रियाँ भी मल्लयुद्ध में भाग लेती थीं और वे इस कला में इतनी प्रवीण होती थीं कि वे पुरुषों को चुनौती देती थीं और पुरुष पराजित होने की आशंका से उनकी चुनौती स्वीकार करने में संकोच करते थे।

आधुनिक समय में देशी रजवाड़ों ने कुश्ती कला को संरक्षण प्रदानकिया था। पटियाला, कोल्हापुर, मैसूर, इंदौर, अजमेर, बड़ौदा, भरतपुर, जयपुर, बनारस, दरभंगा, बर्दवान, तमखुई (गोरखपुर) के राजाओं के अखाड़ों की देशव्यापी ख्याति रही हैं। वहाँ कुश्ती लड़नेवाले पहलवानों को हर प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त थीं और इन अखाड़ों के नामी पहलवान देश में घूम-घूम कर कुश्ती के दंगलों में भाग लेते और कुश्ती का प्रचार किया करते थे। कुछ अन्य लोग भी अच्छे पहलवानों को प्रोत्साहित करते थे।

आज भी देश के कोने-कोने में, चाहे वह नगर हो या गाँव, अखाड़े पाए जाते हैं।

सफल मल्ल बनने के लिए तीन बातों का ध्यान रखना पड़ता है। नियमित व्यायाम, उचित भोजन तथा कुश्ती का नियमित अभ्यास एवं विकास। कुश्ती कला में पारंगत होने के लिए मल्ल को चित्तनिरोध, मनोयोग तथा संयम की सतत साधना करनी पड़ती है। भारतीय मल्ल का भोजन काफी पुष्टिकारक होता है। मल्ल को अपनी रसना पर नियंत्रण रखना चाहिए। भारतीय मल्ल अधिकतर दूध, घी, बादाम आदि का सेवन करते हैं। शक्तिवर्धन के लिए कुछ मल्ल मांस के शोरवे का भी प्रयोग करते हैं।

भारतीय कुश्ती की चार पद्धतियाँ हैं जो भीमसेनी, हनुमंती, जांबवंती और जरासंधी कहलाती है। हनुमंती कुश्ती में दाँवपेंच और कला की प्रधानता होती है। भीमसेनी कुश्ती में शरीर की शक्ति का विशेष महत्व है। जाबवंती कुश्ती में हाथ-पैर से इस प्रकार प्रयास किया जाता है कि प्रतिस्पर्धी चित्त न कर पाए, उसमें शारीरिक शक्ति और दाँवपेंच की अपेक्षा शरीर साधना का महत्व है। जरासंधी कुश्ती में हाथ-पाँव मोड़ने का प्रयास प्रधान है।

मल्लयुद्ध के माध्यम से भारत का विदेशों में संपर्क १९वीं शताब्दी के अंतिम दशक में हुआ। सन्‌ १८९२ ई. में इंग्लैंड का प्रसिद्ध मल्ल टाम कैनन, रुस्तमेहिंद गुलाम से लड़ने के लिए भारत आया, किंतु वह गुलाम के शिष्य करीमबख्श से हारकर लौट गया। गुलाम का छोटा भाई कल्लू भी अपने युग का प्रसिद्ध पहलवान था। उस समय के अन्य प्रसिद्ध मल्लों में किक्करसिंह का नाम उल्लेखनीय है, जिसका भार लगभग ७ मन तथा वक्ष:स्थल की परिधि ७० इंच थी। सन्‌ १९०० ई. में स्वर्गीय मोतीलाल नेहरू गुलाम तथा कल्लू को लेकर पेरिस की विश्वप्रदर्शिनी में गए। गुलाम की कुश्ती यूरोप के प्रसिद्ध मल्ल अहमद मद्राली से हुई जो बराबर पर छूटी। गुलाम की मृत्यु के पश्चात्‌ कल्लू रुस्तमेहिंद हुए।

सन्‌ १९१० ई. में, रुस्तमेहिंद के रिक्त स्थान की पूर्ति के लिए प्रयाग में एक विराट् दंगल का आयोजन हुआ। इसमें गामा की कुश्ती रहीम पहलवान से हुई। चोट आ जाने के कारण रहीम को अखाड़ा छोड़ना पड़ा और गामा रुस्तमेहिंद हुए। इसके पूर्व गामा ने अपने भाई इमामबख्श तथा अन्य मल्लों के साथ इंगलैंड की यात्रा की थी। वहाँ इन्होंने बेंजामिन लोलर पर, तथा इमामबख्श ने स्विट्ज़रलैंड के निपुण मल्ल जान लेम पर विजय प्राप्त की। इसके पश्चात्‌ गामा की कुश्ती पोलैंड के प्रसिद्ध मल्ल जिविस्को से हुई। प्रथम दिन, दो घंटे पैंतालीस मिनट तक मल्लयुद्ध हुआ, किंतु जिविस्को चित्त नहीं किया जा सका। इन मल्लों की कुश्ती पुन: दूसरे दिन होने का निश्चय किया गया, किंतु जिविस्को इंग्लैंड छोड़कर भाग खड़ा हुआ। दूसरे वर्ष, अहमदबख्श ने मॉरिरा डेरियाज तथा आरमैंड चेयरपिलोड को परास्त कर भारतीय मल्ल-युद्ध-पद्धति का गौरव बढ़ाया। सन्‌ १९२८ ई. में जिविस्को गामा से मल्लयुद्ध करने भारत आए, किंतु इस बार गामा ने इन्हें ४२ सेकेंड में ही परास्त कर दिया। गामा की अंतिम कुश्ती जे. सी. पीटरसन से हुई, जो अपने को सर्वजेताओं का विजेता (चैंपियन ऑव चैंपियन्स) कहता था। गामा ने उसे १ मिनट ४५ सेकेंड में ही हरा दिया। अपने को विश्वविजयी समझकर गामा ने


सन्‌ १९१५ में रुस्तमेहिंद की पदवी के लिए अपने भाई इमामबख्श को खड़ा किया। रहीम, जिसकी अवस्था ढल चुकी थी, पुन: मैदान में आया, किंतु इमामबख्श विजयी हुआ और उसने रुस्तमेंहिंद की उपाधि धारण की।

इस समय तीन अन्य भारतीय मल्ल, गूँगा, बुर्द तथा हमीदा ने मल्लयुद्ध के क्षेत्र में प्रसिद्धि प्राप्त की। नवयुवक मल्ल गुँगा ने इमामबख्श को कुश्ती के लिए ललकारा और पहली बार उसे आसमान दिखला दिया, किंतु बाद की कुश्तियों में इमामबख्श गूँगा पर विजय प्राप्त कर रुस्तमेहिंद बला रहा। इधर हमीदा और बुर्द की कई कुश्तियाँ अनिर्णीत रहीं, किंतु १९३८ ई. में हमीदा ने बुर्द को परास्त कर दिया। इसी समय बंबई में एक अंतर्राष्ट्रीय दंगल हुआ जिसमें रूमानिया, हंगरी, जर्मनी, तुर्की, चीन, फिलिस्तीन आदि देशों के मल्लों ने भाग लिया। इस प्रतियोगिता में जर्मनी के मल्ल क्रैमर ने अजेय गूँगा को परास्त कर भारत को चकित कर दिया, किंतु उसे दरभंगा में पूरणसिंह (बड़े) से हार माननी पड़ी तथा कलकत्ते में राजवंशी सिंह भी उसपर सबल पड़े। अंत में इमामबख्श ने उसे चित्त कर भारतीय मल्लों का गौरव अक्षुण्ण रखा। हमीदा ने किंग कांग को परास्त कर विदेशी मल्लों के हृदय में भारतीय मल्लयुद्ध की श्रेष्ठता का सिक्का जमा दिया।

देश के विभाजन से मल्लयुद्ध के क्षेत्र में भारत की बहुत बड़ी क्षति हुई है। उच्च कोटि के प्राय: सभी मल्ल पंजाबी मुसलमान थे, जो बटवारे के बाद पाकिस्तान के नागरिक हो गए। इमामबख्श का पुत्र भोलू आजकल रुस्तमे-पाकिस्तान है तथा उसके अन्य भाई असलम, अकरम, गोगा आदि भी उच्चकोटि के पहलवान हैं। इस प्रकार गामा परिवार की परंपरा अक्षुण्ण है। उच्चकोटि के भारतीय पहलवान मंगला राय, केशर सिंह तथा पूरणसिंह (कनिष्ठ) हैं।

भारत के बाहर कुश्ती अन्य कई देशों में प्रचलित है। किंतु वहाँ इसका प्राचीनतम प्रचार यूनान में ही ज्ञात होता है। होमर के प्रसिद्ध काव्य इलियड (XXIII700) में एजैक्स तथा यूलिसीज के मल्लयुद्ध का विस्तृत वर्णन है। उसमें यूलिसीज द्वारा बाहरी टाँग मारकर एजैक्स को धराशायी कर देने का विवरण है। क्रोटोन निवासी मिलो उस काल का सर्वविख्यात मल्ल था, जिसने लगातार छह ओलंपिक खेलों में सर्वोच्च विजयचिह्न (पदक) प्राप्त किया था। मिलो के संबंध में यह किंवदंती है कि उसने पाइथागोरस के विद्यालय की गिरती हुई छत को अकेले ही संभाल लिया था। यूलिसीज तथा एजैक्स की कुश्ती का विवरण बहुत कुछ बेनीहसन की कब्र पर निर्मित भवनों पर अंकित चित्रों से मिलता है। इस आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि मल्ल-युद्ध-कला यूनानियों ने मिस्रवासियों से ही सीखी, यद्यपि यूनानी परंपरा के अनुसार थीसियस (Theseus) यूनानी मल्लयुद्ध के जन्मदाता तथा विधिनिर्माता माने जाते हैं।

यूनान की भाँति ही रोम में भी कुश्ती की कला का विकास हुआ था। यूनान और रोम की प्राचीन कुश्ती कला की समन्वय ग्रीको रोमन पद्धति के रूप में हुआ है, ऐसी लोगों की धारणा है। किंतु इस समय यूरोप में जिस ग्रीको रोमन शैली का प्रचार है, वह प्राचीन शैली से सर्वथा भिन्न है। आधुनिक पद्धति का प्रादुर्भाव १८६० ई. के लगभग फ्रांस में हुआ और यह क्रमश: सारे यूरोप में फैल गई। रूस निवासी हैकन एशिमिड इस पद्धति का सबसे प्रसिद्ध मल्ल हुआ है। पेशेवर पहलवान अब इस पद्धति को बहुत कम अपनाते हैं। फिर भी विश्व ओलंपिक में ग्रीको-रोमन पद्धति में भी कुश्ती होती है। इस पद्धति में कमर के नीचे का भाग पकड़ना वर्जित है। प्रतिद्वंद्वी एक दूसरे का शरीर केवल खुले हाथ से ही पकड़ सकते हैं। हाथ और बाँह का पकड़ना इस नियम के अपवाद हैं। भौंह तथा मुँह के बीच के भाग को छूना निषिद्ध है। गला दबाना, कपड़े पकड़ना, बाल पकड़ना, पाँव से मारना, धक्का देना या अँगुली मरोड़ना वर्जित है। कैंची लगाकर प्रतिद्वंद्वी को दोनों पावों के बीच दबाना वर्जित है। पाँव का प्रयोग किसी भी रूप में नहीं किया जा सकता, न तो लगाने में और न बचाव करने में। इस पद्धति का मल्लयुद्ध १८९६ से १९१२ तक ओलंपिक के खेलों में होता रहा। १९२० में ऐंटवर्प में जो ओलंपिक खेल आयोजित हुआ उसमें इस पद्धति के साथ एक नई पद्धति का मल्ल्युद्ध भी सम्मिलित किया गया जिसे ‘फ्री स्टाइल कहते’ हैं। ओलंपिक खेलों में कोई भी दोनों पद्धतियों में निष्णात मल्ल विरले ही होते हैं। अब तक स्वेडन के आइवर जोहांसन और इस्टोनिया के पालू सालू ही ऐसे पहलवान हैं जिन्हें क्रमश: लास ऐंजेल्स (१९३२ ई.) और बर्लिन (१९३६ ई.) के ओलंपिक खेलों में दोनों पद्धतियों में एक साथ विश्वविजयी होने का गौरव प्राप्त हुआ है।

फ्री स्टाइल कुश्ती गद्दों पर लड़ी जाती है। जिस गद्दे पर यह कुश्ती होती है वह कम से कम ६ मीटर लंबा, ६ मीटर चौड़ा और १० सेंटीमीटर मोटा होता है। गद्दे के ऊपरी भाग पर एक मीटर व्यास का १० सेंटीमीटर चौड़ा वृत्त होता हे। कुश्ती साधारणत: समान वजन के पहलवानों में होती है, जिसके निमित्त वजन के अनुसार पहलवानों और उनकी कुश्ती की ८ श्रेणियाँ मानी गई हैं-

१. फ्लाई वेट ११४ १/२ पाउंड तक

२. बैंटेम वेट १२५ १/२ पाउंड तक

३. फेदर वेट १३६ १/२ पाउंड तक

४. लाइट वेट १४७ १/२ पाउंड तक

५. वेल्टर वेट १६० १/२ पाउंड तक

६. मिडिल वेट १७४ पाउंड तक

७. लाइट हेवी वेट १९१ पाउंड तक

८. हेवी वेट १९१ पाउंड के ऊपर।

प्रतिद्वंद्वी को विधानत: यह अधिकार है कि वह चाहे तो अपने भार से एक भार ऊपर से कुश्ती लड़े। अपने निश्चय की सूचना भार लेने के पूर्व ही संबद्ध अधिकारी को दे देना प्रतिद्वंद्वी के लिए आवश्यक है।

नाम के पुकारे जाने पर दोनों प्रतिद्वंद्वी अपने अपने कोने में आकर खड़े हो जाते हैं। एक के पाँव में लाल तथा दूसरे के पाँव में हरा फीता बँधा रहता है। निर्णायक (Referee) बीच में खड़ा होकर दोनों को बुलाता है और उनके जूते, नाखून आदि का निरीक्षण के पश्चात्‌ दोनों प्रतिद्वंद्वी अपने अपने कोने में वापस चले जाते हैं। निर्णायक सदैव डाक्टर हुआ करते हैं। उनके पास लाल, हरे तथा सफेद तीन तीन लैंप, एक एक स्टॉप वाच (विराम घड़ी), घंटा, लाल हरे रंग के पट्टे, फेंकनेवाला लाल हरे रंग का बिंब (disc) होता है।

फ्री स्टाइल मल्ल्युद्ध पद्धति में प्रतिद्वंद्वियों को १२ मिनट का समय दिया जाता है, जो चार कालों में विभक्त होता है। प्रथम ६ मिनट तक भूमि की कुश्ती होती है, तदनंतर चार मिनट तक भूमि की कुश्ती होती हैं, जिससे प्रत्येक प्रतिद्वंद्वी को बारी बारी से दो दो मिनट के लिये नीचे बैठाया जाता है और दूसरा उसे ऊपर से पकड़ता है। अंतिम दो मिनट पुन: खड़ी कुश्ती होती है। सीटी बजते ही कुश्ती प्रारंभ हो जाती हैं। छह मिनट की कुश्ती के बाद निर्णायक अपने अंकों को देखकर बताते हैं कि लाल जीत रहा है या हरा। विजयी को उस समय तक अपने प्रतिद्वंद्वी से कम-से-कम तीन अंक अधिक प्राप्त होना चाहिए। शेष छह मिनट में खड़ी या भूमि की कुश्ती होगी, इसका निर्णय विजयी की इच्छा पर निर्भर करता है। भूमि की कुश्ती में कौन पहले नीचे बैठेगा, इसका निर्णय निर्णायक लाल या हरे रंग का बिंब फेंककर करता है।

शास्ति अंक (Penalty Point)-जो मल्ल प्रतिद्वंद्वी को चित्त कर विजय प्राप्त करता है, उसे शून्य शास्ति अंक मिलता है तथा हारनेवाले को चार। निर्णायक के बहुमत से प्रतिद्वंद्वी का कंधा लगाए बिना विजय पानेवाले को एक तथा हारनेवाले को तीन। हार जीत का निर्णय न होने पर दोनों को दो दो शास्ति अंक दिए जाते है। कुश्ती निम्नांकित अवस्था में बराबर मानी जाती है:

क. १२ मिनट लड़ने के बाद भी प्रतिद्वंद्वी मल्लों के कुल प्राप्तांकों में एक से कम का अंतर हो।

ख. दोनों के अंक बराबर हों।

ग. दोनों में से किसी को भी अंक न मिला हो।

अंतिम निर्णय के नियम-जिन मल्लों के छह या उससे अधिक शास्ति अंक हो जाते है, वे प्रतियोगिता से छँटते जाते हैं। प्रतियोगिता तब तक चलती रहती है जब तक छँटकर केवल तीन ही प्रतियोगी मैदान में शेष नहीं रह जाते। स्थान निश्चित करते समय उनके द्वारा पालियों में लड़ी गई आपसी कुश्तियों के फल को ध्यान में रखा जाता है। यदि तीनों मल्लों ने पूर्व की पालियों में परस्पर मल्लयुद्ध नहीं किया है, तो इनकी कुश्ती कराई जाती है और जिसके शास्ति अंक सबसे कम होते हैं, वह विजयी घोषित किया जाता है। यदि दो के शास्ति अंक बराबर हैं, तो उनकी आपसी कुश्ती में जो सबी पड़ता है वह विजयी होता है। यदि संयोगवश तीनों के शास्ति अंक बराबर हो जाते हैं, तो सारी प्रतियोगिता में तीनों में सबसे कम शास्ति अंक पानेवाला विजयी माना जाता हैं। ऐसी दशा में, जब तीनों के शास्ति अंक भी बराबर हों, तब सबसे कम भारवाला मल्ल विजयी घोषित किया जाता है।

ओलंपिक फ्री स्टाइल मल्लयुद्ध में निम्नलिखित बातें वर्जित हैं :

 
    बाल या जाँघिया पकड़ना।
    अँगुली या अँगूठा मरोड़ना।
    पाँव कुचलना।
    गला दबाना या कोई ऐसा दाँव मारना जिससे साँस रुकने की संभावना हो।
    हथेली ऊपर रखकर धोबी पछाड़ मारना।
    धड़ या सिर पर कैंची लगाना।
    अँगुलियों को फँसाना।
    गुट निकालने के बाद बाँह को पीठ पर ९० से कम करना, या बाँह को बाहर की ओर खींचना।
    कुहनी या घुटना गड़ाकर प्रतिद्वंद्वी के नाक का बाँसा (bridge) तोड़ना।
    आपस में बातचीत करना।

इसके अतिरिक्त अंग-भंग-कारक किसी दाँव-पेंच को छुड़ा देने का वैधानिक अधिकार निर्णायक को होता है।

ओलंपिक खेल में एक तीसरे प्रकार की कुश्ती को भी मान्यता प्राप्त है। उसे शांबो कहते हैं। यह कुश्ती एक विशेष प्रकार का मोटे कपड़ेवाला जैकेट पहनकर लड़ी जाती है और जैकेट को पकड़कर ही दाँवपेंच मारा जाता है। उसमें बदन को नहीं छुआ जा सकता। इसमें ग्रीकोरोमन अथवा फ्री स्टाइल की भाँति कंधों का लगाना अनिवार्य नहीं हैं।

भारत के पहलवानों ने १९२० में पहली बार पेरिस में हुए ओलंपिक में भाग लिया था। उसमें भाग लेने वाले पहलवान थे महाराष्ट्र के नावले और बड़ौदा के शिंदे। १९३६ के बर्लिन ओलंपिक में करम रसूल (पंजाब), अनवर रशीद (उत्तर प्रदेश) और ए. थोरेट (महाराष्ट्र) सम्मिलित हुए थे। १९४८ से भारतीय पहलवान नियमित रूप से ओलंपिक में भाग ले रहे हैं। उस वर्ष लंदन में ओलंपिक हुआ था उसमें के. डी. यादव को छोटे वज़न (फ्लाई वेट) में छठा स्थान मिला था। १९५२ के हेलसिंकी ओलंपिक में इन्हीं यादव को ५७ किलो वेट में तीसरा और ६२ किलो वेट में के. डी. मंगावे (महाराष्ट्र) को चौथा स्थान प्राप्त हुआ था। इसके बाद तो प्रत्येक ओलंपिक में भारतीय पहलवान बराबर सफलता प्राप्त कर रहे हैं। इसी प्रकार भारतीय पहलवान विश्व कुश्ती प्रतियोगिता, एशियाई खेल, और राष्ट्रमंडलीय खेल में भी भाग लेते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं।

भारत सरकार ने नेताजी सुभाष राष्ट्रीय खेल प्रतिष्ठान (पटियाला) में आधुनिक विश्वमान्य पद्धतियों द्वारा पहलवानों को प्रशिक्षित करने की व्यवस्था की है ताकि वे विश्व की विभिन्न प्रतियोगिताओं में अधिकाधिक सफलता प्राप्त कर सकें। साथ ही सफल पहलवानों को सम्मानित करने के लिए अर्जुन पुरस्कार की व्यवस्था की हैं। अब तक यह पुरस्कार निम्नलिखित पहलवानों को दिया गया है-मलुआ (दिल्ली), उदयचंद (सेना), विशंभर सिंह (रेलवे), मुख्तियार सिंह (सेना), गनपत अंदेलकर (महाराष्ट्र), चंदगीराम (हरियाणा), भीम सिंह (सेना), प्रेमनाथ (दिल्ली), जगरूप सिंह (हरियाणा), सुदेश कुमार (दिल्ली)।

अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्राप्त कुश्ती की उपर्युक्त शैलियों के अतिरिक्त कुछ अन्य दैशिक शैलियाँ भी हैं जिनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं-

कंबरलैंड तथा वेस्टमोरलैंड कुश्ती

इस कुश्ती का प्रचलन उत्तरी इंग्लैंड तथा दक्षिणी स्कॉटलैंड में हैं। मल्लयुद्ध प्रारंभ होने से पूर्व प्रतिद्वंद्वी सीने से सीना मिलाकर, एक दूसरे से, इस प्रकार लिपट जाते हैं कि एक मल्ल की बाईं भुजा दूसरे मल्ल की दाहिनी भुजा के ऊपर तथा एक की ठुड्डी दूसरे के दाहिने कंधे पर पड़ती है। इसके पश्चात्‌ वे अपने हाथों को एक दूसरे की पीठ पर रखकर बंद कर लेते हैं। इस अवस्था को रेफरी होल्ड (Referee hold) कहते हैं और वह सावधान होने की अवस्था समझी जाती है। जिस मल्ल के हाथों की पकड़ शिथिल होकर छूट जाती है, उसकी पराजय मानी जाती है।

इस पद्धति की कुश्ती में जय-पराजय का निर्णय बड़ी सरलता से हो जाता है। निर्णय में दो मतों की संभावना अत्यल्प है। जिस प्रतिद्वंद्वी का, पावों के अतिरिक्त, कोई भी अंग भूमि से छू जाता है उसकी पराजय मानी जाती है। जब दोनों प्रतिद्वंद्वी साथ ही भूमि पर गिरते हैं तो भूमि को पहले स्पर्श करनेवाला प्रतिद्वंद्वी पराजित माना जाता हैं। जब दोनों सीधे गिरकर भूमि को साथ ही स्पर्श करते हैं तो कुश्ती बराबर मानी जाती है। इसको डॉग फाल (Dog fall) कहते हैं। ऐसी अवस्था के प्रतिद्वंद्वियों में पुन: कुश्ती कराई जाती है। दाँव लगाने या अन्य किसी अवस्था में भी पाँव के अतिरिक्त किसी अंग से भूमि छू जाने पर प्रतिद्वंद्वी की हार हो जाती है। इस कुश्ती में भुजाओं में बँध जाने के कारण पाँवों का मुक्त प्रयोग किया जाता है। यद्यपि प्रतिद्वंद्वी को पाँव से सीधे आघात करना वर्जित है, तथापि इस पद्धति के कलाकार पाँव संबंधी दाँव-पेंचों में बड़े कुशल होते हैं।

सूमो कुश्ती

सूमो जापानियों का राष्ट्रीय व्यायाम है। इसका प्रयोग जापानी युवक अपने शरीर को शक्तिशाली एवं संगठित बनाने के लिए करते हैं। प्रथम सूमों कुश्ती, जिसका लिखित विवरण उपलब्ध है, ईसा से २३ वर्ष पूर्व हुई थी। विजयी व्यक्ति का नाम सुकुने था। सुकुने आज तक जापानी मल्लों का आराध्य देवता माना जाता है। आठवीं शताब्दी में सम्राट् शोम ने फसल कटने के अवसर पर मल्लयुद्धोत्सव मनाया था; तभी से यह जापान का राष्ट्रीय पर्व बन गया है। इस अवसर पर विजेता को विजय-चिह्न-स्वरूप एक पंखा प्रदान किया जाता है। यह विजेता अगले वर्ष की कुश्ती का निर्णायक होता है। राज्यसंरक्षण के अभाव में सन्‌ ११७५ ई. के पश्चात्‌ सूमो का ्ह्रास होने लगा, किंतु सन्‌ १६०० ई. के लगभग इसका पुनरुत्थान हुआ। तभी से मल्लों को बड़े सामंतो के यहाँ आश्रय मिलने लगा तथा सूमो सैनिक प्रशिक्षण का प्रमुख अंग बन गया।

श्विंजेन (Schwingen) मल्लयुद्ध

इस पद्धति में प्रतिद्वंद्वियों को बिरजिस (breeches) पहनकर कुश्ती लड़ना पड़ता है, जो सुदृढ़ पेटी सहित कमर पर बँधी रहती है। दाँवपेंच इस पेटी को पकड़कर किया जाता है। सूमो की भाँति इस युद्ध पद्धति में भी पाँव का प्रयोग करना, या प्रतिद्वंद्वी की उठाकर फेंक देना, वर्जित नहीं है। जो मल्ल भूमि को पहले स्पर्श कर लेता है, उसकी हार हो जाती है। आइसलैंड की ग्लीमा पद्धति भी बहुत कुछ इस पद्धति से मिलती है। अंतर केवल रान और कमर पर धारण किए जानेवाले वस्त्रों में है।

अमरीकन फ्री स्टाइल मल्लयुद्ध

१८वीं शताब्दी के अंतिम चरण के पूर्व अमरीका में त्यौहारों के अवसर पर स्थानीय मल्लों की कुश्तियाँ होती थीं। सन्‌ १७८० ई. के लगभग, हारवर्ड विश्वविद्यालय में इसका प्रचार आरंभ हुआ। वहाँ नए छात्रों तथा पुराने स्नातको के बीच मल्ल-युद्ध होने की परंपरा चल पड़ी। ऐसे ही एक कुश्ती में अब्राहम लिंकन ने जैक आर्मस्ट्रांग को परास्तकर अच्छी ख्याति पाई थी। १९वीं सदी के अंतिम चरण में पेशेवर मल्लों की कुश्तियों का प्रचार बढ़ा। विलियम मलडून अमरीका का सर्वप्रथम विजेता माना जाता है। इसके पश्चात्‌ फार्मर बर्न्स का नाम आता है। फ्रैंक गॉच ने जार्ज हैवन रूशमिड को हराकर विश्वविजयी की उपाधि प्राप्त की।

अमरीकन फ्री स्टाइल कुश्ती अत्यंत निर्दयता से लड़ी जाती है। इस पद्वति की तुलना प्राचीन पान क्रोशन पद्धति से की जा सकती है, जिसमें मुक्केबाजी का खुलकर प्रयोग होता था। पान क्रोशन (Pan crotion) पद्धति में अत्यंत क्रूर दाँवपेंच भी वर्जित नहीं थे। प्राचीन ओलंपिक खेलों में इसका प्रचलन था। अमरीकन फ्री स्टाइल मल्लयुद्ध में पशुबल का प्रयोग नृशंसता से होता है; उसमें कला का नितांत अभाव है। इसकी नृशंसता बहुत कुछ गॉच की देन है; उन्होंने अपने विपक्षी हैकन इशमिड के विरुद्ध ऐसे दाँवपेचों का भी प्रयोग किया जो उस समय तक वर्जित माने जाते थे। उनके पश्चात्‌ स्ट्रैंगलर ल्यूइस जोजेफ़ स्टेचर को परास्त कर विश्वविजयी की उपाधि से विभूषित हुआ। गस सोननबर्ग द्वारा अमरीकन कुश्ती में नटों की कलाबाजी का प्रसार हुआ। वे अपने फुटबाल टैकिल (Football Tackle) दाँव के लिए विख्यात थे और इसी का प्रयोगकर स्ट्रैंगलर ल्यूइस को उन्होंने पराजित किया था। अन्य विजेताओं में जिंम लंड्स तथा ओमोहोनी के नाम उल्लेखनीय है। अमरीका के आधुनिक मल्लों में लाउथेज ने भी विशेष ख्याति प्राप्त की है।

अमरीकन ढंग की इस कुश्ती में मल्लों के लिए वर्जित दाँवपेंचों तथा क्रियाकलापों की संख्या नहीं के बराबर है। केवल गला दबाना, केश खींचना तथा आँखों में अँगुली करना इसमें वर्जित है। कभी-कभी तो क्रुद्ध मल्ल निर्णायक तक पर आक्रमण कर बैठता है। अत: उसे अखाड़े में अत्यंत सर्तक रहना पड़ता है।

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मार और रोक के दाँवों का निदर्शन-

१. विरोधी की दाहिनी बाँह के नीचे से गोता मार उसके पीछे पहुँच जाने की चेष्टा करें; २. आपका विरोधी इस दाँव की रोक अपना दाहिना पैर एक कदम पीछे हटाकर करता है; ३. अब फुर्ती से अपना विरोधी की बाईं भुजा के नीचे से निकालकर; ४. कोल्हुवा दाँव (Cross buttock) लगाएँ; ५.आपका विरोधी आपकी दाहिनी टाँग में अपनी बाईं टाँग फँसाकर आपके दाँव की रोक करता हैं; ६. अब आप अपनी दाहिनी टाँग से उसकी दोनों टाँगों में पीछे से लँगड़ी मारकर, उसे पीछे की तरफ गिराने की चेष्टा करें; ७. आपका विरोधी तुरंत हाथ के बल आगे की ओर झुककर अपने को बचाता है; ८. इस अवस्था में आप उसकी गर्दन को अपने बाएँ हाथ से पकड़ें और अपने बाएँ पैर से उसके बाएँ पैर को पीछे से फँसाकर, भीतर से लँगड़ी मारें; ९. विरोधी इसी दाँव को आपपर उलटा लगाकर रोक करता है; १०. दाहिनी तरफ से जोर का झटका देकर अपने बाएँ और टाँग को छुड़ा लें और विरोधी को दबाकर उसे अपने नीचे हाथों के बल झुक जाने को विवश करें। फुर्तीक से उसका जाँघिया दाहिने हाथ से पकड़ें। टिके हुए उसके दाहिने हाथ पर अपने बाएँ पाँव की टेक लगाकर उसे उखाड़िए; ११. अपने दाँव की रोक करने का अवसर विरोधी को न दीजिए। पहले फुर्ती से बैठ जाइए और उसे उठाकर जोर से अपने बाएँ घुमा दीजिए तथा १२. साथ ही साथ उसे दृढ़ता अपने शरीर के सहारे से उलट दीजिए और पीठ के बल भूमि पर दबाए रखिए।



टीका टिप्पणी और संदर्भ