भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-153

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भागवत धर्म मिमांसा

11. ब्रह्म-स्थिति

 
(28.12) एष स्वयं-ज्योतिरजोऽप्रमेयो
महानुभूतिः सकलानुभूतिः ।
एकोऽद्वितीयो वचसां विरामे
येनेषिता वागसवश् चरन्ति ।।[१]

आत्मा कैसा है? शंकराचार्य ने कहा है : दीपस्य नान्यदीपेच्छा – दीपक को देखने के लिए दूसरे दीप की जरूरत नहीं पड़ती। स्वबोधे नान्यबोधेच्छा – अपने बोध के लिए दूसरे बोध की जरूरत नहीं। वैसे ही परमात्मा को देखने के लिए, उसे सिद्ध करने के लिए दूसरे किसी प्रमाण की जरूरत नहीं – अप्रमेयः। वह स्वयं-ज्योतिः अजः – स्वयंसिद्ध और नित्य है। महानुभूतिः सकलानुभूतिः – ‘महान्’ यानी विश्व की सभी अनुभूतियाँ वहाँ इकट्ठी पड़ी हैं। ‘सकल’ यानी ‘ज्वाइंट एण्ड सेवरल रिस्पान्सिबिलिटीज्’ – वह एक-एक अवयव को व्याप्त करता और सबको इकट्ठा भी व्याप्त करता है। सकल यनी उसमें एक-एक कला आती है। हमारे हृदय में ज्ञान-कला है। सारे शरीर में जो अनुभव होता है, वह कुल उसी को होता है। कहीं फोड़ा हुआ, हाथ पर मक्खी बैठी, पाँव में मोच आयी, तो वह इन सबको इकट्ठा जानता है। और एक-एक कला को भी जानता है। बड़े-बड़े मन्त्रियों को ‘डिटेल’ (संपूर्ण) मालूम नहीं होता। वे सर्वसाधारण परिस्थिति (ओवर ऑल सिच्युएशन) जानते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो एकआध चीज ‘डिटेल’ में जानते हैं, लेकिन ‘ओवल ऑल सिच्युएशन’ नहीं जानते। लेकिन आत्मा सब इकट्ठा जानता है और एक-एक कला का भी जानता है। यह वाक्य जब मैं पढ़ता हूँ, तो मुझे स्फूर्ति आती है। अभी कहा गया कि आत्मा स्वयं-ज्योति है, जन्मरहित है और प्रमाण से सिद्ध करने की बात नहीं। हम किसी से पूछते हैं : ‘आने में बहुत देर हुई?’ वह कहता है : ‘मैं जंगल में खो गया था।’ असल में वह खोया नहीं, बाकी सब लोगों को उसने खोया। वह खुद अपनी जगह पर ही था। इसलिए वहाँ सिद्ध करने की बात है ही नहीं। ज्ञानदेव ने कहा है :

 शून्य स्थावर जंगम। व्यापुनि राहिला अकळ ।
बाप रखुमादेवी वरु। विट्ठलु सकळ ।।

(‘शून्य, स्थावर, जंगम सब कुछ व्याप्त करनेवाला वह अकेला है। रखुमा देवी का पति वह मेरा पिता विट्ठल सकल है।’) यहाँ ‘अकल’ और ‘सकल’ ये दो शब्द आये हैं! गुजराती में जिसे ‘विगतवार जाणवुं’ कहते हैं, वैसा ही यह है। यानी एक-एक चीज जानना और सब कुछ जानना। एकोऽद्वितीयः – वह एक है और अद्वितीय है। यह सौभाग्य कब प्राप्त होगा? जब सब वाणियाँ शान्त होंगी – वचसां विरामे। ‘वचसां’ अनेक वचन है। वाणी चार प्रकार की मानी गयी है। एक नाभि से आती है (परा), दूसरी हृदय से (पश्यन्ती), तीसरी कण्ठ से (मध्यमा) और चौथी वैखरी है। हम चिन्तन करते हैं, वह अव्यक्त नाभिस्थान में होता है। फिर हृदय में उसका ध्यान होता है। फिर कण्ठ में उसका रूप बनता है। फिर वह प्रकट होता है – वैखरी के रूप में। ये चार वाणियाँ जहाँ शान्त होंगी, वहाँ एक और अद्वितीय प्रकट होगा। पुनः उसी आत्मा का परिचय कराते हैं : येन इषिता यानी जिसकी प्रेरणा से वाग् असवः – ‘वाक्’ यानी वाणी, ‘असवः’ यानी प्राण अर्थात् वाणी और प्राण चरन्ति – काम करते हैं। जिसकी प्रेरणा से वह वाणी प्रकट होती है। यह वचन केन उपनिषद् से लिया गया है : केनेषितां वाचमिमां वदन्ति। यहाँ यह समझना चाहिए कि वाणी शान्त होने के बाद भी किसी-किसी को बोलने की प्रेरणा होती है और वह बोलता है, तो उसका क्या तात्पर्य है? इसे एक दृष्टांत द्वारा समझें : घी बनाने के लिए हम मक्खन गरम करते हैं, तो पहले वह ‘कड्-कड्’ आवाज करता है। जब उसका वह बोलना बन्द हो जाए, तो समझा जाता है कि घी बन गया। जब तक आवाज आती रहे तब तक घी नहीं बना, ऐसा माना जाता है। हाँ, तो आवाज बन्द हो गयी और घी बन गया। फिर क्या हुआ? वह घी चूल्हे पर रखा और उसमें पूरी बेलकर पकाने को डाली तो फिर से आवाज करने लगा। घी पहले शान्त हो गया था, पर पूरी डालते ही पुनः आवाज करने लगा। लेकिन समझना चाहिए कि ज्ञानी की वह आवाज उसकी अपनी नहीं होती। जब उसकी अपनी साधना चलती है, तो वह बोलना है और साधना पूरी हो जाने पर उसकी वाणियाँ शान्त हो जाती हैं। किन्तु वचसां विरामे – एक बार वाणियाँ शान्त होने पर भी वह बोलता है, क्योंकि उसका जो शिष्य है, वह कच्चा है। उसे पक्का करने के लिए बोलना पड़ता है। उसका अपना समाधान तो हो गया, लेकिन पास में कच्चा मसाला है, उसे पक्का बनाने के लिए वह आवाज करता है। यानी ज्ञानी को दूसरों पर अनुग्रह के लिए ही बोलना पड़ता है, अन्यथा उसकी अपनी वाणियाँ तो शान्त हो चुकी हैं। सारांश, कहा यह गया कि जिसकी प्रेरणा से वाणी और प्राण काम करते हैं, जो स्वयंज्योति है और जिसे सिद्ध करने के लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं, वह महानुभूति, सकलानुभूति आत्मतत्व जब वाणी शान्त होती है, तभी प्रकट होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.28.35

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