गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 45

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गीता-प्रबंध
5.कुरुक्षेत्र

मानव अपने-आपको एक ऐसे जगत् में पाता जहां ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि लड़ाकू शक्तियों ने एक भीषण विश्रृंखला कर रखी है, बड़ी-बड़ी अंधकार की शक्तियों का संग्राम छिड़ा हुआ है, जहां का जीवन सतत परिवर्तन और मृत्यु के द्वारा ही टिका हुआ है, और व्यथा, यंत्रणा, अमंगल और विनाश की विभिषिका द्वारा चारों ओर से घिरा हुआ है। ऐसे जगत् के अंदर उसे सर्वव्यापी ईश्वर को देखना और इस बात से सचेतन होना होगा कि इस पहेली का कोई हल अवश्य है और यह कि जिस अज्ञान में वह इस समय वास करता है उसके परे कोई ऐसा ज्ञान है जो इन विरोधों का मिटाता है। तब, मनुष्य जीवन की उसे इस श्रद्धा और विश्वास के आधार पर खड़ा होना होगा कि ,“तू मुझे मार भी डाले, तो भी मैं भरोसा न छाड़ूँगा।“ सभी प्रकार की कार्यरत निष्ठा मे चाहे वह आस्तिक की हो, नास्तिक की हो या सर्वेश्वरवादी की - न्यूनाधिक स्पष्टता और पूर्णता के साथ इस प्रकार का भाव पाया जाता है। इसमें स्वीकृति और विश्वास भी। स्वीकृति इस बात की कि संसार में सर्वत्र अनबन है और विश्वास इस बात का कि कोई भागवत तत्व भी है- विश्वपुरुष अथवा प्रकृति को भी कहिये- जिसके बल से हम इन परस्पर-विरोधों को पार कर सकते हैं, जीत सकते हैं या समन्वित कर सकते हैं, कदाचित् एक साथ तीनों की बात कर सकते हैं, इनको जीत कर और इनको पार करके हम समन्वित कर सकते हैं।

वास्तविकता का जहां तक संबंध है, हमें उसे संघर्ष और युद्ध के पहलू को मानना होगा जिसकी भीषणता बढ़ते-बढ़ते कुरुक्षेत्र के जैसे महासंकट तक जा पहुंचती है। गीता जैसा कि हम देख आये हैं, परिवर्तन और संकट के एक ऐसे काल को अपना आधार बनाती है जो मानव जाति के इतिहास में पुनः-पुनः आया करता है और इस काल में बड़ी शक्तियां किसी भीषण बौद्धिक, सामाजिक, नैतिक, धार्मिक, राजनीतिक ध्वंस और पुनर्निमाण के लिये एक-दूसरे से टकराती हैं और मनुष्य की वास्तविक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अवस्था में साधारणतया ये शक्तियां संघर्ष, युद्ध और क्रांति के भीषण भौतिक आंदोलन में अपनी पराकाष्ठा को पहुंचाती हैं। गीता का प्रारंभ की इस मान्यता से नया होता है कि ऐसे भीषण क्रांतिकारी प्रसंग प्रकृति को आवश्यक होते हैं, केवल उनक नैतिक पहलू ही नहीं अर्थात् धर्म और अधर्म मंे, शुभ के स्थापित होते हुए विधान और उसक प्रगति को रोकने वाली शक्तियों में युद्ध होता है वहीं बल्कि उनका भौतिक अंग भी अर्थात् शुभाशुभ शक्तियों के प्रतिनिधि स्वरूप जो मनुष्य हैं उनके बीच सशस्त्र संग्राम अथवा अन्य किसी प्रकार का प्रचंड शारिरीक युद्ध भी आवश्यक होता है। यहां हमें स्मरण रखना होगा कि गीता कि रचना ऐसे समय में हुई थी कि जब युद्ध मानव गति विधि का आज से भी अधिक आवश्यक अंग था और उसके बहिष्कार का विचार तक आकाश-कुसुम जैसा होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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