महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 239 श्लोक 16-31

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एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततम (239) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: एकोनचत्वारिंशदधिकद्विशततम श्लोक 16-31 का हिन्दी अनुवाद

इस परमात्माि का नेत्रों अथवा सम्पूधर्ण इन्द्रियों से भी दर्शन नहीं हो सकता । यह विशुद्ध मनरूपी दीपक से ही बुद्धि में प्रकाशित होता है । वह आत्मेत्वि यद्यपि शब्दर, स्पदर्श, रूप, रस और गन्ध से हीन, अविकारी तथा शरीर और इन्द्रियों से रहित है तो भी शरीरों के भीतर ही इसका अनुसंधान करना चाहिये । जो इस विनाशशील समस्त शरीरों में अव्येक्त्भाव से स्थित परमेश्विर का ज्ञानमयी दृष्टि से निरन्त।र दर्शन करता रहता है, वह मृत्युव के पश्चा्त् ब्रह्राभाव को प्राप्त् होने में समर्थ हो जाता है । पण्डितजन विद्या और उत्तम कुल से सम्पतन्ने ब्राह्राण में तथा गौ, हाथी कुत्ते् और चण्डा ल में भी समभाव से स्थित ब्रह्रा का दर्शन करनेवाले होते हैं । जिससे यह सम्पूेर्ण जगत् व्यारप्त है, वह एक परमात्मा् ही समस्तग चराचर प्राणियों के भीतर निवास करता है । जब जीवात्माप सम्पूमर्ण प्राणियों मे अपने को और अपने में सम्पू०र्ण प्राणियों को स्थित देखता है, उस समय वह ब्रह्राभाव को प्राप्त‍ हो जाता है । अपने शरीर के भीतर जैसा ज्ञानस्व्रूप आत्माह है वैसा ही दूसरों के शरीर में भी है, जिस पुरूष को निरन्त्र ऐसा ज्ञान बना रहता है, वह अमृतत्वर को प्राप्तज होने में समर्थ है । जो सम्पूतर्ण प्राणियों का आत्मा होकर सब प्राणियों के हित में लगा हुआ है, जिसका अपना कोर्इ स्परष्टं मार्ग नहीं हैतथा जो ब्रह्रापद को प्राप्तर करना चाहता है, उस समर्थ ज्ञानयोगी के मार्ग की खोज करने में देवता भी मोहित हो जाते है । जैसे आकाश में चिडि़यों के और जल में मछलियों के पदचिह्न नहीं दिखायी देते, उसी प्रकार ज्ञानियों की गति का भी किसी को पता नहीं चलता । काल सम्पू र्ण प्राणियों को स्वोयं ही अपने भीतर पकाता रहता है, परंतु जहाँकाल भी पकाया जाता है, जो काल का भी काल है; उस परमात्माभ को यहाँकोई नहीं जानता । वह परमात्मास न ऊपर है न नीचे और न वह अगल-बगल में अथवा बीच में ही है । कोई भी स्थाचनविशेष उसको ग्रहण नहीं कर सकता, वह परमात्मात किसी एक स्थाथन से दूसरे स्था न को नहीं जाता है । ये सम्पूार्ण लोक उसके भीतर ही स्थित हैं, इनका कोई भी भाग या प्रदेश उस परमात्मात से बाहर नहीं है । यदि कोई धनुष से छूटे हुए बाण के समान अथवा मन के सदृश तीव्र वेग से निरन्तयर दौड़ता रहे तो भी जगत् के कारणस्वृरूप उस परमेश्वईर का अन्त़ नहीं पा सकता । उस सूक्ष्मरसवशरूप परमात्मात से बढ़कर सूक्ष्मातर वस्तु कोई नहीं है, उसने बढ़कर स्थू लतर वस्तुप भी कोई नही है । उसके सब ओर हाथ पैर हैं, सब ओर नेत्र, सिर और मुख हैं तथा सब ओर कान हैं । वह संसार में सबको व्याेप्त करके स्थित है । वह लघु से भी अत्यान्तव लघु और महान् से भी अत्य4न्तब महान् है, वह निश्चेय ही समस्तत प्राणियों के भीतर स्थित है तो भी किसी को दिखायी नहीं देता । उस परमात्मा के क्षर और अक्षर ये दो भाव (स्व रूप) हैं, सम्पूरर्ण भूतों मे तो उसका क्षर(विनाशी) रूप है और दिव्यह सत्यतस्व)रूप चेतनात्मा अक्षर (अविनाशी) हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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