महाभारत आदि पर्व अध्याय 129 श्लोक 41-57

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>एकोनत्रिंशदधिकशततम (129 ) अध्‍याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: > एकोनत्रिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 41-57 का हिन्दी अनुवाद

उन दिनों पृपत नाम से प्रसद्धि एक भूपाल महर्षि भरद्वाज के मित्र थे। उन्‍हें उसी समय एक पुत्र हुआ, जिसका नाम दु्पद था वह राजकुमार क्षत्रियों में श्रेष्ठ था। वह प्रतिदिन भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाकर द्रोण के साथ खेलता और अध्‍ययन करता था । नरेश्वर जनमेजय ! पृषत की मृत्‍यु हो जाने पर महाबाहु द्रुपद उत्तर-पञ्चाल देश के राजा हुए । कुछ दिनों बाद भगवान् भराद्वाज भी स्‍वर्गवासी हो गये और महातपस्‍वी द्रोण उसी आश्रम में रहकर तपस्‍या करने लगे । वे वेदों और वेदांगों के विद्वान् तो थे ही, तपस्‍या द्वारा अपनी सम्‍पूर्ण पापराशि को दग्‍ध कर चुके थे। उनका महान् यश सब ओर फैल चुका था। एक समय पितरों ने उनके मन में पुत्र के लोभ से शरद्वान् की पुत्री कृपी को धर्मपत्नी के रुप में ग्रहण किेया। कृपी सदा अग्निहोत्र, धर्मानुष्ठान तथा इन्द्रिय संयम में उनका साथ देती थी । गौतमी कृपी ने द्रोण से अश्वत्‍थामा नामक पुत्र प्राप्त किया। उस बालक ने जन्‍म लेते ही उच्‍चै:श्रवा घोड़े के समान शब्‍द किया । उसे सुनकर अन्‍तरिक्ष में स्थित किसी अदृश्‍य चेतन ने कहा- ‘इस बालक के चिल्‍लाते समय अश्व के समान शब्‍द सम्‍पूर्ण दिशाओं में गूंज उठा है; अत: यह अश्वत्‍थामा नाम से ही प्रसिद्ध होगा।‘ उस पुत्र से भरद्वाज नन्‍दन द्रोण को बड़ी प्रसन्नता हुई । बुद्धिमान् द्रोण उसी आश्रम में रहकर धनुर्वेद का अभ्‍यास करने लगे। राजन् ! किसी समय उन्‍होंने सुना कि ‘महात्‍मा जमदग्निनन्‍दन परशुरामजी इस समय सर्वज्ञ एवं सम्‍पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं तथा शत्रुओं को संताप देने वाले वे विप्रवर ब्राह्मणों को अपना सर्वस्‍व दान करना चा‍हते हैं । द्रोण ने यह सुनकर कि परशुराम के पास सम्‍पूर्ण धनुर्वेद तथा दिव्‍यास्त्रों का ज्ञान है, उन्‍हें प्राप्त करने की इच्‍छा की। इसी प्रकारउन्‍होंने उनसे नीति-शास्त्र की शिक्षा लेने का भी विचार किया । फिर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले तपस्‍वी शिष्‍यों से घिरे हुए महातपस्‍वी महाबाहु द्रोण परम उत्तम महेन्‍द्र पर्वत पर गये । महेन्‍द्र पर्वत पर पहुंचकर महान् तपस्‍वी द्रोण ने क्षमा एवं शम-दम आदि गुणों से युक्त शत्रु नाशक भृगुननदन परशुरामजी का दर्शन किया ।तत्‍पश्चात् शिष्‍यों सहित द्रोण ने भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी के समीप जाकर अपना नाम बताया और यह भी कहा कि ‘मेरा जन्‍म आंगिरस कुल में हुआ है’ । इस प्रकार नाम और गोत्र बताकर उन्‍होंने पृथ्‍वी पर मस्‍तक टेक दिया और परशुरामजी के चरणों में प्रणाम किया। तदनन्‍तर सर्वस्‍व त्‍याग कर वन में जाने की इच्‍छा रखने वाले महात्‍मा जमदग्नि कुमार से द्रोण ने इस प्रकार कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ ! मैं महर्षि भरद्वाज से उत्‍पन्न उनका अयोनिज पुत्र हूं। आपको यह ज्ञात हो कि मैं धनकी इच्‍छा से आया हूं। मेरा नाम द्रोण है’ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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