महाभारत सौप्तिक पर्व अध्याय 3 श्लोक 1-17

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तृतीय (3) अध्याय: सौप्तिक पर्व

महाभारत: सौप्तिक पर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद

अश्वत्थामा का कृपाचार्य और कृतवर्मा को उत्तर देते हुए उन्हें अपना क्रूरतापूर्ण निश्चय बताना संजय कहते हैं - महाराज ! कृपाचार्य का वचन धर्म और अर्थ से युक्त तथा मंगलकारी था। उसे सुनकर अश्वत्थामा दुख और शोक में डूब गया । उसके हृदय में शोक की आग प्रज्वनलित हो उठी । वह उससे जलने लगा और अपने मन को कठोर बनाकर कृपाचार्य और कृतवर्मा दोनों से बोला- । मामाजी! प्रत्येक मनुष्य में जो पृथक-पृथक बुद्धि होती है वही उसे सुन्‍दर जान पड़ती है। अपनी-अपनी उसी बुद्धि से वे सब लोग अलग-अलग संतुष्ट रहते हैं । सभी लोग अपने आप को अधिक बुद्धिमान समझ्‍ते हैं। सबको अपनी ही बुद्धि अधिक महत्ववपूर्ण जान पड़ती है और सब लोग अपनी ही बुद्धि की प्रशंसा करते हैं । सबकी दृष्टि में अपनी ही बुद्धि धन्यवाद पाने के योग्य ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित जान पड़ती है। सब लोग दूसरों की बुद्धि की निन्दा और अपनी बुद्धि की बारंबार सराहना करते हैं । यदि किन्हीं दूसरे कारणों के संयोग से एक समुदाय में जिनके-जिनके विचार मिल जाते हैं वे एक दूसरे से संतुष्ट होते हैं और बारम्‍बार एक दूसरे के प्रति अधिक सम्मान प्रकट करते हैं । किन्तु समय के फेर से उसी मनुष्‍य की वही-वही बुद्धि विपरीत होकर परस्पर विरूद्ध हो जाती है। सभी प्राणियों के विशेषत: मनुष्यों के चित्त एक दूसरे से विलक्षण तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं अतरू विभिन्न घटनाओं के कारण जो चित्त में व्याकुलता होती है उसका आश्रय लेकर भिन्न-भिन्न प्रकारों की बुद्धि पैदा हो जाती है ।। प्रभो ! जैसे कुशल वेद्य विधिपूर्वक रोग की जानकारी प्राप्त करके उसकी शान्ति के लिये योग्यतानुसार औषध प्रदान करता है इसी प्रकार मनुष्य कार्य की सिद्ध के लिये अपनी वि‍वेक शक्ति से विचार करके किसी निश्चयात्‍मक बुद्धि का आश्रय लेते हैं परंतु दूसरे लोग उसकी निन्दा करने लगते हैं । मनुष्य जवानी में किसी और ही प्रकार की बुद्धि से मोहित होता है मध्यम अवस्था में दूसरी ही बुद्धि से वह प्रभावित होता है किंतु वृद्धावस्था में उसे अन्य प्रकार की ही बुद्धि अच्छी लगती है । श्भोज ! मनुष्य जब किसी अत्‍यंत घोर संकट में पड़ जाता है अथवा उसे किसी महान ऐश्वर्य की प्राप्ति हो जाती है तब उस संकट और समृद्धि को पाकर उसकी बुद्धि में क्रमश शोक एवं हर्षरूपी विकार उत्पन्न हो जाते हैं । उस विकार के कारण एक ही पुरूष में उसी समय भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की बुद्धि; विचारधारा उत्पन्न हो जाती है परंतु अवसर के अनुरूप न होने पर उसकी अपनी ही बुद्धि उसी के लिये अरूचिकर हो जाती है । मनुष्य अपने विवेक के अनुसार किसी निश्चय पर पहूँचकर जिस बुद्धि को अच्छा समझता है उसी के द्वारा कार्यसिद्धि की चेष्टा करता है। वही बुद्धि उसके उद्योग को सफल बनाने वाली होती है । कृतवर्मा ! सभी मनुष्य् यह अच्छा कार्य है ऐसा निश्चय करके प्रसन्नतापूर्वक कार्य आरम्‍भ करते हैं और हिंसा आदि कर्मों में भी लग जाते हैं । सब लोग अपनी ही बुद्धि अथवा विवेक का आश्रय लकर तरह-तरह की चेष्टातएं करते हैं और उन्हें अपने लिये हितकर ही समझते हैं । आज संकट में पड़ने से मेरे अंदर जो बुद्धि पैदा हुई है उसे मैं आप दोनों को बता रहा हूँ। वह मेरे शोक का विनाश करने वाली है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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