भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 59
कार्य साधन के रूप में नहीं किया जाता, अपितु वह एक लक्षण बन जाता हैं जब हम संन्यास आश्रम ग्रहण कर लेते हैं, तब भी अन्य आश्रमों के कर्तव्य का तो छूट जाते हैं, परन्तु संन्यास आश्रम के कत्र्तत्य नहीं छूटते। सामान्य गुण (साधारण धर्म)-जिनका पालन करना सबके लिए आवश्यक है, जैसे दया का आचरण- अपनाए ही जाते हैं। इस प्रकार कर्म और मुक्ति एक-दूसरे से असंगत नहीं हैं। [१] गीता ने उन अनेक सम्प्रदायों और संहिताओं को अपना लिया है, जो उससे पहले ही एक-दूसरे से होड़ कर रही थीं, और उनको प्यार एक ऐसे धर्म के पहलुओं मण्डन मिश्र का झुकाव चैथे और पांचवे दृष्टिकोणों को अपनाने की ओर है।
विधियों को पूरा करना सनातन स्वतःप्रकाशित आत्मा की ज्योति की अन्तिम अभिव्यक्ति को लाने में, उपनिषदों के महावाक्यों से निकलने वाले शब्द ज्ञान की विषय-वस्तु के चिन्तन में अत्यन्त मूल्यवान् सहायक है। जहां संन्यासी लोग विशुद्ध चिन्तनात्मक पद्धति द्वारा स्मार्त विधियों को पूरा करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त करते हैं, वहां गृहस्थ लोग विधियों इत्यादि को पूरा करने के द्वारा इस लक्ष्य तक पहुंचते हैं। के रूप में रूपान्तरित कर दिया है, जो कहीं अधिक आन्तरिक, स्वतन्त्र सू़क्ष्म और गम्भीर है। यदि लोकप्रिय देवताओं की पूजा की जानी है, तो यह भी साथ ही समझ लेना होगा कि वे केवल एक ही भगवान् के विविध रूप -मात्र है। यदि बलियां दी जानी हैं, तो वे आत्मिक होनी चाहिये, भौतिक पदार्थां की नहीं। आत्मसंयम की जीवन या अनासक्त कर्म यज्ञ है। वेद उपयोगी है, परन्तु गीता के उपदेश के विस्तृत जलप्लावन की तुलना में वह एक पोखर के समान है। गीता ब्रह्म और आत्मा के उस सिद्धान्त का उपदेश देती है, जिसे उपनिषदों के अनुयायी खोजते हैं, परन्तु भगवान् योगेश्वर है।
« पीछे | आगे » |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मण्डन मिश्र ने अपनी पुस्तक ’ब्रह्मसिद्धि’ में कर्म और ज्ञान के सम्बन्ध के विषय में सात विभिन्न मतों का उल्लेख किया हैः (1) वेद के कर्मकाण्ड में बताई गई विधियां मनुष्यों को उनकी स्वाभाविक गतिविधियों से विमुख करके चिन्तनात्मक गतिविधि की ओर ले जाती हैं, जो आत्मज्ञान के लिये आवश्यक बताई गई है; (2) ये विधियां उपभोग की प्रक्रिया द्वारा इच्छाओं का नाश करने के लिये बनाई गई हैं और इस प्रकार ये चिन्तन के लिए वह मार्ग तैयार करती हैं, जो आत्मज्ञान की ओर ले जाता है; (3) कर्म का पालन करना तीन ऋणों (ऋणत्रय) से उऋण होने के लिये आवश्यक है, जो आत्मज्ञान के लिए पहली आवश्यक शर्त है;(4) विहित विधियों का एक दूसरा प्रयोजन (संयोगपृथकत्व) है कि वे उनके द्वारा प्रत्याशित इच्छाओं को पूरा करती हैं और मनुष्य को आत्मज्ञान के लिये तैयार करती है; (5) सम्पूर्ण कर्म का उद्देश्य मनुष्यों को शुद्ध करना और उन्हें आत्मज्ञान के लिए तैयार करना है; (6) आत्मज्ञान को एक शोधक सहायक तत्व के रूप में समझा जाना चाहिए, जो कर्मकांड में विहित विभिन्न गतिविधियों की आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक है; (7) कर्म और ज्ञान एक-दूसरे के विरोधी हैं।