महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-4

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षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व )

महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: भाग-4 का हिन्दी अनुवाद

सुन्‍दर कटिप्रदेशवाली उस कन्‍या के प्रकट होने पर भी आकाशवाणी हुई-‘इस कन्‍या का नाम कृष्‍णा है। यह समस्‍त युवतियों में श्रेष्‍ठ और सुन्‍दरी है और क्षत्रियों का संहार करने के लिये प्रकट हुई है। ‘यह सुमध्‍यमा समय पर देवताओं का कार्य सिद्ध करेगी। इसके कारण कौरवों को बहुत बड़ा भय प्राप्‍त होगा’। वह आकाशवाणी सुनकर समस्‍त पाञ्जाल सिंहों के समुदाय की भांति गर्जना करने लगे। उस समय हर्ष में भरे हुए उन पाञ्जालों का वेग पृथ्‍वी नहीं सह सकी। उन दोनों पुत्र और पुत्री को देखकर पुत्र की इच्‍छा रखनेवाली राजा पृषवत की पुत्रवधु महर्षि याज की शरण में गयी और बोली-‘भगवन् ! आप ऐसी कृपा करें, जिससे ये दोनों बच्‍चे मेरे सिवा और किसी को अपनी माता न समझें’। तब राजा का प्रिय करने की इच्‍छा से याज ने कहा-‘ऐसा ही होगा।‘ उस समय सम्‍पूर्ण द्विजों ने सफल-मनोरथ होकर उन बालकों के नामकरण किये। यह द्रुपदकुमार धृष्‍ट, अमर्षशील तथा द्युम्‍न (तेजोमय कवच-कुण्‍डल एवं क्षात्रतेज) आदि के साथ उत्‍पन्‍न होने के कारण ‘धृष्‍टद्युम्‍न‘ नाम से प्रसि‍द्ध होगा। तत्‍पश्‍चात् उन्‍होंने कुमारी का नाम कृष्‍णा रक्‍खा; क्‍योंकि वह शरीर में कृष्‍ण (श्‍याम) वर्ण की थी।इस प्रकार द्रुपद के महान् यज्ञ में वे जुड़वीं संतानें उत्‍पन्‍न हुई। परम बुद्धिमान् प्रतापी भरद्वाजनन्‍दन द्रोण यह सोचकर कि प्रारब्‍ध के भावी विधान को टालना असम्‍भव है, पाञ्जालराज कुमार धृष्‍टद्युम्‍न को अपने घर ले आये और उन्‍होंने उसे अस्‍त्रविद्या देकर उनका बड़ा उपकार किया ।द्रोणाचार्य ने अपनी कीर्ति की रक्षा के लिये वह उदारतापूर्ण कार्य किया। आगन्‍तुक ब्राह्मण कहते है- लाक्षागृह में पाण्‍डवों के साथ जो घटना घटित हुई थी, उसे सुनकर ब्राह्मणों तथा पुरोहितों ने पाञ्जालराज द्रुपद से इस प्रकार कहा- ‘राजन् ! धृतराष्‍ट्र के पुत्रों ने अपने मन्त्रियों के साथ परस्‍पर सलाह करके पाण्‍डवों के विनाश का विचार कर लिया था।
ऐसा क्रूरतापूर्ण विचार दूसरों के लिए अत्‍यन्‍त कठिन है। दुर्योधन के भेजे हुए उसके पुरोचन नामक सेवक ने वारणावत नगर में जाकर एक विशाल लाक्षागृह निर्माण कराया था। उस भवन में पाण्‍डव अपनी माता कुन्‍ती के साथ पूर्ण विश्‍वस्‍त होकर रहते थे। महाराज ! एक दिन आधी रात के समय पुरोचन ने लाक्षागृह में आग लगा दी। वह नीच और नृशंस पुरोचन स्‍वयं भी उसी आग में जलकर भस्‍म हो गया। यह समाचार सुनकर कि ‘पाण्‍डव जल गये’ अम्बिका-नन्‍दन धृतराष्‍ट्र को अपने भाई-बन्‍धुओं के साथ बड़ा हर्ष हुआ। धृतराष्‍ट्र की आत्‍मा हर्ष से खिल उठी थी, तो भी ऊपर से कुछ शोक का प्रदर्शन करते हुए उन्‍होंने विदुरजी से बड़ी करुण भाषा में यह वृत्‍तान्‍त बताया और आज्ञा दी कि ‘महामते ! पाण्‍डवों का श्राद्ध और तर्पण करो। विदुर ! पाण्‍डवों के मरने से मुझे ऐसा दु:ख हुआ है मानो मेरे भाई पाण्‍डु आज ही स्‍वर्गवासी हुए हों।अत: गंगाजी के तट पर चलकर उनके लिये श्राद्ध और तर्पण की व्‍यवस्‍था करो। अहो ! भाग्‍यवश ही बेचारे पाण्‍डव यमलोक को चले गये।‘ यों कहकर धृतराष्‍ट्र और शकुनि फूट-फूटकर रोने लगे। भीष्‍मजी ने यह समाचार सुनकर उनका विधि‍पूर्वक और्ध्‍वदैहिक संस्‍कार सम्‍पन्‍न किया है। इस प्रकार दुरात्‍मा दुर्योधन ने पाण्‍डवों के विनाश के लिये यह भयंकर षडयन्‍त्र किया था। आज से पहले हमने किसी को ऐसा नहीं देखा या सुना था जो इस तरह का जघन्‍य कार्य कर सके। महाराज ! पाण्‍डवों के सम्‍बन्‍ध में यह वृत्‍तान्‍त हमारे सुनने में आया है’।। ब्राह्मण और पुरोहित का यह वचन सुनकर परम बुद्धिमान् राजा द्रुपद शोक में डूब गये। जैसे अपने सगे पुत्र की मृत्‍यु होने पर उसके पिता को शोक होता है उसी प्रकार पाण्‍डवों के नष्‍ट होने का समाचार सुनकर पाञ्जालराज को पीड़ा हुई। उन्‍होंने अपने भाई-बन्‍धुवों के साथ समस्‍त प्रजा को बुलवाया और बड़ी करुणा से यह बात कही।।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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