गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 151
इस परिच्छिन्नता की जो छाप उस पर पड़ी है वह एक ऐसा अज्ञान है जिससे वह न केवल उन परमेश्वर को जिनसे वह आया , बल्कि उन परमेश्वर को भी भूल जाता है जो सदा उसके अंतर में विराजमान हैं, उसकी अपनी प्रकृति के गुह्य हृदेश मैं अवस्थित हैं उसके अपने मानव चैतन्य के देवालय के अन्तर्वेदी में समान प्रज्वलित हैं। मनुष्य उन्हें नहीं जानता, क्योंकि उसकी आत्मा की आंखों पर और उसकी समस्त इन्द्रियों पर उस प्रकृति की, उस माया की छाप लगी हुई है जिसके द्वारा वह परमेश्वर की सनातन सत्ता से बाहर निकालकर अभिव्यक्त किया गया है; प्रकति ने उसे भागवत सत्व की अत्यंत मूल्यवान् धातु से सिक्के के रूप में ढाला है, पर उस पर अपने प्राकृत गुणों के मिश्रण का इतना गहरा लेप चढा़ दिया है, अपनी मुद्रा की और पाशविक मानवता के चिह्न की इतनी गहरी छाप लगा दी है कि यद्यपि भागवत भाग का गुप्त चिह्न वहां मौजूद है लेकिन वह आरंभ में दिखायी नहीं देता , उसका बोध होना सदा ही दुस्तर होता है, उसका पता चलता है तो केवल आत्म - स्वरूप के रहस्य की उस दीक्षा से जो बहिमुंख मानवता से ईश्वरभिमुख मानवता का पार्थक्य स्पष्ट दिखा देती है।
अवतार में अर्थात् दिव्य - जन्मप्राप्त मनुष्य में वह भागवत सत्य लेप के रहते हुए भी भीतर से जगमगा उठता है; प्रकृति की मुहरछाप वहां केवल रूप के लिये होती है , अवतार की दृष्टि अंतःस्थित ईश्वर की दृष्टि होती है, उनकी जीवन - शक्ति अंतःस्थित ईश्वर की जीवन - शक्ति होती है, और वह धारण की हुयी मानव - प्रकृति की मुहर छाप को भेद कर बाहर निकल पड़ती है ईश्वर का यह चिन्ह ,अंतरस्थ अंतरात्मा का यह चिह्न कोई बाह्म या भौतिक चिह्न न होने पर भी उनके लिये स्पष्ट बोधगम्य होता है जो उसे देखना चाहें या देख सकें; आसुरी प्रकृति अवश्य ही यह सब नहीं देख सकती , क्योंकि यह केवल शरीर को देखती है आत्मा को नहीं, वह बाह्म सत्ता को देखती है अंतःसत्ता को नहीं, वह परदे को देखती है उसके भीतर के पुरूष को नहीं। सामान्य मानवजन्म में मानवरूप धारण करने वाले जगदात्मा जगदीश्वर का प्रकृति भाव ही मुख्य होता है; अवतार के मनुष्य - जन्म में उनका ईश्वर भाव प्रकट होता है। एक में ईश्वर मानव- प्रकृति को अपनी आंशिक सत्ता पर अधिकार और शासन करने देते हैं और दूसरे में वे अपनी अंशसत्ता और उसकी प्रकृति को अपने अधिकार मे लेकर उस पर शासन करते हैं। गीता हमे बतलाती है कि साधारण मनुष्य जिस प्रकार विकास को प्राप्त होता हुआ या ऊपर उठता हुआ भागवत जन्म को प्राप्त होता है उसका नाम अवतार नहीं है, बल्कि भगवान् जब मानवता के अंदर प्रत्यक्ष रूप में उतर आते हैं और मनुष्य के ढांचे को पहन लेते हैं , तब वह अवतार कहलाते हैं। परंतु अवतार लेने के लिये यह स्वीकृति या यह अवतरण मनुष्य के आरोहणा या विकास को सहायता पहुंचाने के लिये ही होता है , इस बात को गीता ने बहुत स्पष्ट करके कहा है।
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