महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 221 भाग 8

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विंशत्‍यधिकद्विशततम (220) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: विंशत्‍यधिकद्विशततम अध्याय: भाग 8 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्‍वर ! तुमने जो प्रश्‍न किया था, उसके उत्‍तरमें मैंने यह प्रसंग सुनाया है । इस प्रकार वे दोनों पति-पत्‍नी गृहस्‍थधर्म का आश्रय लेकर परमात्‍मा को प्राप्‍त हो गये ।। युधिष्ठिर ने पूछा – भारत ! मनुष्‍य क्‍या उपाय करने से सुख पाता है; क्‍या करने से दु:ख उठाता हैं और कौन सा काम करने से वह सिद्ध की भॉति संसार में निर्भय होकर विचरता है।

भीष्‍मजी ने कहा – युधिष्ठिर ! मनोयोगपूर्वक वेदार्थ का विचार करनेवाले वृद्ध पुरूष सामान्‍यत: सभी वर्णों के लिये और विशेषत: ब्राह्राण के लिये मन और इन्द्रियों के संयमरूप ‘दम’ की ही प्रशंसा करते हैं। जिसनेदम का पालन नहीं किया है, उसे अपनेकर्मों मे यथोचित सफलता नहींमिलती; क्‍योंकि क्रिया, तप और सत्‍य ये सभी दम के आधार पर ही प्रतिष्ठित होते हैं। ‘दम’ तेज की वृद्धि करता है । ‘दम’ परम पवित्र बताया गया है, मन और इन्द्रियों का संयम करनेवाला पुरूष पाप और भय से रहित होकर ‘महत्’ पद को प्राप्‍त कर लेता है। दम कापालन करनेवाला मनुष्‍य सुख से सोता, सुख से जागता और सुख से ही संसार में विचरता है तथा उसका मन भी प्रसन्‍न रहता है। दम से ही तेज को धारण किया जाता है, जिसमें दम का अभाव है, वह तीव्र कामवाला रजोगुणी पुरूष उस तेज को नहीं धारण कर सकता और सदा काम, क्रोध आदि बहुत से शत्रुओं को अपने से पृथक् अनुभव करता है। जिन्‍होने मन और इन्द्रियोंका दमन नहींकिया है, उनसे समस्‍त प्राणियों को उसी प्रार सदा भय बना रहताहै, जैसे मांसभक्षी व्‍याघ्र आदि जन्‍तुओं से भय हुआ करता है ।
ऐसे उद्दण्‍ड मनुष्‍योंकी उच्‍छृंखल प्रवृत्ति को रोकने के लिये ही ब्रह्राजी ने राजा की सृष्टि की है। चारों आश्रमों में दम को ही श्रेष्‍ठ बताया गया है । उन सब आश्रमों में धर्म का पालन करने से जो फल मिलता है, दमनशील पुरूष को वह फल और अधिक मात्रा में उपलब्‍ध होता है। अब मैं उन लक्षणों का वर्णन करूँगा, जिनकी उत्‍पत्ति में दम ही कारण है । कृपणता का अभाव, उत्‍तेजना का न होना, संतोष, श्रद्धा, क्रोध का न आना, नित्‍य सरलता, अधिक बकवाद न करना, अभिमानका त्‍याग, गुरूसेवा, किसी के गुणों मे दोषदृष्टि न करना, समस्‍त जीवों पर दया करना, किसी की चुगली न करना, लोकापवाद, असत्‍यभाषण तथा निन्‍दा स्‍तुति आदि को त्‍याग देना, सत्‍पुरूषों संग की इच्‍छा तथा भविष्‍य में आनेवाले सुख की स्‍पृहा और दु:ख की चिन्‍ता न करना। जितेन्द्रिय पुरूष किसी के साथ वैर नहीं करता । उसका सब के साथ अच्‍छा बर्ताव होता है । वह निन्‍दा और स्‍तुति में समान भाव रखनेवाला, सदाचारी, शीलवान्, प्रसन्‍नचित्‍त,धैर्यवान् तथा दोषों का दमन करने में समर्थ होता है । वह इहलोक में सम्‍मान पाता और मृत्‍यु के पश्‍चात् स्‍वर्गलोक में जाता है। दमनशील पुरूष समस्‍त प्राणियों को दुर्लभ वस्‍तुऍ देकर दूसरों को सुख पहॅुचाकर स्‍वयं सुखी और प्रमुदित होता है । जो सम्‍पूर्ण प्राणियों के हित में लगा रहता और किसी से द्वेष नहीं करता है, वह बहुत बड़े जलाशय की भॉति गम्‍भीर होता है । उसके मन में कभी क्षोभ नहीं होता तथा वह सदा ज्ञानान्‍द से तृप्‍त एवं प्रसन्‍न रहता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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