गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 157

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गीता-प्रबंध
16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली

यहां ईश्वर और मानव - जीव या पिता या पुत्र भी दिव्य मनुष्य की कोई बात नहीं है , बल्कि केवल भगवान् और उनकी प्रकृति के द्वारा मानव - आकार और प्रकार में उतरकर जन्म लेते हैं , और यद्यपि वे स्वेच्छा से मनुष्य के आकार , प्रकार और सांचे के अंदर रहकर कर्म करना स्वीकार करते है , तो भी उसके अंदर भागवत चेतना और भागवत शक्ति को ले आते हैं और शरीर के अंदर प्रकृति के कर्मो का नियमन वे उसकी अंतः स्थित और ऊध्र्वस्थित आत्मा - रूप से करते हैं, ऊपर से वे सदा ही शासन करते हैं , क्योंकि इसी तरह वे समस्त प्रकृति का शासन चलाते हैं , और मनुष्य - प्रकृति भी इसके अंनर्गत है ; अदंर से भी वे स्वयं छिपे रहकर सारी प्रकृति का शासन करते हैं ,अंत यह है कि अवतार में वे अभिव्यक्त रहते हैं , प्रकृति के ईश्वर - रूप में भगवान की सत्ता का , अंतर्यामी का सचेतन ज्ञान रहता है ; यहां प्रकृति का संचालन ऊपर से उनकी गुप्त इच्छा के द्वारा ‘स्वर्गस्थ पिता की प्रेरणा के द्वारा’ नहीं होता , बल्कि भगवान अपने प्रत्यक्ष प्रकट संकल्प से ही प्रकृति का संचालन करते हैं। यहां किसी मानव मध्यस्थ के लिये कोई स्थान नहीं है , क्योंकि यहां भूतानां ईश्वर अपनी प्रकृति , का आश्रय लेकर , किसी जीव की विशिष्ट प्रकृति को नहीं , मानव - जन्म के जामे को ओढ़ लेते हैं। बात बड़ी विलक्षण है , जल्दी समझ में आने वाली नहीं , मनुष्य की बुद्धि के लिये इसे ग्रहण कर लेना आसान नहीं ; इसका कारण भी स्पष्ट है - अवतार स्पष्टता से मनुष्य जैसे ही होते हैं। अवतार के सदा दो रूप होते हैं- भागवत और मानव – रूप; भगवान् मानव - प्रकृति को अपना लेते हैं , उसे सारी बाह्म सीमाओं के साथ भागवत चैतन्य और भागवत शक्ति की परिस्थिति , साधन और कारण तथा दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का एक पात्र बना लेते हैं और यही होना चाहिये ; वरना अवतार के अवतरण का उद्देश्य ही पूर्ण नहीं हो सकता। अवतरण का उद्देश्य यही दिखलाना है कि मानव - जन्म मनुष्य की सब सीमाओं के रहते हुए भी दिव्य जन्म और दिव्य कर्म का साधन और करण बनाया जा सकता है, और अभिव्यक्त दिव्य चैतन्य के साथ मानव - चैतन्य का मेल बैठाया जा सकता है , उसका धर्मान्तर करके उसे दिव्य चैतन्य का पात्र बनाया जा सकता है , और उसके सांचे को रूपांतरित करके उसके प्रकाश , प्रेम , सामथ्र्य और पवित्रता की शक्तियों के ऊपर उठाकर उसे दिव्य चैतन्य के अधिक समीप लाया जा सकता है। अवतार यह भी दिखाते हैं कि यह कैसे किया जा सकता है। यदि अवतार अद्भुत चमत्कारों के द्वारा ही काम करें ,तो इससे अवतरण का उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता है। असाधारण अथवा अद्भुत चमत्काररूप अवतार के होने का कुछ मतलब ही नहीं रहता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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