गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 130

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गीता-प्रबंध
14.दिव्य कर्म का सिद्धांत

इन सांत श्लाकों से अधिक महत्वपूर्ण श्लोक गीता में कम ही हैं। परंतु हम इस बात को अच्छी तरह समझ लें कि इन श्लोकों का आधुनिक व्यवहारवादी वृत्तिवालों की तरह अर्थ लगाने का प्रयास न करना चाहिये, क्योंकि वे किसी उच्च और दूरस्थ आध्यात्मिक संभावना की अपेक्षा जगत् की वर्तमान अवस्था से ही मतलब रखते हैं - और इन श्लोकों का उपयोग समाज - सेवा , देश - सेवा, जगत् - सेवा, मानव - सेवा, तथा आधुनिक बुद्धि को आकर्षित करने वाली सैकड़ो प्रकार की समाज - सुधार की योजनाओं और स्वप्नों का दार्शनिक और धार्मिक समर्थन करने में करते हैं। यहां इन श्लोकों में जिस विधान की घोषणा की गयी है वह किसी व्यापक नैतिक और बौद्धिक परोपकार - निष्ठा का नियम नहीं, बल्कि ईश्वर के साथ और जो ईश्वर में रहते तथा जिनमें ईश्वर रहता है उन प्राणियों के इस जगत् के साथ आध्यात्मिक एकता का विधान है। यह विधान व्यक्ति को समाज और मानव - जाति के अधीन बना देने या मानव - समष्टि की वेदी पर व्यक्ति के अहंकार की बलि देने का आदेश नहीं है, बल्कि ईश्वर में व्यक्ति को परिपूर्ण करने और अहंकार को सर्वग्राही भागवत सत्ता की एकमात्र सच्ची वेदी पर बलि चढ़ाने की आज्ञा है ।
गीता भावनाओं और अनुभूतियों की एक ऐसी भूमिका पर विचरण करती है जो आधुनिक मन मन की भावनाओं और अनुभूतियों की भूमिका से ऊंची है। आधुनिक मन वस्तुतः अभी अहंकार के फंदों को काटने के लिये संघर्ष करने की अवस्था में है; परंतु अब भी उसकी दृष्टि लौकिक है और उसका भाव आध्यात्मिक नहीं, बौद्धिक और नैतिक है। देश – प्रेम, विश्वबंधुत्व, समाज - सेवा, समष्टि - सेवा, मानव - सेवा , मानव - जाति का आदर्श या धर्म , ये सब व्यष्टिगत, पारिवारिक सामाजिक और राट्रीय अहंकारूपी पहली अवस्था से निकलकर दूसरी अवस्था में जाने के लिये सराहनीय साधन हैं, इस अवस्था में पहुंचकर व्यष्टि, जहांतक कि बौद्धिक, नैतिक और भावावेगमयी भूमिकाओं पर संभव है, यह अनुभव करता है कि मेरी अस्तित्व दूसरे सब प्राणियों के अस्तित्व के साथ एक है। यहां यह जान लेना चाहिये कि इन भूमिकाओं पर वह इस अनुभव को पूरे तौर पर और ठीक - ठीक तथा अपनी सत्ता के पूर्ण सत्य के अनुसार नहीं प्राप्त कर सकता। परंतु गीता के विचार इस दूसरी अवस्था के भी परे जाकर हमारी विकसन- शील आत्म - चेतना की एक तीसरी अवस्था का दिग्दर्शन कराते हैं जिसमें पहुंचने के लिये दूसरी अवस्था केवल आंशिक प्रगति है। भारत का सामाजिक झुकाव व्यक्ति को समाज के दावों के अधीन रखने की और रहा है, किंतु भारत के धार्मिक चिंतन और आध्यात्मिक अनुसंधान का लक्ष्य सदा ही उदात्तरूप से वैयक्तिक रहा है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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