गीता प्रबंध -अरविन्द पृ. 154

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गीता-प्रबंध
16.भगवान् की अवतरण - प्रणाली

भगवान् की अवतरण- प्रणाली प्रवृत्ति होती है उसके मूल में यही सत्य है। भारतवासियों का मन तो सभी बढ़े - बढे़ संत - महात्माओं , आचार्यो और पंथ - प्रर्वतकों को अनायास ही आंशिक अवतार मान लेने में अभ्यस्त है और दक्षिण के वैष्णव तो अपने कुछ संतों को भगवान् विष्णु के प्रतीकात्मक सचेतन शास्त्रों के अवतार मानते हैं , क्योंकि सचमुच महान् आत्माएं भगवान् की सचेतन शक्तियों और शस्त्र ही तो हैं , जिनसे ऊपर की ओर बढ़ने और विघ्न – बाधाओं से संग्राम करने का काम लिया जाता है। यह विचार जीवन के बारे में हर रहस्यवादी या आध्यिात्मिक दृष्टि के लिये - जो भागवत सत्ता और प्रकृति तथा मानवसत्ता ओर प्रकृति के बीच अमिट रेखा नहीं खींचती - सहज और अपरिहार्य है - यह मानवता में भगवान का बोध है। परंतु फिर भी विभूति अवतार नहीं है ; यदि विभूति और अवतार एक ही होते तो अर्जुन , व्यास , उशना सब वैसे ही अवतार होते जैसे श्रीकृष्ण थे, चाहे उनमें अवतारपन की शक्ति इनसे कुछ कम ही होती। परंतु दिव्य गुण का होना ही पर्याप्त नहीं है ; अवतार होना तो तब कहा जा सकता है जब कि अपने परमेश्वर और परमात्मा होने का आंतरिक ज्ञान हो और यह ज्ञान हो कि हम अपनी भागवत सत्ता से मानव - प्रकृति का शासन कर रहे हैं। गुणों को शक्ति का उत्कर्ष संभूति (भूतग्राम ) का अंश है , सामान्य अभिव्यक्ति में यह ऊध्र्व की ओर अरोहण है। पर अवतार में एक विशेष अभिव्यक्ति होती है, यह दिव्य जन्म उस पद से होता है , सनातन विश्वव्यापक विश्वेश्वर व्यष्टिगत मानवता के एक आकार में उतर आते हैं , अत्मानं सृजामि , और वे केवल परदे के अंदर ही अपने स्वरूप से सचेतन नहीं रहते , बल्कि बाह्म प्रकृति में भी उन्हें अपने स्वरूप का ज्ञान रहता है। एक मध्यस्थ विचार भी है , अवतार के बारे में एक अधिक रहस्यमय दृष्टि है जिसके अनुसार मानव - आत्मा अपने अंदर भगवान का आवाहन करके यह अवतरण कराती है और त वह भागवत चैतन्य के अधिकर में हो जाती है अथवा उसका प्रभावशाली प्रतिबिंब या माध्यम बन जाती है। यह विचार किन्हीं आधात्मिक अनुभवों के सत्य पर अवलंबित है। यह मनुष्य में भागवत जन्म, अर्थात् मनुष्य का आरोहण , मानव - चैतन्य का भागवत चैतन्य में संवर्धन है और पृथक् आत्मा का भागवत चैतन्य में लय हो जाना ही इसकी परिणति है । आत्मा अपने व्यष्टिभाव को अनंत और विश्वव्यापक सत्ता में मिला देती है या परात्पर सत्ता की परा स्थिति में खो देती है ; वह विराट आत्मा के साथ , ब्रह्म के साथ , भगवन् के साथ एक हो जाती है अथवा जैसा कि प्रायः और भी अधिक निश्चित रूप से कहा जाता है - वह स्वयं ही एकमेवाद्वितीय आत्मा , ब्रह्म , भगवान बन जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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