भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 35

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8.योगशास्त्र

भारतीय दार्शनिक विचार की प्रत्येक प्रणाली हमारे सम्मुख सर्वोच्च आदर्श तक पहुँचने की एक व्यावहारिक पद्धति प्रस्तुत करती है। भले ही हम प्रारम्भ विचार से करते हैं, परन्तु हमारा उद्देश्य विचार से परे निश्चायक अनुभव तक पहुँचना होता है। दार्शनिक प्रणलियां केवल आधिविद्यक सिद्धान्त ही नहीं बतलातीं, अपतिु आध्यात्मिक गति-विज्ञान भी सिखाती हैं। यह कहा जा सकता है कि यदि मनुष्य ब्रह्म का ही एक अंश है, तो उसे उद्धार की उतनी आवश्यकता नहीं है, जितनी कि अपनी वास्तविक प्रकृति को पहचानने की। यदि उसे यह अुनभव होता है कि वह पापी है, जो परमात्मा से बिछुड़ गया है, तो उसे कोई ऐसी विधि बताई जाने की आवश्यकता है, जिसके द्वारा उसे यह बात याद आ जाए कि वह वस्तुतः परमात्मा का एक अंश है और इसके प्रतिकूल होने वाली कोई भी अनुभूति केवल भ्रान्ति है। यह ज्ञान बौद्धिक नहीं है, अपितु मनुष्य का अवयवभूत है।
इसलिए मनुष्य की सम्पूर्ण प्रकृति का सुधार करने की आवश्यकता है। भगवद्गीता हमारे सम्मुख केवल एक अधिविद्या (ब्रह्मविद्या) ही प्रस्तुत नहीं करती, अपितु एक प्रकार का अनुशासन (योगशास्त्र) भी प्रस्तुत करती है। योग शब्द ‘युज्’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है बांधना, उन्हें सन्तुलित करना और उन्हें बढ़ाना।[१] अपने व्यक्तित्व के तीव्रतम केन्द्रीकरण द्वारा अपनी ऊर्जाओं को इकटठा जोड़कर और सन्नद्ध करके हम संकीर्ण ‘अह’ से अनुभवातीत व्यक्तित्व तक पहुँचने का मार्ग बनाते हैं। आत्मा अपने-आप को अपने कारागार से बाहर खींच लाती है। कारागार से निकलकर वह बाहर खड़ी होती है और अपने आन्तरिकतम अस्तित्व तक पहुँच जाती है। गीता हमारे सम्मुख एक सर्वाग-सम्पूर्ण योगशास्त्र प्रस्तुत करती है, जो विशाल, लचकीला और अनेक पहलुओं वाला है; जिसमें आत्मा के विकास और ब्रह्म तक पहुँचने के विविध दौर सम्मिलित हैं।
विभिन्न प्रकार के योग उस आन्तरिक अनुशासन के विशिष्ट प्रयोग हैं, जो आत्मा की स्वतन्त्रता और एकता के एक नये ज्ञान और मनुष्य-जाति के एक नये अर्थ तक ले जाता है। इस अनुशासन से सम्बद्ध प्रत्येक वस्तु योग कहलाती है, जैसे ज्ञानयोग अर्थात् ज्ञान का मार्ग; भक्तियोग अर्थात् भक्ति का मार्ग, या कर्मयोग अर्थात् कर्म का मार्ग। मानवीय स्तर पर पूर्णता प्राप्त करना एक ऐसा कार्य है, जो सचेत प्रयत्न द्वारा पूरा किया जाना है। हमारे अन्दर कार्य कर रही परमात्मा की मूर्ति हममें एक अपर्याप्तता की भावना उत्पन्न करती है। मनुष्य को एक यह भावना सताने लगती है कि सारी मानवीय प्रसन्नता दिखावटी, क्षणिक और अनिश्चित है। जो लोग केवल जीवन की ऊपरी सतह पर ही जीते हैं, हो सकता है, उन्हें यह बेचैनी, यह आत्मा की तड़प अनुभव न होती हो और उनमें यह खोजने की इच्छा न जागती हो कि उनका सच्चा हित किस बात में है। वे मानवीय पशु (पुरूषपशु) हैं; और पशुओं की भाँति वे पैदा होते हैं, बड़े होते हैं, मैथुन करते हैं और अपनी सन्तान छोड़ जाते हैं और खुद मर जाते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इसका प्रयोग विभिन्न अर्थो में होता हैः ( क) युज्यते एतद् इति योगः (ख) युज्यते अनेन इति योगः, (ग) युज्यते तस्मिन् इति योगः।

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