भगवद्गीता -राधाकृष्णन पृ. 83

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अध्याय-2
सांख्य-सिद्धान्त और योग का अभ्यास कृष्ण द्वारा अर्जुन की भत्र्सना और वीर बनने के लिए प्रोत्साहन

                      
12.न त्वेवाहं जातु नासं त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविश्यामः सर्वे वयमतः परम् ।।

ऐसा कोई समय नहीं था, जब मैं नहीं था या तू नहीं था या ये सब राजा नहीं थे और न कभी कोई ऐसा समय आएगा, जब कि इसके बाद नहीं रहेंगे। शंकराचार्य इस अनेकता के उल्लेख को केवल रूढ़ मानते हैं उनकी युक्ति है कि बहुवचन का प्रयोग केवल शरीरों के लिए किया गया है, जो कि अलग-अलग हैं, एक विश्वजनीन आत्मा के लिए नहीं ।[१] श्रामानुज कृष्ण, अर्जुन और राजाओं में किए गये भेद पर जोर देता है और उसे अन्तिम मानता है उसका विचार है कि प्रत्येक व्यक्तिगत आत्मा अनश्वर है और समस्त विश्व के साथ समयुगीन है। यहां पर परम आत्मा की शाश्वता की ओर संकेत नहीं है, अपितु अनुभवजन्य अहम् की पूर्वसत्ता और उत्तरसत्ता की ओर संकेत है। अहम् की अनेकता अनुभवसिद्ध विश्व का एकत्व है। प्रत्येक व्यक्ति प्रारम्भिक अनस्तित्व से वास्तविक के रूप में पूर्ण अस्तित्व की ओर, असत् से सत् की ओर आरोहण कर रहा है। जहाँ सांख्य-प्रणाली में आत्माओं की अनेकता स्थापित की गई है, वहाँ गीता इस अनेकता का मेल एकता से बिठा देती है। क्षेत्रज्ञ एक है, जिसमें हमजीते हैं, चलते-फिरते हैं और जिसमें हमारा अस्तित्व है। ब्रह्म सब वस्तुओं का आधार है और वह अपने-आप में कोई वस्तु नहीं है। ब्रह्म काल में नहीं रहता, अपितु काल ब्रह्म में रहता है। इस अर्थ में भी जीवों का न कोई आदि है, न अन्त। आत्माएं ब्रह्म की भांति हैं, क्यों कि कारण और कार्य मूलतः एक हैं, जैसा कि -- मैं ब्रह्म हूं’’, ’’वह तू है’’ इत्यादि उक्तियों से सूचित होता है। सूसो से तुलना कीजिएः ’’सब प्राणी दिव्य मूल तत्व में अपने आदर्श की भाँति शाश्वत काल से विद्यमान चले आ रहे हैं। सब वस्तुएं, जहां तक वे अपने दिव्य आदर्श के अनुकूल-अनुरूप हैं, उनकी सृष्टि होने से पहले भी परमात्मा के साथ एकरूपता में विद्यमान थीं।’’


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देहभेदानुवृत्या बहुवचनम्, नात्मभेदाभिप्रायेण।

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