भारतीय ज़मींदारी प्रथा

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लेख सूचना
भारतीय ज़मींदारी प्रथा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 9
पृष्ठ संख्या 1-3
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण 1967 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक भारतीय जर्मीदारी प्रथा

भारतीय ज़मींदारी प्रथा भारत की प्राचीन विचार धारा के अनुसार भूमि सार्वजनिक संपत्ति थी, इसलिये यह व्यक्ति की संपत्ति नहीं हो सकती थी। भूमि भी वायु, जल एवं प्रकाश की तरह प्रकृतिदत्त उपहार मानी जाती थी। महर्षि जैमिनि के मतानुसार 'राजा भूमि का सम्पूर्ण नहीं कर सकता था, क्योंकि यह उसकी संपत्ति नहीं वरन्‌ मानव समाज की सम्मिलित संपत्ति है। इसलिये इस पर सबका समान रूप से अधिकार है'। मनु का भी स्पष्ट कथन है, कि 'ऋषियों के मतानुसार भूमि स्वामित्व का प्रथम अधिकार उसे है, जिसने जंगल काटकर उसे साफ किया था, जोता' (मनुस्मृति, 8, 237,239)। अतएव प्राचीन भारत के काफी बड़े भाग में भूमि पर ग्राम के प्रधान का निर्वाचन ग्राम समुदाय करता था तथा उसकी नियुक्ति राज्य की सम्मति से होती थी। राज्य उसे भूमिकर न देने पर हटा सकता था, यद्यपि यह पद वंशानुगत था तथा इसकी प्राप्ति के लिये जनमत तथा राज्य स्वीकृति आवश्यक थी। अतएव वर्तमान समय के ज़मींदारों से, जो निर्वाचित नहीं होते वे भिन्न थे।

भूमि का संपत्ति के रूप में क्रय-विक्रय

भूमि का संपत्ति के रूप में क्रय-विक्रय प्राचीन भारत में संभव नहीं था। इस तथ्य की पुष्टि पश्चात्य विद्वान बेडेन पावेल तथा सर जार्ज कैंपबेल ने भी की है। कैंपबेल का कथन है कि भूमि जोतने का अधिकार एक अधिकार मात्र ही था और हिंदू व्यवस्था के अनुसार भूमि नहीं माना गया था। आधुनिक अनुसंधानों द्वारा यह ज्ञात हुआ है कि प्राचीन भारत में सामंत, उपरिक, भोगिक, प्रतिहर तथा दंडनायक विद्यमान थे। ये लोग न्यूनाधिक सामंत प्रथा के अनुकूल थे। किंतु हमें इनके अधिकारों तथा कर्तव्यों का पता निश्चय रूप से नहीं हो सका है, सिवाय इसके कि ये लोग अपने स्वामियों को आवश्यकता पड़ने पर सैनिक भेजते थे। इन अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में भूमि प्रदान की जाती थी। भूमि व्यवस्था के संबंध में याज्ञवल्क्य के मतानुसार चार वर्ग, महीपति, क्षेत्रस्वामी, कृषक और शिकमी थे (याज्ञवल्क्य 2.158)। आचार्य बृहस्पति ने क्षेत्रस्वामी के स्थान में केवल स्वामी शब्द का ही प्रयोग किया है, परंतु इसका स्पष्टीकरण कर दिया है कि स्वामी, राजा और खेतिहर के मध्य का वर्ग था। उपर्युक्त वर्णन केवल भूधृति के वर्गीकरण को इंगित करता है, न कि कृषक को एक आंग्ल दास के स्तर पर पहुँचा देता है। मुख्य प्रश्न तो यह है, कि भूमि पर स्वत्व अधिकार किस राज्य को, कृषक को अथवा किसी मध्यवर्ती वर्ग को विद्वानों के मतानुसार प्राचीन भारत में यह अधिकार (Servitus) ही था, जो स्वत्व अधिकार नहीं कहा जा सकता।

यवन शासनकाल में हम इस प्राचीन भूमि व्यवस्था में कोई रूपांतर नहीं पाते और न भूमि-स्वत्व-अधिकारों के मूल सिद्धांतों में परिवर्तन ही। यवन शासक भूमिकर गाँव के मुखिया द्वारा ही वसूल करते थे और कभी-कभी स्थानीय सरदारों व राजाओं द्वारा, जो अपना स्तर गाँव के मुखिया से ऊँचा होने का दावा करते थे। इन राजाओं के दावे में राज्य अैर कृषक के बीच में एक मध्यवर्ती वर्ग का जन्म प्रतीत होता है। परंतु सामंतवाद पद अवरोध स्थायी रखा गया था, क्योंकि राज्य सर्वदा इन राजाओं को कर्मचारी ही मानते थे। यद्यपि ये राजा वंशानुगत होने लगे थे, तथापि राज्य को इनके पद को देने तथा वापस लेने का अधिकार सदैव प्राप्त था। एक राजा के उत्तराधिकारी को राजा की सनद प्राप्त करने के लिये प्रार्थनापत्र देना पड़ता था और सनद की प्राप्ति के पश्चात्‌ ही वह राजा होता था। आईनेअकबरी में कृषक तथा राज्य के बीच में किसी मध्यवर्ती वर्ग को मान्यता नहीं दी गई है। तथा कथित राजा और ज़मींदार सैद्धांतिक और वास्तविक रूप में केवल कर वसूल करने वाले कर्मचारी ही थे। यह उल्लेखनीय है कि यवन शासकों ने भूमि-स्वामित्व-अधिकार का कभी दावा नहीं किया था। यह बात इन ऐतिहासिक तथ्यों से स्पष्ट है कि सम्राट् औरंगजेब ने हुंडी, पालम तथा अन्य स्थानों पर कृषकों से भूमि खरीदी थी, जैसा अकबर ने अकबराबाद और इलाहाबाद में किले बनाने के लिए किया था। ऐसा ही शाहजहाँ ने भी किया। उक्त प्रमाणों से सिद्ध होता है, कि यवन शासक केवल कर वसूल करने में ही संपत्ति अधिकार मानते थे, न कि भूमि में। उनके शासनकाल में कृषक के अधिकारों को उच्चतम मान्यता दी गई थी। कृषक अपना कर राजा तथा गाँव के मुखिया द्वारा ही देता था और राजा तथा मुखिया को राज्य द्वारा इस कार्य का पारिश्रमिक मिलता था।

भूम्यधिकार

सन्‌ 1707 ई. में औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात्‌ कृषकों के अधिकारों का लोप धीरे-धीरे आरंभ हुआ, जब कि केंद्रीय सत्ता शिथिल पड़ने लगी। इस अराजकता के समय में अर्धसामंतवादी स्वार्थो की मनोभावना का प्रादुर्भाव हुआ। जब राज्य की सत्ता शिथिल पड़ने लगी, राज्य के कर्मचारी प्रजा के जानमाल की रक्षा करने में असमर्थ होने लगे। फलस्वरूप ग्राम निवासी रक्षा के लिये शक्तिशाली कर्मचारी एवं राजा या मुखिया लोगों का सहारा लेने लगे। इन लोगों ने स्वभावत: शरणार्थी कृषकों के भूम्यधिकारों पर आक्रमण किया। इन परिस्थितियों में ज़मींदारी प्रथा के अंकुर पाए जाते हैं। परंतु इस संकटकाल में भी कृषकों के भूम्यधिकारों का पूर्ण समर्पण नहीं हुआ था।

स्थायी तथा अस्थायी बंदोवस्त योजना

भारत में अंग्रेज़ों के आगमन काल से ही ज़मींदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज़ शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी हैं और कृषक उनकी प्रजा हैं, इसलिये उन्होंने स्थायी तथा अस्थायी बंदोवस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और ज़मींदारों से किए। यद्यपि राजनीतिक औचित्य से प्रभावित होकर उसने एक एक परगना हर कर वसूल करने वाले इजारेदार को पाँच वर्ष के लिये पट्टे पर दे दिया। इस प्रकार ज़मींदारी प्रथा को अंग्रज़ों ने मान्यता प्रदान की यद्यपि आरंभ में उनका विचार कृषकों को उनके अधिकारों से वंचित करने का नहीं था। सन्‌ 1786 ई. में लार्ड कार्न वालिस वारेन हेस्टिगज के बाद, गर्वनर जनरल हुआ। लार्ड कार्नवालिस भी ज़मींदारी प्रथा के पक्ष में था। उसने सन्‌ 1791 ई. बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दस वर्षीय बंदोवस्त की आज्ञा दी। दो वर्ष पश्चात्‌ बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स ने इस दस वर्षीय योजना को स्थायी बंदोबस्त (permanent settlement)श् बना देने की अनुमति दे दी।

मद्रास में ज़मींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज़ शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देने वाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था, परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त ज़मींदारों से किया गया। महान्‌ इतिहासकार सर विंसेंट ए० स्मिथ, अलीगढ़ की बंदोबस्त रिपोर्ट में, यह बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि प्रचलित भूम्यधिकारों की उपेक्षा करते हुए केवल उपयोगिता को लक्ष्य में रखकर बंदोबस्त इजारदारों (revenue farmers) से किए गए। अन्यायपूर्ण करराशि इकट्ठा करने का यह सबसे सरल उपाय है तथा यह राजनीति के दृष्टिकोण से भी उपयोगी है, क्योंकि इसके फलस्वरूप सरकार का एक शक्तिशाली तथा धनी वर्ग की सहायता मिलती रहेगी। इस प्रकार भारतवर्ष के इतिहास में सर्वप्रथम इन बंदोबस्तों द्वारा राज्य और कृषकों के बीच में जमींदारों का वर्ग अंग्रेज़ों की नीति द्वारा स्थापित हुआ। जिसके फलस्वरूप कृषकों के भू-संपत्ति अधिकार, जो अनादि काल से चले आ रहे थे, छिन गए। यह मध्यवर्ती वर्ग दिन प्रति दिन धनी होता गया क्योंकि अंग्रेज शासक अपनी करराशि में से अधिक से अधिक हिस्सा उन्हें प्रलोभन के रूप में देते रहे।

इन बंदोबस्तों में कृषकों के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप उनका दु:ख, अपमान एवं दारिद्रय्‌ दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। कई बार अंग्रेज शासकों ने भी इस ओर ध्यान दिलाया कि कृषकों की भूधृति की रक्षा की जाय एवं उनका लगान बंदोबस्त के समय तक निर्धारित कर दिया जाय। फिर भी कुछ नहीं किया गया। इसका कारण यह था कि अंग्रेज शासकों की धारणा थी कि जमींदारों के साथ व्यवहार में उदारता दिखाने पर जब वे संपन्न एवं संतुष्ट रहेंगे तो वे अपने आसामियों को नहीं सताएँगे जिसके फलस्वरूप वे भी खुशहाल रहेंगे। परंतु यह उनकी महान्‌ भूल थी क्योंकि जमींदारों ने हमेशा ही अपने कर्तव्य के साथ विश्वासघात किया। अत: अंग्रेज शासक यह महसूस करने लगे कि इस भूल का सुधार किया जाए। फलस्वरूप उन्होंने कृषकों की दशा सुधारने के लिए भूमि संबंधी विधानों की व्यवस्था की। यह कदम जमींदारी प्रथा के अस्त की दिशा में प्रथम चरण कहा जा सकता है।

इस प्रथम चरण में, जो सन्‌ 1859 ई. से 1929 ई. तक रहा, जो कानून बने उनसे ज़मींदारों के लगान बढ़ाने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए और उच्च श्रेणी के कृषकों को लाभ भी हुए। किंतु इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य ज़मींदारों को लगान वसूल करने में सहूलियत देने का था जिससे वे राज्य को राजस्व ठीक समय पर दे सकें। सन्‌ 1959 ई. में भूमि संबंधी पहला अधिनियम पास हुआ। यह अधिनियम समस्त ब्रिटिश भारत के लिये एक आदर्श भूमि-अधिनियम था जिसके अनुरूप अधिनियम भारत के सभी भागों में पास हुए और समय-समय पर उनमें संशोधन भी किए गए ताकि असंतुष्ट कृषकों को शांत किया जा सके। किंतु ज़मींदार फिर भी कृषकों को अपने न्यायपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण करों को वसूलने के लिये निचोड़ते रहे, जिससे किसानों में घोर असंतोष तथा बेचैनी फैलने लगी।

ज़मींदारी प्रथा के अस्त के क्रम में दूसरा चरण सन्‌ 1930 ई. से 1944 ई. तक रहा। इस समय में सारे देश में किसान आंदोलन होने लगे। इन आंदोलनों का बीज एक किसान सभा ने बोया था जो अखिल भारतीय कांग्रेस की इलाहाबाद बैठक में तारीख 11 फरवरी, सन्‌ 1918 ई० को हुई थी। तत्पश्चात्‌ कांग्रेस किसानों के हितों को आगे बढ़ाने लगी। परिणाम स्वरूप ग्रामीण जनता में काफी जाग्रति पैदा हो गई। पं० जवाहरलाल नेहरू ने यू० पी० कांग्रेस कमेटी में तारीख 27 अक्टूबर, 1928 को घोषणा की कि राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है जब तक किसानों को शोषण से मुक्ति न प्राप्त हो। शनै: शनै: किसानों की जागरूकता बढ़ी और साथ ही साथ उनकी व्याकुलता भी। किसान वर्ग अब अधिक मुखर हो गया और भूधृति की स्थिरता एवं लगान में कमी की मांग करने लगा। किसान आंदोलनों से प्रभावित होकर रैय्यतवाड़ीक्षेत्रों में नए अधिनियम बनाए गए जिनसे कृषकोंश् के हितों की रक्षा हो सके। मलाबार टेनेंसी ऐक्ट (1930 ई.) इस संबंध में सीमाचिन्ह है। इसके बाद भोपाल लैंड रेवेन्यू ऐक्ट, 1935 तथा आसाम टेनेंसी ऐक्ट 1935 पास हुए। गवर्नमेंट ऑव इंडिया ऐक्ट, 1935, के अर्न्तगत जब ‘प्राविंशल आटोनोमी’ का उद्घाटन हुआ तो प्रांतीय सरकारों ने भूमिसुधार अधिनियमों की व्यवस्था की जिनमें कृषकों को और अधिकार प्रदान किए गए तथा जमींदारों के अधिकारों की कटौती की गई। यू० पी० टेनेंसी ऐक्ट, 1939, तथा बंबई टेनेंसी ऐक्ट, 1939 विशिष्ट उदाहरण ऐसे व्यापक अधिनियमोंश् के हैं जिनके द्वारा कृषकों को मौरूसी अधिकार दिए गए एवं कृषकों के हित में जमींदारों के कतिपय अधिकार छीन लिए गए।

भूमि सुधार अधिनियम

इन भूमि सुधार अधिनियमों के बनने पर भी जमींदारी प्रथा की बुराइयाँ विद्यमान रहीं, यद्यपि काफी हद तक जमींदारों को पंगु बना दिया गया था। इन जमींदारों को नेहरू जी ‘ब्रिटिश सरकार की अतिलालित संतान (Spoilt child)’ कहा करते थे। वे भूतकालीन सामंतवादी प्रथा के प्रतीक थे जो कि आधुनिक परिस्थतियों के बिल्कुल प्रतिकूल हो गई थी। इसलिए इंडियन नेशनल कांग्रेस ने कई बार इस बात की घोषणा की कि जमींदारी उन्मूलन को कांग्रेस के कार्यक्रम में प्रमुख स्थान देना चाहिए। एक किसान कफ्रोंंस तारीख 17,28 अप्रैल सन्‌ 1935 ई. को सरदार पटेल के सभापतित्व में इलाहाबाद में हुई थी। उसने जमींदारी उन्मूलन को प्रस्ताव पास करके इस ओर एक प्रमुख कदम उठाया इस प्रस्ताव में यह घोषणा की गई थी कि ‘ग्रामकल्याण के दृष्टिकोण से वर्तमान जमींदारी प्रथा बिल्कुल विपरीत है। यह प्रथा ब्रिटिश शासन के आगमन में लाई गई और इससे ग्रामीण जीवन पूर्णतया तहस नहस हो गया है’। परंतु सन्‌ 1939 ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध शुरू हो जाने के कारण भूमि सुधार का सारा कार्यक्रम रूक गया।

युद्ध की समाप्ति के बाद ज़मींदारी प्रथा के अंत का अंतिम चरण आरंभ हुआ जो सन्‌ 1945 से 1955 तक चला। युद्ध समाप्त होते ही ब्रिटिश सरकार ने 1945 ई. में गवर्नमेंट आफ इंडिया ऐक्ट 1935 ई. के अंतर्गत प्रांतीय सदनों के चुनाव करने का फैसला किया। कांग्रेस ने चुनाव में भाग लेने का निश्चय किया और दिसंबर 1945 में चुनाव घोषणापत्र निकाला। इस घोषणापत्र में ज़मींदारी उन्मूलन के विषय में स्पष्टतया कहा गया कि ‘भूमि व्यवस्था का सुधार, जिसकी भारत में अति आवश्यकता है, कृषकों तथा राज्यके बीच मध्यवर्ती वर्ग को हटाने से संबंधित है। इसलिए इस मध्यवर्ती वर्ग के अधिकारों का उचित प्रतिकर देकर प्राप्त कर लिया जाना चाहिए’। इस घोषणा पत्र से अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ तथा पत्रकार सभी सहमत थे। ज़मींदारी प्रथा भारतीय आर्थिक विकास में रूकावट डालती थी, क्योंकि बड़े ज़मींदार हमेशा प्रतिक्रियावाद के समर्थक थे। ‘लंदन इकोनोमिस्ट’ ने इनके विषय में लिखा था कि ‘इनमें से अधिकतर ‘थैकरसे’ के पात्र ‘लार्ड स्टीन’ की तरह दुश्चरित्र, ‘जेन आस्टीन’ के ‘मिस्टर बेनेट’ की तरह आलसी, ‘सुर्तीजस्क्वायर’ की तरह शराबी थे (Indian land porblem, G.D. Patel से उद्धृत)। बंगाल लैंड कमीशन (सन्‌ 1940 ई.) भी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि ‘सन्‌ 1793 ई. का स्थायी बंदोबस्त उस समय जिन भी कारणों से उचित समझा गया हो, आज की परिस्थिति में अनुपयुक्त है और जमींदारी प्रथा में इतनी बुराइयाँ उपज चुकी है कि यह अब राष्ट्र के हित में किसी भी प्रकार उपयोगी नहीं रह गई है।’ भारतीय तथा पाश्चात्य अर्थवेत्ताओं की राय में जमींदारी उन्मूलन अधिक कृषि उत्पादन के लिए अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त यह प्रथा संसार के हर भाग में समयानुकूल न होने के कारण समाप्त हो चुकी है। पुनश्च, यह प्रथा राज्य के लिये अधिक खर्चीली है। सर्वोपरि, यह प्रथा इस समय ऐसी स्थिति पर पहुँच चुकी थी कि यदि इसका उन्मूलन न किया गया होता तो इसके कारण ने केवल राष्ट्रीय आर्थिक समस्या पर ही वरन्‌ समाज सुरक्षा पर भी विपत्ति आ पड़ती।

चुनाव में सफलता

अत: सन्‌ 1946 ई. में चुनाव में सफलता के फलस्वरूप जब हर प्रांत में कांग्रेस मंत्रिमंडल बने तो चुनाव प्रतिज्ञा के अनुसार ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने के लिये विधेयक प्रस्तुत किए गए। ये विधेयक सन्‌ 1950 ई. से 1955 ई. तक अधिनियम बनकर चालू हो गए जिनके परिणामस्वरूप ज़मींदारी प्रथा का भारत में उन्मूलन हो गया और कृषकों एवं राज्य के बीच पुन: सीधा संबंध स्थापित हो गया। भूमि के स्वत्वाधिकार अब कृषकों को वापस मिल गए जिनका उपयोग वे अनादि परंपरागत काल से करते चले आए थे।

इस प्रकार जिस जमींदारी प्रथा का उदय हमारे देश में अंग्रेजों के आगमन से हुआ था उसका अंत भी उनके शासन के समाप्त होते ही हो गया। इस प्रथा की समाप्ति पर किसी ने तनिक भी शोक प्रकट नहीं किया, क्योंकि इसका विनाश होते ही पुराने सिद्धांत की, जिसके अनुसार भूमि का स्वामी कृषक होता था, पुनरावृति हुई।


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