संतरा
संतरा
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 11 |
पृष्ठ संख्या | 372 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1965 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | श्रीराम शुक्ल |
संतरा निंबूवंश (Citrus) की किस्मों में से सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्रचलित फल है। इसके उत्पादन का क्षेत्रफल भी निंबूवंश की अन्य किस्म, जैसे माल्टा, मुसम्मी, ग्रफ्रेूट, नींबू आदि से अधिक है। संतरा पीले छिलकेवाली और फाँकवाली एक रसदार किस्म है। इसकी फाँके छीलकर जीरा खाया जाता है और रस निकालकर भी पीया जाता है।
भारत में नागपुर का संतरा प्रसिद्ध है। वहाँ अच्छी किस्मों का संतरा खूब पैदा होता है। वहाँ की जलवायु और भूमि संतरे की खेती के लिए उपयुक्त हैं। उत्तरी उत्तर प्रदेश में संतरे की फसल अच्छी नहीं होती।
संतरा समशीतोष्ण और कम उष्ण प्रदेशों में सफलता से पैदा होता है। जलवायु के साथ साथ इसकी सफल किस्म के लिए उपयुक्त भूमि का होना भी अत्यंत आवश्यक है। संतरे के लिए हलकी दुमट भूमि, जिसमें चूने की मात्रा भी हो, सबसे उत्तम मानी जाती है। अधिक रेतीली जमीन उपजाऊ नहीं होती और संतरे के लिए खराब है। अधिक चिकनी मिट्टीवाली जमीन में पानी ठहरता है और वह भी संतरे के लिए बहुत उपयुक्त नहीं होती। संतरे के लिए जमीन चुनते समय नीचे लिखी बातों का ध्यान रखना चाहिए :
- भूमि के ककड़ पत्थर नहीं होना चाहिए #निचली सतह अर्थात् 4, 5 फुट गहराई में कंकड़ या पत्थर आदि की सतह नहीं होनी चाहिए,
- पानी की सतह बहुत ऊँची नहीं होनी चाहिए नहर आदि के किनारे, जहाँ पानी बहुत कम गहराई में होता है, संतरा अच्छा नहीं फलता,
- निचली सतह में बहुत चिकनी मिट्टी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि चिकनी मिट्टी में पानी का निकास अच्छा नहीं होता तथा
- ऐसी जमीन जहाँ वर्षाकाल में पानी भरता है, संतरा लगाने के लिए नहीं चुननी चाहिए। पानी भरने से संतरे की जड़ें गलकर खराब होने लगती है।
- संतरे को काफी पानी की आवश्यकता होती है। यदि कुएँ के पानी से सिंचाई की जाती है, तो यह देख लेना चाहिए कि पानी खरा तो नहीं है। खारे पानी से संतरे के पेड़ों को हानि पहुँचती है।
ऊपर लिखी बातों को ध्यान में रखकर ही संतरा लगाने के लिए भूमि को चुनना चाहिए। यदि भूमि और स्थान संतरे के लिए उपयुक्त न हों, तो वहाँ संतरा लगाने से कोई लाभ नहीं होगा। पेड़ लगाने से पहले भूमि को ठीक करना पड़ता है। यदि उसमें पहले काश्त होती रही है, तो अधिक काम नहीं रहता। नई जमीन हो, तो पहले पूरे क्षेत्र की सफाई करनी चाहिए। जंगली झाड़ियाँ आदि काट फेंकना चाहिए। फिर पूरी जमीन को गहरी जुताई कर देना चाहिए। यह काम मई, जून में करना चाहिए। इससे पूरी भूमि के घासफूस की सफाई हो जाती है। यदि जमीन की सतह ठीक न हो, तो उसे भी सिंचाई की नालियों की सुविधा देखते हुए ठीक कर लेना चाहिए। इसके बाद वर्गाकार रूप में पूरे खेत में २० फुट के अंतर से गोल गड्ढे खोद लेना चाहिए। गड्ढों की गहराई तीन फुट और गोलाई भी तीन फुट होनी चाहिए। वर्षा प्रारंभ होने पर, गड्ढों को मिट्टी से फिर भर देना चाहिए। भरने से पहले ककड़, पत्थर आदि मिट्टी से निकाल लेना चाहिए। प्रति गड्ढे में लगभग ३० सेर सड़े गोबर की खाद ओर पाँच सेर हड्डी का चूरा मिलाकर भर देना चाहिए। अब गड्ढे पेड़ लगाने के लिए तैयार हो गए। दो पानी पड़ जाने के बाद उनमें पेड़ लगा देना चाहिए।
किस्मों का चुनाव
केवल वे ही किस्में लगानी चाहिए जिनकी बाजार में खपत हो। जलवायु के अनुसार निम्नलिखित किस्में चुननी चाहिए :
गर्म जिलों के लिये
- कोंडानेरम,
- मैंडरीन इंपीरियल तथा
- केवला।
तराई के ठंढे प्रदेशों के लिए
- श्रीनगर,
- कोडांनेरम तथा .
- किश्यू।
पेड़ों का चुनाव
- संतरे के पेड़ चश्मा चढ़ाकर तैयार करते हैं।
- खट्टे का बीच बोकर पनीर (स्टाक) तैयार करते हैं और संतरे की किस्मों के चश्में बाँधते हैं।
- चाहे कुछ अधिक मूल्य देना पड़े, सदा भरोसे की जगह से, जहाँ से पेड़ अच्छे मिलें, लेना चाहिए अधिक पुराने या छोटे, टेढ़े मेढ़े, पीली पत्तियोंवाले पेड़ नहीं लेने चाहिए।
बाद की देखभाल
- सदा आवश्यकतानुसार सिंचाई और निराई का ध्यान रखना चाहिए।
- फल बैठाने के बाद पानी की कमी न होनी चाहिए।
- पेड़ के तने से फूटकर बढ़नेवाले अंत:भूसारियों ([१]) को सदा काटते रहना चाहिए।
- प्रतिवर्ष थालों की गुड़ाई करना चाहिए साथ ही उनमें खाद मिला देनी चाहिए।
- प्रारंभ में दी गई खाद के अलावा, प्रति वर्ष पेड़ की उमर बढ़ने के साथ निम्नलिखित खाद भी बढ़ाकर देनी चाहिए :
- गोबर की खाद, दो सेर; अमोनियम सल्फेट, एक पाव; हड्डी की खाद, एक पाव तथा लकड़ी की राख, दो पाव।
- किसी भी बीमारी के, अथवा कीड़ा, लगते ही जाँच कराकर उचित दवा के छिड़काव आदि का प्रबंध करना चाहिए।
संतरे के फल को वनस्पति विज्ञानी नारंगक ([२]) कहते हैं यद्यपि साधारण व्यक्ति इसे नारंगी के नाम से ही जानते हैं। फल के मध्य में मज्जा ([३]का बना मुलायम अंश होता है। फल में 10 से 12 फाँकें पिथ (pith) को घेरे रहती है और फाँकों में रस रहता है। समस्त नारंगी मुलायम छिलके से ढँकी रहती है। छिलके का भीतरी अंश सफेद और स्पंजी होता है। इसमें जेली सा पदार्थ पेक्टिन रहता है। छिलके का बाहरी भाग नारंगी रंग की छोटी छोटी ग्रंथियो से बना होता है। इन ग्रंथियों में वाष्पशील तेल होता है, जो निकाला जा सकता है और सुगंध के काम आता है। नारंगी के रस में शर्करा, साइट्रिक अम्ल तथा खनिज लवण रहते हैं। रस में विटामिन ए, बी और सी की प्रचुरता रहती है। इन घटकों के कारण ही इस फल की गणना बहुमूल्य आहार के रूप में होती है। नारंगी के फल में अनेक बीज रहते हैं। कुछ नारंगियाँ बिना बीज की भी होती है। आहार विज्ञान के विशेषज्ञ डॉ. कालेज का कथन है कि यदि संतरे के एक गिलास रस का प्रतिदिन सेवन किया जाए, तो मनुष्य कम से कम सौ वर्ष तक जीवित रह सकता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ