केवलान्वयी

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लेख सूचना
केवलान्वयी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 117
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बलदेव उपाध्याय

केवलान्वयी न्यायदर्शन में एक प्रकार का विशेष अनुमान। यहाँ हेतु साध्य के साथ सर्वदा सत्तात्मक रूप से ही संबद्ध रहता है। न्यायदर्शन के अनुसार व्याप्ति दो प्रकार से हो सकती है-अन्वयमुखेन तथा व्यतिरेकमुखेन। अन्वय का अर्थ है-तत्सत्त्वे तत्‌सत्ता अर्थात्‌ किसी वस्तु के होने पर किसी वस्तु की स्थिति, जैसे धूम के रहने पर अग्नि की स्थिति। व्यतिरेक व्याप्ति वहाँ होती है जहाँ हेतु तथा साध्य का संबंध निषेधमुखेन सिद्ध होता है। केवलान्वयी अनुमान केवल प्रथम व्याप्ति के ऊपर ही आधारित रहता है। यथा समस्त ज्ञेय पदार्थ अभिधेय होते हैं (प्रतिज्ञा) घट एक पदार्थ है (हेतुवाक्य), अतएव घट अभिधेय है (निगम)।

ज्ञेय का अर्थ है ज्ञान का विषय होना। (अर्थात्‌ वह पदार्थ जिसे हम जान सकते हैं)। अभिधेय का अर्थ है अभिधा (या संज्ञा) का विषय होना अर्थात्‌ वह पदार्थ जिसे हम कोई नाम दे सकते हैं। जगत्‌ का यह नियम है कि ज्ञानविषय होते ही पदार्थ का कोई न कोई नाम अवश्यमेव दिया जाता है। यह व्याप्ति सत्तात्मक रूप से ही सिद्ध की जा सकती है, निषेधमुखेन नहीं, क्योंकि कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं हैै जिसको नाम न दिया जा सके। अर्थात्‌ अभिधेयाभाव को हम ज्ञेयभाव के साथ दृष्टांत के अभाव में कथमपि संबद्ध नहीं सिद्ध कर सकते। इसलिये ऊपरवाला निगमन केवल अन्वयव्याप्ति के आधार पर ही सिद्ध किया जा सकता है। इसीलिये ये अनुमान केपलान्वयी कहलाता है।[१]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. देखिए-अन्वयव्यतिरेक