अनेकांतिक हेतु
अनेकांतिक हेतु
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1 |
पृष्ठ संख्या | 130 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1973 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | राम् चंद्र पांडेय। |
अनेकांतिक हेतु हेत्वाभास का एक भेद जिसे सव्यभिचार भी कहते हैं। अनुमान में हेतु को साध्य की अपेक्षा कम स्थानों पर किंतु साध्य के साथ रहना चाहिए। यदि हेतु ऐसा नहीं है तो वह अनेकांतिक है। इस अवस्था में हेतु या तो साध्य से अलग रहता है, या केवल उस स्थान पर रहता है जहाँ साध्य की सिद्धि करनी है या उस हेतु का कोई दृष्टांत नहीं होता। इसलिए इसके तीन भेद होते है :
1. साधारण अनेकांतिक में हेतु साध्य से अन्यत्र भी रहता है; जैसे, पर्वत में आग है क्योंकि बुद्धिगम्य है१ यहाँ बुद्धिगम्यता आग के अतिरिक्त अन्य स्थानों पर भी रहती है।
2. असाधारण अनेकांतिक में हेतु केवल उस स्थान पर रहता है जहाँ साध्य की सिद्धि करनी है; जैसे, शब्द नित्य है क्योंकि वह शब्द है। यहाँ शब्द रूप हेतु केवल शब्द में रहता है जहाँ नित्यत्व की सिद्धि इष्ट है।
3. अनुपसंहारी अनेकांतिक में हेतु साध्य के संबंध का कोई दृष्टांत नहीं होता; जैसे, सब अनित्य हैं क्योंकि सब ज्ञेय हैं। यहाँ ज्ञेयता और अनित्यता के परस्पर संबंध का पक्ष के अतिरिक्त कोई दृष्टांत नहीं है क्योंकि यहाँ 'सब' से अलग कुछ भी नहीं है जिसको दृष्टांत रूप में उपस्थित किया जा सके।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
सं.ग्रं.-न्यायसिद्धांत मुक्तावली; तर्कसंग्रह 2-1