अरबी संस्कॄति

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लेख सूचना
अरबी संस्कॄति
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 223
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक डॉ. अब्दुल अलीम

अरबी संस्कृति अरब देश दक्षिणी पश्चिमी एशिया का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है जो क्षेत्रफल में यूरोप के चतुर्थ तथा संयुक्त राज्य अमरीका के तृतीय भाग के बराबर है। देश के अधिकतर भाग मरुस्थल तथा पर्वतीय हैं, केवल कहीं-कहीं छोटे-छोटे स्रोत तथा खजूर के झुरमुट दीख जाते हैं। दक्षिणी पश्चिमी भाग तथा समुद्रवर्ती भूखंड उपजाऊ है जहाँ अन्नादि वस्तुओं की खेती होती है। क्षेत्रफल की तुलना में अरब की जनसंख्या न्यूनतम है।

वहाँ के निवासियों को अरब कहते हैं जिनका संबंध सामी वंश से है। इसी वंश से संबंधित अन्य सभ्य जातियाँ जैसे बाबुली (बाबिलोनियन) असुरी (असीनियन), किल्दानी, अमूरी, कनानी, फिनीकी तथा यहूदी हैं।

अरब निवासियों की संस्कृति को दो कालों में विभाजित किया जाता है: प्राक्‌ इगस्लाम काल तथा इस्लामोत्तर काल। पहले को ऐतिहासिक परिभाषा में जहालत या अज्ञान का काल और दूसरे को इस्लामी काल भी कहते हैं। प्रथम काल 610 ई. के पूर्व का है तथा द्वितीय उसके पश्चात्‌ का। 610 ई. वह शुभ वर्ष है जिसमें मुहम्मद साहब को, जिनका जन्म 575 ई. में मक्का में हुआ था, ईशदौत्य (नुबुव्वत) मिला। इसी वर्ष से उनके जीवन में परिवर्तन प्रारंभ हुआ और वे नबी के नाम से पुकारे जाने लगे। इसी वर्ष से अरबों के जीवन के प्रत्येक भाग में प्रभावशाली क्रांति आई और जाहिली सभ्यता इस्लामी संस्कृति में परिवर्तित हो गई।

दक्षिणी अरब की प्राचीन सभ्यता---प्राचीन काल में ईसा से तीन शताब्दी पूर्व तीन प्रकार की सभ्यताओं के नाम इतिहास में मिलते हैं: (1) बाबुली सभ्यता, दजला और फरात की घाटी की, (2) नील घाटी की सभ्यता, प्राचीन मिस्र की, तथा (3) सिंध घाटी की सभ्यता जिसको भारत के प्राचीन निवासी द्राविड़ों ने उन्नति के शिखर पर पहुँचाया था। चूंकि दक्षिणी अरब दो प्राचीन सभ्यताओं के केंद्र बाबुल तथा मिस्र के मध्य में स्थित था तथा उसके तटवर्ती भूखंड उपजाऊ भी थे, वहाँ के निवासियों की अपनी सभ्यता थी जिसकी समानता प्राचीन बाबुली अथवा मिस्री सभ्यता से तो नहीं की जा सकती, फिर भी उसका अपना महत्व है। उपर्युक्त सभ्यताओं से वह न केवल प्रभावित थी, अपितु घनिष्ठ संबंध भी रखती थी। वहाँ के निवासी तटवर्ती भूखंड में बसने के कारण जलयान चलाने में दक्ष थे। अत: व्यापारी अपनी सामग्री तथा सांस्कृतिक संपत्ति जल थल के मार्ग द्वारा स्थानांतरित करते थे। संभव है, इसी कारण इन्हीं प्राचीन अरबों ने इसको अरब सागर की संज्ञा दी हो। अत: इस सभ्यता को यदि समुद्री सभ्यता कहा जाए तो अनुचित न होगा।

दक्षिणी अरब में सबाई सर्वप्रथम अरब थे जो सभ्यता के क्षेत्र में आए। इनका देश यमन था और इनका व्यवसाय जलयान चलाना तथा व्यापार करना था। ये मुख्यत: देशी वस्तुओं, मसाले तथा सुगंधित वस्तुओं का व्यापार करते थे। इसके अतिरिक्त फारस की खाड़ी के मणि, भारत की तलवारें, कपड़े, चीन का रेशम, हाथीदांत, सीमुर्ग के पर, स्वर्ण तथा अन्य बहुमूल्य एवं अद्भुत वस्तुएँ वे पूरब से पश्चिम की मंडियों में व्यापार के हेतु ले जाते थे। इस समय यह जाति समुद्री व्यापार में अग्रणी थी। उस भूखंड में छोटी-छोटी बस्तियां थी जिनकी जीवनव्यस्था कबाइली थी।

दक्षिणी अरब में सर्वप्रथम स्थापित होनेवाला राज्य मिनाई था। यह नज़रान तथा हज्ऱमौत के मध्य जौफुलयमन में था। उसका उत्कर्ष काल 1.300 ई.पू. से 650 ई.पू. तक है। इस राज्य में लगभग 26 राजा हुए। राज्यारोहण का नियम पैतृक था। इस राज्य का उत्थान बहुत कुछ व्यापार के कारण ही हुआ। मिनाई राज्य के पश्चात्‌ सबाई राज्य स्थापित हुआ जो 650 ई.पू. से 115 ई.पू. तक रहा। सबाई राज्य पूरे दक्षिणी अरब में फैला हुआ था। उनका प्रथम काल 650 ई.पू. में समाप्त हो जाता है। इस काल में राजा धार्मिक नेता भी होता था और उसकी उपाधि 'मुकरिंब सबा' थी। द्वितीय काल 115 ई.पू. में समाप्त हो जाता है। इस काल में राजा 'मलिक सबा' के नाम से पुकारा जाता था। इसकी राजधानी मारिब थी। ये लोग वास्तु-निर्माण-कला में दक्ष थे। इन्होंने अनेक गढ़ बनाए थे जिनके खंडहर अब भी पाए जाते हैं। इन्होंने एक भव्य बांध भी बांधा था जो 'सद्दमारिब' के नाम से प्रसिद्ध था। 115 ई.पू. के पश्चात्‌ दक्षिणी अरब का राज्य हिम्यरी जाति के हाथ में आया। इसका प्रथम काल 300 ई. तक रहा। हिम्यरी, सबाई तथा मिनाई संस्कृति तथा व्यापार के अधिकारी थे। वे कृषि में दक्ष थे। सिंचाई के लिए उन्होंने कुएँ, तालाब तथा बांध निर्मित किए थे। इनकी राजधानी जफ़ार थी जो सांस्कृतिक दृष्टि से समुन्नत थी। इस काल में निर्माण कला की अधिक उन्नति हुई। यमन प्रासादभूमि के नाम से पुकारा जाने लगा। इन प्रासादों में गुमदान का प्रासाद बहुत प्रसिद्ध था जो विश्व इतिहास में प्रथम गगनचुंबी था। उसकी छत ऐसे पत्थर से बनाई गई थी कि अंदर से बाहर का आकाश दीखता था। सबाई तथा हिम्यरी राज्य का शासन बड़ा अद्भुत था जिसमें जातीय, वर्गीय तथा साम्राज्यवादी शासन सभी के अंश मिलते हैं। हिम्यरी राज्य के इसी प्रथम युग में अरबों का पतन हो गया। इसका मुख्य कारण रूमियों की शक्ति का आविर्भाव था। जैसे-जैसे रूमियों के जलयान अरब सागर तथ कुल्जुम सागर में आने लगे तथा रूमो व्यापारी यमन के व्यापार पर अधिकार करने लगे वैसे-वैसे दक्षिणी अरब की आर्थिक दशा जीर्ण होती गई। आर्थिक दुर्दशा से राजनीतिक पतन का आविर्भाव हुआ। हिम्यरी राज्य का द्वितीय काल 300 ई. से प्रारंभ होता है। इसी काल में हब्‌शह (अबीसीनिया) के राजा ने यमन पर आक्रमण करके 340 ई. से 378 ई. तक राज्य किया परंतु पुन: हिम्यरी राज्य ने अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस काल में हिम्यरी राजाओं की उपाधि तुब्बा थी जिन्होंने दक्षिणी अरब पर 525 ई. तक राज किया और अपनी सभ्यता को कायम रखा। 525 ई. में पुन: हब्शह निवासियों ने यमन पर आक्रमण करके उसकी स्वाधीनता को समाप्त कर दिया। अब्रहह दक्षिणी अरब शासक था। उसने 570 ई. में मक्का पर भी आक्रमण किया परंतु असफल रहा। 575 ई. में ईरानियों ने यमन पर आक्रमण करके हब्शह के राज्य को नष्ट कर दिया और कुछ दिनों पश्चात्‌ ईरानियों का पूर्ण रूप से यमन पर अधिकार हो गया। 628 ई. में यमन के पाँचवें शासक ने इस्लाम स्वीकार किया जिस कारण यमन मुसलमानों के अधिकार में आ गया। इस्लाम के पूर्व दक्षिणी अरब का धर्म नक्षत्रों पर आधारित था। इसी नाम के देवी देवताओं की पूजा की जाती थी। दक्षिणी अरब में यहूदीपन और ईसाईपन अधिक मात्रा में आ गया था। नज़रान में ईसाइयों की संख्या अधिक थी।

उत्तरी तथा मध्य अरब की प्राचीन सभ्यता-दक्षिणी अरब के समान उत्तरी अरब में भी अनेक स्वाधीन राज्य स्थापित हुए, जिनकी शक्ति तथा वैभव व्यापार पर आधारित था। उनकी सभ्यता भी ईरानी अथवा रूमी सभ्यता से प्रभावित थी। यहाँ सर्वप्रथम राज नबीतियों का था जो ईसा से 600 वर्ष पूर्व आए थे और कुछ दिनों के पश्चात्‌ पेत्रा पर अधिकार कर लिया था। ये लोग वास्तुशिल्प में दक्ष थे। इन्होंने पर्वतों को काटकर सुंदर भवन बनाए। ईसा से प्राय: चार सौ वर्ष पूर्व तक यह नगर सबा तथा रूमसागर के कारवानी मार्ग में महत्वपूर्ण स्थान रखता था। यह राज्य रूमियों के अधिकार में था परंतु 105 ई. में रूमियों ने इसपर आक्रमण करके इसे अपने साम्राज्य का एक प्रांत बना लिया। इसी प्रकार का दूसरा राज्य तद्मुर (Palmyra) के नाम से प्रसिद्ध था। उसका वैभवकाल 130 ई. से 270 ई. तक था। इसका व्यापार चीन तक फैला हुआ था। रूमियों ने 270 ई. में इसे भी नष्ट कर दिया। तद्मुर की सभ्यता यूनान, साम और मिस्र की सभ्यता का अद्भुत मिश्रण थी। इन दोनों स्वाधीन राज्यों के पश्चात्‌ दो राज्य और कायम हुए-एक गस्सानी, जो बीजंतीनी (Byzantine) राज्य के अधीन था, तथा दूसरा लख्मी, जो ईरानी राज्य के अधीन था। प्रथम राज्य की संस्कृति रूमियों से प्रभावित थी तथा द्वितीय की इरानियों से। लख्मी तथा गस्सानी दोनों ने वास्तु में अधिक उन्नति कर ली थी। खवर्नक तथा सदीर दो भव्य प्रासाद उन्हीं के महान्‌ कार्य हैं जिनका वर्णन प्राचीन अरबी साहित्य में भी मिलता है। गस्सानियों ने भी अपने भूखंड को सुंदर प्रासादों, जलकुंडों, स्नानागारों तथा क्रीडास्थलों से सुसज्जित किया था। इन दोनों राज्यों का उन्नतिकाल छठी शताब्दी है। इसी प्रकार का एक राज्य मध्य अरब में किंदा के नाम से प्रसिद्ध था जो यमन के तुब्बा वंश के राजाओं के अधीन था। किंदा की सभ्यता यमनी सभ्यता थी। वह इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसने अरब के अनेक वंशों को एक शासक के अधीन करने का प्रथम प्रयत्न किया था।

नज़्द तथा हिजाज में खानाबदोश रहा करते थे। इसमें तीन नगर थे- मक्का, यस्रिब, तथा ताएफ। इन नगरों में बदवी जीवन के तत्व अधिक मात्रा में पाए जाते थे, यद्यपि अनेक वंश के लोग व्यापार किया करते थे। मध्य अरब के निवासियों का जीवन तथा सभ्यता बदवियाना थी और उनकी जीवनव्यस्था गोत्रीय (कबीलाई) थी। इसी कारण युद्ध खूब हुआ करते थे। बदवियों का धर्म मूर्तिपूजा था। यस्रिब में कुछ यहूदी भी रहा करते थे। मक्का में काबा था जो जाहिल अरब के धार्मिक विश्वासों का स्रोत था।

इस्लामी सभ्यता- 610 ई. में, जैसा उपर्युक्त पंक्तियों में वर्णित है, ईशदूत हजरत मुहम्मद ने एक नवीन धर्म, नवीन समाज, तथा नवीन सभ्यता की नींव रखी। जब वह 622 ई. में मक्का से हिजरत कर (छोड़कर) मदीना गए तब वहाँ एक नवीन प्रकार के राज्य की स्थापना की। इस नवीन धर्म की प्रारंभिक शिक्षा का स्रोत कुरान है। इसकी आरंभिक तथा महत्वपूर्ण शिक्षाएँ तीन हैं: 1. तौहीद (एक ईश्वर की उपासना करना); 2. रिसालत (हजरत मुहम्मद साहब को ईशदूत मानना); 3. प्रलोक (मआद) अर्थात्‌ इस नश्वर संसार का एक अंतिम दिवस होगा और उस दिन प्रत्येक मनुष्य ईश्वर के समक्ष अपने कर्मों का उत्तर देगा।

इस धर्म के महत्वपूर्ण संस्कारों में पाँच समय नमाज़ पढ़ना और वर्ष में एक बार हज करना, यदि हज करने में समर्थ हो, था। आर्थिक संतुलन कायम रखने के लिए प्रत्येक धनी मुसलमान का यह कर्तव्य माना गया कि अपनी वर्ष भर की बची हुई पूँजी में से ढाई प्रतिशत वह दीन दुखियों की आर्थिक दशा के सुधार के लिए दे दे। नवीन समाज की रचना इस प्रकार की गई कि वे जाहिली अरब जो अनेकानेक जातियों में विभाजित थे सब एकबद्ध हो गए और उन्होंने पहली बार राष्ट्रीयता की कल्पना की। जाहिली समाज में केवल रक्तसंबंध जाति के प्रत्येक व्यक्ति को एकत्र रखता था परंतु इस्लामी समाज में धर्म तथा भ्रातृत्व का संबंध प्रत्येक मुसलमान को एक ही झंडे के नीचे एकत्रित करता था। इसके अतिरिक्त इस्लामी समाज की नींव बिना किसी भेदभाव के धर्म, भ्रातृत्व तथा न्याय पर आधारित थी। नैतिक तथा सामाजिक बुराइयों से बचने की प्रेरणा मिली तथा सदाचार और परोपकार को प्रोत्साहन मिला। अतएव इस नवीन धर्म तथा समाज की नींव पर एक समुन्नत सभ्यता के भवन का निर्माण हुआ। ईशदूत (पैगंबर नबी) ने मदीना में एक नए ढंग के राज्य की स्थापना की जो गणतंत्रीय नियमों पर आधारित था। ऐसे शासन से उन्होंने केवल दस वर्ष में पूरे अरब देशों पर अधिकार कर लिया।

जब 632 ई. में मुहम्मद साहब का देहाँत हुआ तो लगभग पूरे अरब के निवासी मुसलमान हो चुके थे। उनके देहाँत के पश्चात्‌ 661 ई. तक यह गणतंत्रीय शासन स्थापित रहा। तदनंतर मुहम्मद साहब के खलीफा (प्रतिनिधि) अबूबक्र, उमर, उस्मान और अली ने उन्हीं के ढंग पर शासन किया और गणतंत्र के तत्वों को कायम रखा। शासक तथा प्रजा के भेद-भावों को समाप्त कर दिया गया तथा न्याय और भ्रातृत्व के आधार पर देश संघटित हुआ। राज्य की महत्वपूर्ण समस्याएँ परामर्श समिति द्वारा निश्चित की जाती थीं। इसी कारण इस काल को 'ख़ुल्फ़ाएराशिदीन' का काल कहते हैं। 661 ई. में उमवी काल प्रारंभ होता है। उमवी राज्य के संस्थापक अमीर मुआविया थे। उनके राज्यारोहण से राज्य की परिस्थितियों में कई परिवर्तन हुए। ख़िलाफ़त (प्रतिनिधान) सल्तनत में परिवर्तित हो गया तथा गणतंत्र स्वाधीनता में। ख़लीफ़ा या राजा जातीय तथा पैतृक होने लगे। ख़लीफ़ा के निर्वाचन की प्रथा समाप्त हो गई। यह राज्य 750 ई. तक कायम रहा। इसी राजधानी दमिश्क थी। खुलफ़ाएराशिदीन तथा उमवी काल इस्लामी विजयों का काल है। इन दोनों युगों में इस्लामी विजयों की प्रधानता रही। उमवी राज्य यूरोप में बिस्के को खाड़ी तथा उत्तरी अफ्रीका से पूर्व में सिंधु नदी तथा चीन की सीमा तक, उत्तर में अरब सागर से दक्षिण में नील नदी के झरनों तक फैल गया था। सन्‌ 750 ई. में यह राज्य अब्बासी खलीफ़ाओं के अधिकार में आ गया। इस राज्य का संस्थापक अबुलअब्बास सफ़्फ़ाह था। अब्बासी राज्य की राजधानी बग़्दााद थी जो उन्हीं का बसाया हुआ एक नवीन नगर था। इसी समय स्पेन की ख़िलाफ़त अब्बासी ख़िलाफ़त से पृथक्‌ हो गई। स्पेन के राज्य का संस्थापक 756 ई. में अब्दुर्रहमान उमवी था। अब्बासी राज्य का पतन 1258 ई. में हलाकू खाँ द्वारा हुआ और स्पेन का राज्य 1492 ई.में मिट गया।

सांस्कृतिक दृष्टि से खुल्फ़ाएराशिदीन का काल प्रारंभिक है। अरब अपने साथ विजित देशों में ज्ञान तथा संस्कृति नहीं ले गए थे। साम, मिस्र, इराक तथा ईरान में विजित जातियों के समक्ष उनको झुकना पड़ा और उनका सांस्कृतिक नेतृत्व उन्हें स्वीकार करना पड़ा। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से उमवीकाल जाहिलीकाल से अधिक दूर न था, फिर भी ज्ञान का बीजारोपण उसी काल में हुआ। दमिश्क, कूफ़ा, वसरा, मक्का, मदीना प्रारंभिक ज्ञान तथा ज्ञानियों के महत्वपूर्ण केंद्र थे। अब्बासी काल में ज्ञान और विद्या की जो उन्नति राजधानी बग़्दााद में हुई उसका प्रारंभ उमवी काल में ही हो चुका था, जब यूनानी, सामी तथा भारतीय संस्कृति अरब निवासियों को प्रभावित कर रही थी। अत: सर्वांगीण रूप से हम उमवीकाल को ज्ञानरूपी बालक के पालन-पोषण का काल कह सकते हैं।

अरब सभ्यता का विकास उमवी ख़लीफ़ा अब्दुलमलिक-बिन-मरवान (685-705) में काल से प्रारंभ होता है। उसने कार्यालयों की भाषा लातीनी, यूनानी तथा पह्लवी की जगह अरबी कर दी। विजित जातियों ने अरबी सीखना आरंभ कर दिया; यहाँ तक कि धीरे-धीरे पश्चिमी एशिया के अधिकतर देशों तथा उत्तरी अफ्रीका की भाषा अरबी हो गई। सह सत्य है कि अरबों के पास अपनी संस्कृति नहीं थी, परंतु उन्होंने विजित जातियों को अपना धर्म तथा अपनी भाषा सिखाई और उनको ऐसे अवसर दिए कि वे अपना कृतित्व दिखला सकें। अरबों का सबसे महान्‌ कार्य यह है कि उन्होंने विजित जातियों को सांस्कृतिक संभावनाओं को उभाड़ा और अपना धर्म तथा अपनी भाषा प्रचलित करके उनको भी अरब शब्द के अर्थ में सम्मिलित कर लिया और विजेता तथा विजित का अंतर समाप्त हो गया। उनमें शासन की योग्यता पूर्ण रूप से विद्यमान थी। उन्होंने ने केवल शासनव्यवस्था में बीजंतीनी तथा सासानी राज्य के नियमों का अनुसरण किया, अपितु उनमें संशोधन करके उनको सुंदर बनाया। अरबों ने अनेक प्राचीन सभ्यताओं के मिटते हुए ज्ञान मूल से अनूदित और संरक्षित किए और उनका प्रचार, जहाँ-जहाँ वे गए, यूरोप आदि देशों में उन्होंने किया।

ज्ञानविज्ञान तथा साहित्यिक दृष्टिकोण से अब्बासी काल बहुत महत्व रखता है। यह उन्नति, एक सीमा तक भारतीय, यूनानी, ईरानी प्रभाव के कारण हुई। ज्ञान विज्ञान की उन्नति का प्रारंभ अधिकतर अनुवादों से हुआ जो ईरानी संस्कृति, सुर्यानी (सीरियक) तथा यूनानी भाषा से किए गए थे। थोड़े समय में अरस्तू तथा अफ़लातून की दर्शन की पुस्तकें, नव-अफ़लातूनी टीकाकारों की व्याख्याएँ, जालीनूस (गालेन) की चिकित्सा संबंधी पुस्तकें, गणित विद्या में निपुण उकलैदितस (युक्लिद) तथा बतलीमूस (प्तोलेमी) की पुस्तकें तथा ईरान और भारत को वैज्ञानिक तथा साहित्यिक पुस्तकें अनुवादों द्वारा अरबों के अधिकार में आ गई। अतएव जिन शास्त्रों , विज्ञानों को सीखने में यूनानियों को शताब्दियाँ लग गई थीं उनको अरबों ने वर्षो में सीख लिया और केवल सीखा ही नहीं, उनमें महत्व के संशोधन भी किए। इसी कारण मध्यकालीन इतिहास में अरब वैज्ञानिक साहित्यिक दृष्टि से उन्नति के शिखर पर पहुँच चुके थे। यह सत्य है कि इस सभ्यता का स्रोत प्राचीन मिस्री, बाबुली, फिनीकी तथा यहूदी सभ्यताएँ थीं और उन्हीं से ये धाराएँ बहकर यूनान आई थीं और इस काल में पुन: यूनानी ज्ञान-विज्ञान तथा सभ्यता के रूप में उलटी बहकर पूर्वी देशों में आ रही थीं। इसके पश्चात्‌ ये ही सिक्लिया (सिसिली) तथा स्पेन पहुँची और वहाँ के अरबों ने फिर इन धाराओं को यूरोप पहुँचाया।

अरबों के वैज्ञानिक जागरण, विशेषत: नैतिक साहित्य तथा गणित में, भारत ने भी प्रारंभ में भाग लिया था। ज्योतिष विद्या के एक ग्रंथ पत्रिका-सिद्धांत का अनुवाद मुहम्मद बिन इब्राहीम फ़ज़ारी ने (मृ.796-806 के बीच कभी) किया और वही मुसलमानों में प्रथम ज्योतिषी कहलाया। उसके पश्चात्‌ ख्वारिज़मी (मृ. 750) ने ज्योतिष विद्याओं में बहुत परिवर्धन किया तथा यूनानी व भारतीय ज्योतिष में अनुकूलता लाने का प्रयत्न किया। इसके पश्चात्‌ अरबों ने गणित कें अंकों तथा दशमलव भिन्न के नियम भी भारतीयों से ग्रहण किए। अरबी भाषा में सर्वप्रथम साहित्यिक पुस्तक 'क़ लीला व दिमना' है जिसका अब्दुल्ला बिन मुकफ्फा (मृ.750) ने पह्लवी से अनुवाद किया था। इस पुस्तक की पह्लवी प्रति का नौशरवाँ के समय संस्कृत से अनुवाद किया गया था। इस पुस्तक का महत्व इस कारण है कि पह्लवी प्रति की प्राप्ति संस्कृत प्रति के समान ही दुर्लभ है, परंतु अब भी ये कहानियाँ पंचतत्र में विस्तारपूर्वक मिल सकती हैं। इस बीच अब्बासी ख़लीफ़ा मामून (813-844) ने बगदाद में बैतुलहिकमत की स्थापना की जो वाचनालय तथा अनुवादभवन था, ज्ञानसंस्थान। इस अकादमी द्वारा यूनानी वैद्यकशास्त्र, गणित तथा यूनानी दर्शन का परिचय मुसलमानों को हुआ। इस समय के अरबी अनुवादकों में प्रसिद्ध हुनैन बिन इस्हाक (809-73) तथा साबित बिन कुर्रा (836-90) हैं।

अनुवादकाल लगभग एक शताब्दी तक रहा। उसके पश्चात्‌ स्वयं अरबों में उच्च कोटि के लेखकों ने जन्म लिया जिन्होंने विज्ञान तथा साहित्य के भांडार में परिवर्धन किया। उनमें से अपने विषय में दक्ष लेखकों के नाम निम्नलिखित हैं:

वैद्यक में राज़ी (850-923) तथा इब्नसिना (980-1037); ज्योतिष तथा गणित में बत्तानी (877-918), अलबरूनी (973-1048) तथा उमर ख़ैयाम (मृ. 1123-4); रसायनशास्त्र में जाबिर बिन हय्याम (8वीं शताब्दी); भूगोल में इब्न खुर्दादबेह (मृ. 912), याकूबी (9वीं शताब्दी के अंत में), इस्तखरी (10वीं शताब्दी में), इब्न हौक़ल (10वीं शताब्दी), मक्दसी (10वीं शताब्दी में), हम्दानी (मृ.945) तथा याकूत (1079-1229); इतिहास में इब्न हिशाम (मृ.824), वाकिदी (मृ.823),बलाजुरी (मृ. 872), इब्न कुबैता (मू.889), तबरी (838-923), ससूदी (10वीं शताब्दी में), अबुल असीर (1160-1234), तथा इब्न ख़ल्दून (1332-1406); धर्मशास्त्र में बुख़ारी (910-70); मुस्लिम (मृ.975), विशेषत: फ़िक्ह (इस्लामी धार्मिक विधान) में अबूहनीफ़ा (मृ.767), इमाम मालिक (715-795), हमाम शाफ़ई (767-820) तथा इब्न हंबल (मृ.855)।

अरबों ने साहित्यिक सेवाओं के साथ-साथ ललित कलाओं में न केवल अभिरुचि दिखलाई, अपितु विश्व के सांस्कृतिक इतिहास में अरबी कला का महत्वपूर्ण अध्याय खोल दिया। जिस प्रकार अरबी साहित्य पर बाह्य प्रभाव पड़ा उसी प्रकार वास्तु, संगीत तथा चित्रकला पर भी पड़ा। अतएव विजित जातियों के मेलजोल से वास्तुकला की नींव पड़ी और शनै: शनै: इस कला में अनेकानेक शैलियां निकलीं, जैसे सामी-मिस्री, जिसमें यूनानी, रूमी तथा तत्कालीन कला का अनुसरण किया जाता था, इराकी-ईरानी जिसकी नींव सासानी, किल्दानी तथा असूरी शैली पर पड़ी थी, उंदुलुसी उत्तरी अफ्रीका, जो तत्कालीन ईसाई तथा विज़ीगोथिक से प्रभावित हुई और जिसे मोरिश की संज्ञा दी गई, हिंदी, जिसपर भारतीय शैली का गहरा प्रभाव है। इन सभी शैलियों के प्रतिनिधि भवनों में निम्नलिखित विख्यात हुए: कुब्बतुस्सख़रा (बैतुल मुकद्दम), जामे दमिश्क, मस्जिद नबवी, दमिश्क के राजकीय प्रासाद (जो अलख्ज़रा के नाम से प्रसिद्ध थे), बगदाद के शाही प्रासाद, मस्जिदें, पाठशालाएँ तथा चिकित्सालय, कर्तुबा (कोर्दोवा) के शाही प्रासाद (जो अलहंबा के नाम से प्रसिद्ध थे) तथा वहाँ की जामे मस्जिद। चित्रकला में अरबों ने नवीन प्रणाली प्रारंभ की जिसको यूरोपीय भाषा में अरबेस्क कहते हैं। इस काल मनुष्य तथा पशुओं के चित्रों के स्थान पर सजावट का काम सुंदर फूलपत्तियों तथा बेलबूटों से लिया गया। इसी प्रकार सुलेख (कैलीग्राफी) को भी एक कला समझा जाने लगा। संगीतकला में भी बाह्य प्रभाव प्रणाली की नींव पड़ी। अरबों के प्राक्‌ इस्लामी गीत मनमोहक तथा सरल होते थे परंतु विशेषत: ईरानी तथा रूमी संगीत के प्रभाव से अरबी संगीत में राग रागिनियों का आविर्भाव हुआ और इसमें इतनी उन्नति हुई कि अब्बासीकाल में अबुलफ़र्ज इस्फ़हानी (897-967) ने एक पुस्तक की रचना की जिसका नाम किताबुलआगानी है। यह पुस्तक संगीत के सौ राग एकत्र करती है तथा तत्कालीन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक ज्ञान का भांडार है।[१]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सं.ग्रं--एन्साइक्लोपीडिया आव इस्लाम; एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका; हिस्ट्री ऑव अरब; अरब इन हिस्ट्री।