अलेक्सांदर इवानोविच कुप्रिन
अलेक्सांदर इवानोविच कुप्रिन
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 62-63 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | प्रोफेसर प्यौत्र अकेलेक्सीविच बारान्निको |
कुप्रिन, अलेक्सांदर इवानोविच (१८७०-१९३८ ई.)। प्रसिद्ध रूसी कहानी लेखक। इनका जन्म नरोव्चात नगर (पेंज़ा प्रदेश) में ८ सितंबर, १८७० को हुआ था। उनके पिता साधारण कर्मचारी थे। पिता की मृत्यु के बाद वे मास्को में पहले अपनी माता के साथ और फिर गरीबी के कारण अनाथाश्रम में रहने लगे। उनकी शिक्षा सैनिक विद्यालय में हुई। शिक्षा के समय से ही वे कहानियाँ लिखने लगे थे। उनकी पहली कहानी अंतिम व पहली बार १८८९ में प्रकाशित हुई जिसके लिए उन्हें कई दिन तक कारावास में रहना पड़ा। शिक्षा समाप्त करने के बाद वे सेना में अफसर बने किंतु चार वर्ष पश्चात् इस्तीफा कर वे पत्रकारिता करने लगे।
कुप्रिन को साधारण जनता और ज़ार की सेना का अच्छा परिचय प्राप्त था। अपनी अनेक कहानियाँ में उन्होंने सामान्य व्यक्तियों के जीवन और ज़ार-कालीन फौज के कठोर दंडोंवाले वातावरण का यथार्थवादी चित्रण किया हैं। मोलोख़ नामक उपन्यास (१८९६) में मजदूरों की जिंदगी और संघर्ष का वर्णन है। सन् १९०५ की क्रांति के समय कुप्रिन अपनी सर्वोत्तम रचना लिखी जिनमें प्रमुख द्वंद्वयुद्ध नामक कृति है, जिसे कुप्रिन ने मैक्सिम गोर्की को समर्पित किया था। इस कृति में उन्होंने ज़ार-कालीन फौज के नियमों और रिवाजों की कड़ी आलोचना की है। उनकी प्रमुख रचनाएँ रक्तमणिवाला कंकन, काली बिजली और ‘पुण्य झूठ’ हैं। तरल सूर्य में उन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद का पर्दाफाश किया है। यामा नामक उपन्यास (१९०९-१९१५) में वेश्याओं के जीवन का सच्चा चित्रण है। अक्तूबर १९१७ की समाजवादी क्रांति के समय वे रूस छोड़कर विदेश चले गए। वहाँ भी उन्होंने रूस संबंधी अनेक कहानियाँ लिखी। १९३७ में स्वदेश लौटे और १९३८ में रूस में उनका स्वर्गवास हुआ। शैली और भाषा की दृष्टि से कुप्रिन की रचनाएँ उच्च्कोटि की हैं। इनमें क्रांति से पूर्व के रूसी जनजीवन के अनेक पहलुओं का वास्तविक चित्रण है। कुप्रिन की समस्त रचनाओं का संग्रह रूस से छह खंड़ों में प्रकशित हुआ है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ