ईरान का इतिहास
ईरान का इतिहास
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2 |
पृष्ठ संख्या | 30 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पाण्डेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | कैलाशचंद्र शर्मा |
ईरान का इतिहास ईरान (फ़ारस अथवा पर्शिया) की सबसे पहली सभ्यताओं ने जहाँ जन्म लिया उस भूभाग को इतिहास 'एलाम' के नाम से पुकारता है। दक्षिण जागरूस से बहती हुई कारूँ नदी तरह तरह की उपजाऊ मिट्टी लाकर एलाम को सरसब्ज बनाती हुई ईरान की खाड़ी में गिरती है। एलाम में ठीक उस समय अनेक शहर आबाद हुए जिस समय सिंधु नदी के किनारे मोहनजोदड़ों की सभ्यता अपने विकासपथ पर अग्रसर हो रही थी। दौलत और तिजारत, सामाजिक संस्थाएँ, राज और शासनप्रबंध, विद्या और कलाकौशल दोनों जगह एक साथ फले फूले और दोनों जगह की सभ्यताएँ साथ-साथ उन्नति करने लगीं। पश्चिम में तख्ते जमेशीद (पर्सपोलिस), शूश, काशान और निहाबंद, उत्तर में अस्त्राबाद और अनाब जैसे बहुत से प्राचीन ईरानी शहरों की खुदाई से ताँबा, पीतल, काँसा, सोना, जवाहरात और मिट्टी के ऐसे बर्तन मिले हैं जिनसे उस जमाने की ईरानी संस्कृति और उसकी उन्नति की मंजिलों का पता चलता है। एलाम में शूश और अनजान के राजकाजी संबंध और वहाँ की राजकीय संस्थाएँ हड़प्पा और मोहनजोदड़ों के राजकाजी संबंधों और संस्थाओं से बेहद मिलती जुलती हैं।
एलाम का राज्यशासन पुरोहितों के हाथों में था। एलाम में सब देवी देवताओं के ऊपर एक सबसे बड़े देवता की सत्ता में लोग विश्वास करते थे। एलाम में सूरज और चाँद की, जल और स्थल के देवताओं की, प्रेम की देवी और संतोनोत्पत्ति की देवी की पूजा होती थी। मातृदेवी भी पूजी जाती थी। वहाँ कुछ पशुओं और वृक्षों को भी पवित्र मानकर पूजा जाता था, जैसे वृषभ, नाग, सिंह आदि। हर घर और हर गाँव में एक छोटा सा मंदिर होता था जहाँ इन देवताओं की मिट्टी या पत्थर की छोटी-छोटी मूर्तियाँ होती थीं। इनके अतिरिक्त बहुत बड़े-बड़े मंदिर होते थे जो 'जगूरात' या 'सिग्गुरात' कहलाते थे। ये बिल्कुल किले की तरह होते थे और इनमें बेशुमार दौलत और लाखों मन गल्ला जमा रहता था। सिंधु सभ्यता की तरह एलाम का समाज भी पुराने रीति रिवाजों के तंग साँचों में जकड़ा हुआ था। किसी को उससे बाहर निकलने या नई बात करने की अनुमति न थी।
उस समय एलाम की प्राचीन ईरानी सभ्यता पर एक भयानक आफत टूट पड़ी। उत्तर से आर्य आक्रमणकारियों ने, घोड़ों पर सवार लोहे के हथियार लिए, धावा बोल दिया। उन्होंने एलाम को रौंदकर अपने अधीन कर लिया। धीरे-धीरे पुराने ईरानियों और नए आक्रमणकारियों की नस्लें एक दूसरे में घुल मिलकर एक हो गईं। ये आर्य ही आधुनिक ईरानियों और भारतवासियों, दोनों के पूर्वज थे। उनकी नस्ल एक थी, बोली एक थी, धर्म एक था और संस्कृति एक थी।
आर्यों के ईरान में बस जाने के बाद उनपर वहाँ की परिस्थितियों का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ा। ईरान में तरह-तरह के भूभाग हैं-कहीं पहाड़ और कहीं रेगिस्तान, कहीं नदियों की घाटियाँ और बीच के मैदान, जो मनुष्यों, पशुओं और हरियाली से भरे हुए हैं, और कहीं सैकड़ों मील लंबे रेतीले मैदान, जिनमें दूर-दूर तक न कोई जानदार दिखाई देता है और न कोई घास का तिनका, जहाँ सिवाय हवा की साँय-साँय के कोई आवाज सुनाई नहीं देती। उजाले और अँधेरे, नेकी और बदी की शक्तियाँ वहाँ साफ अलग-अलग काम करती दिखाई देती हैं।
ईरान के पैगंबर ज़रतुश्त के सुधारों से पहले ईरानियों का जो धर्म था वही कुछ परिवर्तनों के साथ बाद में हखामनीषी और सासानी युगों में भी प्रचलित रहा। ईरानियों का यह धर्म भारत में आर्यों के वैदिक धर्म से विशेष मिलता-जुलता था। इससे भी अधिक ध्यान देने की बात यह है कि ज़रतुश्त ने ईरानी धर्म को जो नया रूप दिया उसके हर पहलू से यह स्पष्ट है कि वह और वैदिक धर्म दोनों एक ही खानदान से हैं। आर्यों का धर्मग्रंथ 'वेद' और ज़रतुश्त की पुस्तक 'अवेस्ता' दोनों यही घोषणा करती हैं कि ईश्वर एक है।
आज से तीन हज़ार वर्ष पूर्व ईरानी अपने को आर्य कहते थे। अवेस्ता में भी उन्हें आर्य कहकर पुकारा गया है। प्रसिद्ध ईरानी सम्राट् दारा (521-485 ई.पू.) ने अपनी समाधि पर जो शिलालेख अंकित करवाया है उसमें अपने को 'आर्यों में आर्य' लिखा है। छठी शताब्दी के ईरानी के सासानी सम्राट भी अपने को आर्य कहते थे। ईरानी अपनी बोली को 'आर्वन' या 'अर्बन' और अपने देश को 'आर्याना' या 'आईयाना' कहते थे, जिसका अर्थ है 'आर्यों का निवासस्थान'। प्रचलित ईरान शब्द इसी आर्याना का अपभ्रंश है।
अवेस्ता और ऋग्वेद दोनों में वरुण को देवताओं का अधिराज माना गया है। वेदों में उसे 'असुर विश्वदेवस' या 'असुर मेधा' कहा गया है। अवेस्ता में उसे 'अहुर मज्दा' नाम से पुकारा गया है। वैदिक 'असुर' (ईश्वर) ही अवेस्ता का 'अहुर' है और ईरानी 'मज़्दा' का वही अर्थ है जो संस्कृत 'मेधा' का। वैदिक 'मित्र' देवता ही अवेस्ता का 'म्थ्राि' है। अवेस्ता में ठीक उन्हीं शब्दों में म्थ्राि की स्तुति की गई है जिन शब्दों में ऋग्वेद में मित्र की। संस्कृत में म्थ्राि का अर्थ सूर्य भी है। ईरानी भी सूर्य के रूप में म्थ्राि की पूजा करते थे। इंद्र का नाम ज्यों का त्यों अवेस्ता में मौजूद है।
ईरानी धर्मग्रंथों में प्रारंभ के जिस समाज की कल्पना है वह भारतीय सतयुग की कल्पना से मिलती है। ईरानी पौराणिक कथाओं के अनुसार 'यिम' (वेदक=यम) मानव जाति का पहला सम्राट् था। यिम आर्यों की प्राचीन पुण्य भूमि 'आर्यनम वाइजो' पर शासन करता था। आर्यों की उस पुण्य भूमि में-'न कष्ट था न क्षोभ, न मूर्खता थी न हिंसा, न गरीबी थी न छलकपट। लोग न बेड़ौल थे, न कुरूप। बुराई उन्हें छू न सकती थी। चारों ओर सुगंधित वृक्षों के उद्यान थे और घरों में स्वर्णस्तंभ थे। लोगों के पास अगणित सुंदर और अच्छे पशु थे।'
ईरानी यिम को ही मानव जाति का सृजनकर्ता मानते हैं। बाद में वह मृत्यु का देवता माना जाने लगा। यिम मनुष्य के कर्मों की सख्ती से जाँच करता है और पापात्माओं को दंड देता है। एक दूसरी पौराणिक कथा के अनुसार अहुर मज़्दा की प्रेरणा से सबसे पहले मश्य और मश्यो नामक संसार के पहले स्त्री पुरुष पैदा हुए। इनके बेटे गय मारेतान ने अहुर मज़्दा की शिक्षाओं पर ध्यान दिया। गय मारेतान का पुत्र हावश्यंघ पहला आदमी था जिसने मनुष्य जाति के ऊपर शासन किया। हावश्यंघ का एक नाम पिशदादि भी है। पिशदादि ने लोहा ईजाद किया और सिंचाई के लिये नहरें बनवाईं। उसके पूर्व यिम के समय में सोना, चाँदी, जहाज, गन्ना और चीनी बनाने का ज्ञान लोगों को हो चुका था।
पिशदादि का पुत्र तख्म उन्यि भी बड़ा कीर्तिवान् राजा हुआ। उसने ईरान के आर्यपूर्व निवासियों से 30 अक्षरोंवाली लिपि सीखकर सारे देश में उसका प्रचार किया। उसने समाज को चार वर्गों में बाँटा : (1) पुरोहित, (2) योद्धा, (3) किसान और (4) कारीगर। ईरानियों का पवित्र सदरा और जनेऊ (जुन्नार) यिम के समय से ही प्रचलित हुआ।
ईरान के आर्यों ने प्राचीन मागियों से प्रभावित होकर अग्निपूजा को धर्म का सबसे महत्वपूर्ण अंग बना दिया। उनकी वेदी पर अब अग्नि सदा प्रज्वलित रहने लगी। अग्नि पवित्र थी, इसलिए फूँककर जलाना उसे अपवित्र करना और पाप था। अग्नि के बाद पानी का महत्व था। नदी में कोई गंदी वस्तु साफ करना भी अपराध समझा जाने लगा। पानी के बाद धरती पवित्र समझी जाती थी। मुर्दा सबसे अधिक अपवित्र वस्तु माना जाता था। इसलिए मुर्दों को न तो पवित्र अग्नि में जलाया जाता था, न पवित्र नदी में बहाया जाता था और न पवित्र धरती में गाड़ा जाता था। मुर्दों को गिद्ध और कुत्तों के लिए छोड़ दिया जाता था। सारांश यह है कि ईसा से एक हजार वर्ष पहलो की मिली जुली ईरानी जाति में तरह-तरह के सैकड़ों देवी देवता पूजे जाते थे, रूढ़ियाँ और कर्मकांड बढ़ गए थे और तरह-तरह के बेजा और बुरे रिवाज फैलते जा रहे थे।
ईरानी जाति के उस संकट काल में एक हजार वर्ष पूर्व स्पिताम कुल में महात्मा ज़रतुश्त का जन्म हुआ। ज़रतुश्त के पिता का नाम पौरुशाश्व और माँ का दुग्धोवा था। ज़रतुश्त ने घरबार छोड़कर तीस वर्ष तक उषीदारण्य पर्वत पर तपस्या की तब सत्य का प्रकाश उनके अंतर में उदय हुआ। बहुत से देवी देवताओं की जगह ज़रतुश्त ने एक परमात्मा की पूजा का उपदेश दिया। सारे मानव समाज को उसी एक परमात्मा की संतान और आपस में भाई बताया। पृथ्वी पर सच्चे धर्म की स्थापना के लिए ज़रतुश्त ने अपने को अहुरमज़्द का संदेशवाहक बताया। ज़रतुश्त ने सबसे अधिक बल सच्चाई और पवित्र जीवन बिताने पर दिया। ज़रतुश्त के उपदेशों ने राजा विस्तास्प को काफी प्रभावित किया और वह ज़रतुश्त का अनुयायी बन गया। शाहनामा के अनुसार बलख़ की लड़ाई में तूरानियों ने 77 वर्ष की उम्र में अहुरमज़्द की प्रार्थना में लीन ज़रतुश्त की हत्या कर डाली।
आर्यों के धर्मग्रंथ वेद और ज़रतुश्त की पुस्तक अवेस्ता में से किसी में मंदिरों या मूर्तियों के लिए कोई जगह नहीं है। हर गृहस्थ का, चाहे वह राजा हो या साधारण व्यक्ति, यह कर्तव्य है कि वह हर समय अपने घर में अग्नि प्रज्वलित रखे और उसमें यज्ञ करता रहे। वेदों में जिसे यज्ञ कहा गया है उसी को अवेस्ता में 'यस्न' कहा गया है। वेदों और अवेस्ता के धर्म ऐसे लोगों के धर्म हैं जो जीवन को खुशी और उमंग के साथ देखते थे। दोनों उच्च जीवन और नेकी के सिद्धांतों के सच्चे खोजी थे। दोनों यह मानते थे कि ईश्वरीय प्रकाश सबको अनंत सुख के लक्ष्य तक पहुँचा देता है।
राजनीतिक दृष्टि से यह वह समय था जब ईरान असुरिया के साम्राज्य के अधीन था। पहली बार सन् 664 ई.पू. में एक ईरानी सरदार युवक्षत्र ने असुरिया पर आक्रमण किया। युवक्षत्र हारा। उसने ईरान लौटकर अपनी हार के कारणों पर विचार किया। हर ईरानी सरदार या कुलपति अपने साथ अपनी अलग-अलग फौज ले जाते थे। युद्ध के संचालन में इससे बड़ी कठिनाई पड़ती थी। युवक्षत्र ने कुलों और रियासतों की जगह अब समस्त देश की एक सुसंगठित सेना तैयार की। कई वर्ष की तैयारी के बाद युवक्षत्र ने बाबुल के राजा के सहयोग से असुरिया की राजधानी निनेवे पर आक्रमण किया। दो वर्ष के लगातार युद्ध के बाद युवक्षत्र ने असुरिया पर विजय प्राप्त की। इस विजय के परिणामस्वरूप आर्मीनिया, सुरिया, कप्पादोशिया, फ़लस्तीन, असुरिया, पार्थिया, बाल्हीक, सोग्दियाना, उरार्त्तु, आदि असुरिया साम्राज्य के देशों पर ईरानियों का आधिपत्य स्थापित हो गया। 40 वर्ष राज करने के बाद सन् 593 ई.पू. में युवक्षत्र की मृत्यु हुई।
युवक्षत्र की मृत्यु के बाद ईरान के आधिपत्य के लिए युवक्षत्र के बेटे इश्तवेगु और दक्षिण ईरान के प्रांत पर्सु के हख़ामनीषी वंश के राजा कुरु में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें विजय कुरु के हाथों रहीं। पर्सु के रहनेवाले पारसी कहलाते थे। इसी से बाद में फ़ारस, पारस और पर्शिया शब्द बने। पर्सु के रहनेवाले भी ज़रतुश्ती धर्म के माननेवाले थे और अपने को शेष ईरानियों की तरह आर्य कहते थे।
कुरु के सम्राट् बनते ही हख़ामनीषी वंश का गौरव कीर्ति के शिखर पर जा पहुँचा। कुरु वीर, नेक, दयावान, उदार, बुद्धिमान और प्रजा का सच्चा हितचिंतक था। 14 वर्ष तक कुरु अपने विजययुद्धों में व्यस्त रहा। उसने तातारियों से ईरान को पूरी तरह स्वतंत्र किया, लीदिया और बाबुल पर आधिपत्य किया और भूमध्य सागर तक अपनी विजयपताका फहराई। पराजितों के साथ उसका व्यवहार बड़ी उदारता का होता था। बाबुल में हजारों यहूदी परिवार निर्वासित अवस्था में पड़े हुए थे। कुरु ने उन्हें वापस फ़लस्तीन भेजा। जुरूसलम के टूटे हुए यहूदी मंदिर का कुरु ने फिर से निर्माण कराया। अपने समय की व्याकुल दुनिया के एक बड़े भाग पर कुरु ने शांति की स्थापना की। उसकी सारी प्रजा सुखी और समृद्ध थी। उस देश में जहाँ एक-एक पुरुष की कई-कई पत्नियों की प्रथा थी, कुरु ने केवल एक ही विवाह किया। कासंदिनी उसकी एकमात्र प्यारी पत्नी थी जिससे उसे दो बेटे और तीन बेटियाँ हुईं।
मृत्यु से पूर्व कुरु ने पूर्वी प्रांतों का शासन अपने छोटे बेटे बरदिय को सौंप दिया। उसका बड़ा बेटा कंबुजिय अपने पिता की मृत्यु के बाद उसका उत्तराधिकारी बना। कंबुजिय अपने पिता की तरह वीर और परिश्रमी तो था किंतु वह अभिमानी, शक्की और दुष्ट स्वभाव का था। उसने गुप्त रूप से अपने भाई की हत्या करवा दी और इस भेद को छिपाए रखा। उसके बाद 525 ई.पू. में उसने मिस्र पर चढ़ाई करके उसे विजय कर लिया। अंत में भाई की हत्या ने उसे आत्मग्लानि से भर दिया। सन् 522 ई.पू. में उसने सात बड़े-बड़े ईरानी सरदारों को बुलाकर उनसे भाई की हत्या का पाप स्वीकार करके आत्महत्या कर ली।
ईरानी सरदारों ने मिलकर हख़ामनीषी कुल के एक योग्य सरदार दारा को कंबुजिय का उत्तराधिकारी चुना। दारा कुरु से भी अधिक बुद्धिमान और योग्य शासक सिद्ध हुआ। शांति स्थापना के बाद दारा ने सात वर्ष ईरानी साम्राज्य का संगठन और उसका शासनप्रबंध ठीक करने में लगाए। उसने सारे साम्राज्य को बीस प्रांतों में विभाजित किया। हर प्रांत पर एक-एक गवर्नर नियुक्त किया गया जिसे 'क्षत्रप' कहते थे। हर प्रांत की मालगुजारी निश्चित कर दी गई। उचित स्थानों पर फौजी छावनियाँ डाली गईं। साम्राज्य भर में पक्की सड़कों का जाल पूर दिया गया ताकि सेनाओं और डाक के आने जाने में सुगमता हो। हर प्रांत में क्षत्रप के साथ एक-एक सेनापति और एक-एक मंत्री नियुक्त किया गया। क्षत्रप और सेनापति दोनों एक दूसरे से स्वतंत्र थे और सीधे सम्राट् से आज्ञा लेते थे। मंत्री उनके कामों की रिपोर्ट सम्राट् को देता था। अपने नाम से दारा ने सोने चाँदी के सिक्के ढलवाए जिससे व्यापार में सुविधा हो। जनता को अधिक से अधिक समृद्ध बनाने का दारा ने पूरा-पूरा प्रयत्न किया। 36वर्ष तक राज्य करने के बाद 63 वर्ष की अवस्था में 486ई.पू. में दारा की मृत्यु हुई। दारा की गणना संसार के बड़े से बड़े उदार, दक्ष और दयावान सम्राटों में की जाती है।
दारा के बाद उसका बेटा क्षयार्षा गद्दी पर बैठा। मिस्र के विद्रोह को दबाने के लिए क्षयार्षा ने मिस्र पर हमला किया। उसके बाद क्षयार्षा की यूनानियों के साथ कई लड़ाइयाँ हुईं जिनमें धर्मापिली की लड़ाई इतिहास में प्रसिद्ध है। 20 वर्ष तक राज्य करने के बाद क्षयार्षा का धोखे से बध कर डाला गया।
क्षयार्षा की मृत्यु के पश्चात् एक के बाद एक सात सम्राट् गद्दी पर बैठे। कभी-कभी ईरानियों और यूनानियों में लड़ाइयाँ हुईं लेकिन यूनान के एक बड़े भाग पर और भूमध्य सागर के एशियाई किनारे के सब इलाकों पर ईरानियों का अधिकार रहा। यह स्थिति उस समय तक कायम रही जब 331 ई.पू. में अरबेला के मैदान में सिकंदर महान् ने दारा तृतीय को हराकर कुरु का राजमुकुट अपने सर पर रखा। यूनानी इतिहासलेखक स्वीकार करते हैं कि वीरता और साहस में ईरानी यूनानियों से एक इंच पीछे नहीं थे। किंतु यूनानियों के नए सैनिक संगठन, अच्छे हथियारों और सिकंदर के असाधारण व्यक्तित्व के आगे ईरानियों को सर झुकाना पड़ा। यूनानी सेनाओं ने सरकारी कोषागारों और महलों की लूट के बाद ईरानी कला के बहुमूल्य नमूने भी नष्ट कर दिए। अकेले शूश नगर की लूट में सिकंदर को 7,390 मन सोना और 32,845 मन चाँदी मिली थी।
ईरान विजय के नौ वर्ष के भीतर ही सिकंदर की बाबुल में मृत्यु हो गई। सिकंदर के एशियाई क्षेत्रों पर उसके सेनापति सेल्यूकस का अधिकार हो गया1 सेल्यूकस के उत्तराधिकारी ईरान पर लगभग 140 वर्षों तक शासन करते रहे। अंत में 174 ई.पू. में ईरान के एक प्रांत पार्थिया के राजा मित्रदत्त प्रथम ने यूनानियों को सारे ईरान से बाहर निकाल दिया। पार्थी सम्राटों ने चार सौ वर्षों से ऊपर अर्थात् 236ई. तक ईरान पर राज किया। भारत के साथ उनका घनिष्ठ संबंध था। वे अपने को अहुरमज़्द के सेवक या प्रतिनिधि भी कहते थे।
राजनीतिक निर्बलता के साथ-साथ ईरान फिर से संकुचित दृष्टिवाले पुरोहितों के जाल में फँस गया था। धर्म केवल ऊपरी रीति रिवाज की चीज रह गया था। सच्चाई की जगह अंधविश्वासों ने ले ली थी। नई-नई रचना करने और उन्नति करने की शक्ति भुला जनता केवल कर्मकांड में फँसकर रह गई थी। उस गँदले पानी को साफ करके धर्म की प्रारंभिक पवित्रता को फिर से वापस लाने के लिए ईरान में महात्मा ज़रतुश्त के बाद कोई नया महापुरुष पैदा नहीं हुआ। सिकंदर ने हख़ामनीषी साम्राज्य को मिटाकर साम्राट् अशोक के बौद्ध प्रचारकों के लिए रास्ता खोल दिया। सेहून (सीर) और जेहून (आमू) नदियों के किनारे से लेकर हीरमंद तक पूर्वी ईरान बौद्ध प्रचारकों और बौद्ध भिक्षुओं से भर गया। सुग़्दा से लेकर सीस्तान तक बौद्ध मंदिर और बौद्ध मठ खड़े हो गए। ईरान में जो गरमा-गरमी और जोश बौद्ध धर्म के प्रचार से पैदा हुआ उससे एक अजीब तरह का नया संगम बना जिसमें ज़रतुश्ती, ईसाई और बौद्ध तीनों धर्म आकर मिल गए। ईरान के इस नए मजहब का नाम 'मानी मजहब' था।
मनुष्य जीवन के संबंध में महात्मा मानी के विचार बुनियादी तौर पर बौद्ध विचार थे। उनका कहना था कि दुनिया दु:ख की घाटी है। मनुष्य का जीवन स्वभावत: दर्द और रंज का जीवन है। इससे मुक्ति या निजात का एक ही उपाय है वह है त्याग और इंद्रियों को वश में करना। उसी का अंतिम परिणाम है फ़ना यानी अपने अलग अस्तित्व को मिटा डालना।
महात्मा मानी सन् 216ई. में पैदा हुए। सन् 243 ई. में वे ईरान के सम्राट् शापूर से मिले थे और उन्हें करीब-करीब अपने धर्म का समर्थक बना लिया। किंतु अंत में मागी पुरोहितों के षड्यंत्र के कारण उन्हें सन् 277 ई. में सूली पर चढ़ा दिया गया।
तीसरी शताब्दी के प्रारंभ में ईरान में पार्थी सत्ता समाप्त होती है और उसकी जगह सासानी राजकुल की सत्ता आरंभ होती है। सासानी कुल का संस्थापक सासान पर्सुपोली में एक मंदिर का पुजारी था। सासान की पत्नी राम बहिश्त बजरंगी के राजा की बेटी थी। उनका बेटा बाबेक एक साधारण हाकिम था। बाबेक का बेटा आर्तक्षत्र (आर्देशिर) सन् 236ई. में सारे ईरान का अधिराज बन गया। सासानी राजकुल ने एक बार हखामनीषी कुल की तरह ईरान के यश और कीर्ति को दूर-दूर तक फैलाया। आर्तक्षत्र के बाद उसक बेटा शापूर प्रथम गद्दी पर बैठा। यह वह समय था जब ईरान और रोम में बराबर युद्ध जारी थे। शापूर ने रोम के सम्राट् बेलेरियन को कैद कर लिया।
सासानी राजकुल सम्राट् अनुशीरवाँ अथवा नौशेरवाँ आदिल के समय अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा। अनुशीरवाँ ने सन् 531 ई. से सन् 579 ई. तक ईरान पर शासन किया। अनुशीरवाँ एक वीर सिपाही और चतुर सेनापति था। रोम के सम्राटों से वह लगातार युद्ध करता रहा और सिर्फ एक बार छोड़कर वह रोम से सदैव जीता। उसने इथियोपिया, तुर्की और एक दर्जन अन्य नए प्रदेशों पर विजय प्राप्त की। अपनी 80 वर्ष की अवस्था में उसने स्वयं रणस्थल में उतर कर रोमी सेना को तितर-बितर किया। उसका साम्राज्य सिंधु नदी से लेकर भूमध्य सागर तक, लाल सागर से लेकर कैस्पियन समुद्र तक और आमु नदी से दी सीर दरिया तक फैला हुआ था।
अनुशीरवाँ वीर, परिश्रमी, संयमी और उदार था। गिबन लिखता है, अनुशीरवाँ का शासन-निष्पक्ष, दृढ़ और जीवनप्रद था। इसलाम के पैगंबर मुहम्मद साहब अभिमान के साथ कहा करते थे-'मैं न्यायप्रिय अनुशीरवाँ की शाहंशाहियत के जमाने में पैदा हुआ हूँ।' प्रजा की भलाई का उसे सदैव ध्यान रहता था। साहित्य की ओर उसे विशेष रुचि थी। न्याय का वह अनन्य प्रेमी था। उसने विज्ञान और दर्शन की उन्नति के लिए बहुत कुछ किया। मानव जाति के बड़े से बड़े उपकारी नरेशों में अनुशीरवाँ की गिनती की जाती है।
सासानी कुल के 28 सम्राटों ने सन् 226ई. से लेकर 651 ई. तक-425 वर्ष-ईरान के ऊपर राज किया। अनुशीरवाँ के पश्चात् निर्बल और निकम्मे सम्राट् गद्दी पर बैठे। सन् 628 ई. में सम्राट् परवेज़ को कत्ल करके उसका बेटा कबाद चतुर्थ गद्दी पर बैठा। कबाद और यज़्दगिर्द तीसरे के बीच, केवल पाँच वर्ष की अवधि में, एक के बाद एक 11 व्यक्ति एक दूसरे की हत्या कर ईरान के तख्त पर बैठे। चारों तरफ अशांति छाई हुई थी। साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े होकर बिखर रहा था1 जिसे देखों वही सम्राट् बनने का इच्छुक था। 16जून, सन् 632 ई. को यज़्दगिर्द तीसरा गद्दी पर बैठा। यह वह समय था जब अरब इसलाम के झंडे के नीचे आ खड़ा हुआ था। मुहम्मद साहब की मृत्यु के बाद अरबों और ईरानियों में टक्करें हुईं। कई युद्धों के बाद सन् 642 ई. में मेहबंद की लड़ाई में ईरानी साम्राज्य की किस्मत का फैसला हो गया। सम्राट् यज़्दगिर्द जान बचाकर भागा। अंत में सन् 651 ई. में अपने ही एक देशवासी के हाथों यज़्दगिर्द की मृत्यु हुई। समस्त ईरान पर अरबों का कब्जा हो गया। क्लीमेंट हुआर्ट के शब्दों में-समस्त ईरान ने इसलाम धर्म स्वीकार कर लिया, किंतु ईरान का हृदय नहीं बदला। उसकी वेशभूषा नहीं बदली, उसके आचार विचार, रहन-सहन, संस्कृति और भाषा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। थोड़े ही अरसे में पराजित ईरान ने विजेता अरबों को अपनी संस्कृति का प्रशंसक और अनुयायी बना लिया।'
सन. 650 तक अरबों ने ईरानी साम्राज्य के बलख और आक्सस प्रदेशों पर कब्जा कर लिया। केवल उत्तरी मीडिया (तबारिस्तान) का इलाका आगामी सौ वर्षों तक सामंत इलका बना रहा। अरबों ने राजकीय स्तर पर ज़रतुश्ती धर्म के प्रति सहिष्णुता बनाए रखी किंतु धीरे-धीरे ज़रतुश्ती धर्म का ईरान से लोप हो गया। हजारों की संख्या में ज़रतुश्ती धर्मावलंबियों ने भारत के पश्चिमी किनारे पर आकर शरण ली। ईरान में उनकी बस्तियाँ अब भी यज़्द के नखलिस्तान में पाई जाती हैं। ईरान की अधिकांश जनता ने इसलाम के अंतर्गत शिया मत को स्वीकार कर लिया।
इसके पश्चात् राजनीतिक दृष्टि से ईरान का इतिहास शताब्दियों तक कोई महत्व नहीं रखता। उमैया और उनके बाद अब्बासी खलीफाओं की हुकूमत ईरान पर कायम रही। बाद के अब्बासी खलीफाओं की निर्बलता के जमाने में, 900 से 1229 ई. तक, ईरान के एक बड़े भाग पर समानी कुल का आधिपत्य कायम रहा। समानियों के शासन में ईरानी साहित्य और कला की आशातीत उन्नति के लक्षण दिखाई देते हैं। 10वीं शताब्दी के प्रारंभ में बुवैहिदों की हुकूमत भी ईरान के एक छोटे से भाग पर कायम हुई किंतु गजनवियों के आगे उन्हें सर झुकाना पड़ा। महमूद गजनवी ने ईरान के एक बड़े भाग पर अधिकार कर लिया। महमूद के ही शासनकाल में महाकवि फिरदौसी ने 'शाहनामा' नामक अपना अमर महाकाव्य लिखा जिसमें प्राचीन ईरानी नरेशों की कीर्ति और यश का बखान किया गया है।
समानियों के पतन और मंगोलों के ईरान पर आधिपत्य के बीच के काल में पाँच या छह बड़े राजकुल और लगभग 40 छोटे-छोटे राजकुल ईरान के राजनीतिक रंगमंच पर अवतरित हुए और थोड़ी देर चमक कर लुप्त हो गए। अब्बासी खलीफा ईरान के नाममात्र के अधिराज बने रहे। 13वीं सदी के उत्तरार्ध में ईरान पर मंगोल सरदार चंगेज़ खाँ का शासन कायम हुआ। चंगेज़ की मृत्यु के बाद उसका मंगोल साम्राज्य उसके सरदारों में बँट गया। उसके एक सरदार तूले या तुलई के हिस्से में ईरान का राज्य आया। तुलई के बाद उसका बेटा हुलाकू ईरान का वास्तविक सम्राट् बना। हुलाकू सन् 1256ई. में ईरान के तख्त पर बैठा। लगभग 600 वर्ष के बाद ईरान का खंडित राज्य एक राष्ट्रीय इकाई बना। सन् 1258 ई. में हुलाकू ने बग़्दााद पर आक्रमण करके अब्बासी खलीफाओं की सल्तनत का सदा के लिए अंत कर दिया। हुलाकू के समय ईरान का साम्राज्य फिर एक बार उन्नति की चोटी पर पहुँच गया। हुलाकू ने ज्ञान विज्ञान, कला कौशल, गणित और ज्योतिष को काफी प्रोत्साहन दिया। ईरान में मंगोल सत्ता तैमूर की मृत्यु (1405 ई.) के साथ बिखरने लगी। तैमूर के चौथे पुत्र शाहरुख ने, जो खुरासान का गवर्नर था, सन् 1447 ई. तक ईरान पर अपना आधिपत्य कायम रखा।
सन् 1499 से 1736ई. तक सफ़वी रजकुल की सत्ता ईरान पर कायम रही। इस सारे समय में ईरान की तुर्की के साथ कई लड़ाइयाँ हुई। सफ़वी नरेशों में शाह इस्माईल और उसका बेटा तथा उत्तराधिकारी शाह तहमास्प काफी योग्य शासक साबित हुए।
सफ़वी खानदान की समाप्ति पर ईरान के तख्त पर सन् 1736ई. में नादिर शाह का अवतरण हुआ। नादिर शाह ने सबसे पहले तुर्की पर आक्रमण किया। पहले युद्ध में तो वह पराजित हुआ किंतु बाद के दो युद्धों में उसने तुर्की को पूरी तरह पराजित किया और ईरान का वह सब भाग वापस ले लिया जिसपर तुर्की ने कब्जा कर लिया था। सन् 1738 में उसने दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी की। रास्ते में पहले उसने कंधार पर और फिर काबुल पर कब्जा किया और अंत में दिल्ली पर आक्रमण किया। दिल्ली से लौटकर नादिर शाह ने बुख़ारा और खीब पर आधिपत्य किया। सन् 1747 में अपनी हत्या से पहले नादिर शाह ने ईरान के रुतबे को फिर एक बार ऊँचा कर दिया।
नादिर शाह की मृत्यु के बाद ईरान गृहयुद्धों और इंग्लिस्तान और फ्रांस की साजिशों का केंद्र बन गया। सन् 1909 में ईरान में शाह के अंतर्गत वैधानिक सरकार की स्थापना हुई। 13 दिसंबर, सन् 1925 को ईरान की पार्लमेंटी मजलिस ने अपने प्रधान मंत्री रज़ाशाह पहलवी को ईरान का बादशाह घोषित किया। ईरान के रेगिस्तानी इलाके में तेल का अंतहीन जखीरा है। उसी तेल के लोभ में यूरोप की साम्राज्यवादी शक्तियों ने ईरान को अपने प्रभाव में जकड़ रखा है। ईरानी देशभक्त इस जकड़ से छूटने के प्रयत्नों में लगे हुए हैं।
अरबों की ईरान विजय से लेकर अब तक ईरान की सांस्कृतिक आत्मा बार-बार अपनी महानता का परिचय देती रही है। पूर्वी ईरान, विशेषकर खुरासान बौद्ध धर्म का शताब्दियों तक केंद्र रहा है। तसव्वुफ़ अथवा इसलामी वेदांत के फूल सबसे पहले इसी इलाके में खिले। प्रारंभ के प्रसिद्ध सूफी इब्राहीम अज़म, अहमद ख़जविया, अबूअली शकीक, हातम आसम, याहिया बिन मआज़, बायज़ीद विस्तामी और अबूबक्र शिबली सब खुरासान के ही रहनेवाले थे। फाराबी, इब्न सीना, अबू रेहान, अलबेरूनी जैसे प्रसिद्ध विचारक और दार्शनिक सब उसी इलाके के थे। इसी इलाके में तूस के रहनेवाले अल ग़्ज़ाािली ने, जो इस्लाम का सबसे बड़ा विद्वान् माना जाता है, तसव्वुफ़ के ऊपर अगणित विद्वतापूर्ण पुस्तकें लिखीं। इसी प्रदेश में अब्दुल रहमान नूरुद्दीन जामी, फरीदुद्दीन अत्तार और अब्दुल मज़्द सनाई हुए जिनकी आध्यात्मिकता की छाप सारे एशिया पर लगी। यहीं संतों के सरताज मौलाना जलालउद्दीन रूमी हुए जिनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'मसनवी' संसार के आध्यात्मिक साहित्य में अपना विशेष स्थान रखती है।
यह स्वभाविक था कि ईरान का वही हिस्सा जो भारत के धार्मिक विचारों से ओतप्रोत था इसलाम के आगमन के बाद ईरानी संस्कृति की बेदारी और इसलामी तसव्वुफ़ का सबसे बड़ा केंद्र साबित हुआ। बलख़ का ही रहनेवाला खालिद, जो बलख़ के बौद्ध पुरोहितों के खानदान का था, अब्बासी खलीफाओं का 'बरामिकी वजीर' बना। उसने बहुत सी संस्कृत पुस्तकों का अरबी में अनुवाद करवाया। इस तरह हम देखते हैं कि राज्य परिवर्तन और धर्मपरिवर्तन के बावजूद ईरान ने अपनी सांस्कृतिक ऊँचाई को कायम रखा।[१]
ईरान के वर्तमान (1973) नरेश मुहम्मद रज़ा पहलवी ने अपने पिता रज़ाशाह पहलवी द्वारा सिंहासन छोड़ने के पश्चात् 18 सितंबर, 1941 ई. को राष्ट्राध्यक्ष के रूप में शपथ ग्रहण की। किंतु राजतिलक समारोह 26अक्टूबर, 1967 ई. को संपन्न हुआ। ईरान नरेश ने 21 दिसंबर, 1959 ई. को एक वरिष्ठ सैनिक अधिकारी की पुत्री फराह दिबा से विवाह किया। इनसे 31 अक्टूबर, 1960 ई. को उत्पन्न प्रथम पुत्र राजकुमार रज़ा पहलवी ईरान के वर्तमान युवराज हैं।
ईरान के प्रधान मंत्री डा. मस्सदक़ ने 1951 ई. में देश के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया। सन् 1954 में ईरानी सरकार की नैशनल ईरानियन कंपनी और 17 अंतर्राष्ट्रीय तेल कंपनियों के संघ के बीच एक समझौता हुआ जिसके अंतर्गत उक्त कंपनियों को तेल की खरीद पर विशेष छूट देने का प्रावधान था। ईरान में आर्थिक योजनाएँ सन् 1949 से प्रारंभ की गईं और इन योजनाओं के निर्बाध क्रियान्वयन के लिए ईरान नरेश ने एक बृहत् योजना के अंतर्गत सन् 1963 ई. के आरंभ में बड़ी-बड़ी जागीरों तथा भूसंपत्तियों का वितरण छोटे किसानों में करना शुरू कर दिया। इसी वर्ष ईरान में स्त्रियों को मतदान का अधिकार दिया गया, हालाँकि परंपरावादियों ने प्रशासन के इस कदम का कड़ा विरोध किया और इसी से उत्पन्न क्षोभ के कारण जनवरी, 1965 ई. में ईरान के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री मंसूर की हत्या कर दी गई। सन् 1966ई. में ईरान कोलंबों योजना का सदस्य बन गया। शट्ट अल अरब संबंधी अधिकारों और टंब द्वीपसमूह पर ईरानी कब्जे को लेकर इराक से ईरान का मनमुटाव यहाँ तक बढ़ा कि इराक ने 1971 ई. में न केवल ईरान से राजनयिक संबंध विच्छेद कर लिया बल्कि अपने देश से 60,000 ईरानियों को भी निष्काषित कर दिया। अक्टूबर, 1971 में ईरान ने धूमधाम से अपनी राज्यस्थापना की 2,500वीं जयंती मनाई और इस अवसर पर परसीपोलिस में आयोजित भव्य समारोहों में 40 से अधिक राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सं.ग्रं.-एशियाटिक रिसर्चेज की जिल्दें; जेम्स डारमेस्टर : द सीक्रेट बुक ऑव द ईस्ट, भाग 14; द ज़ेंद अवस्ता; एम.एन. धल्ला : ज़ोरोआस्ट्रियन सिविलाइज़ेशन; ज़ेनेद ए. रागोज़िन : बैबीलोन ऐंड पर्शिया; क्लीमेंट हुआर्ट : एंशेंट पर्शिया ऐंड ईरानियन सिविलाइज़ेशन; गिबन : डिक्लाइन ऐंड फ़ाल ऑव रोमन एंपायर; पी. केरशास्प : स्टडीज़ इन एनशेंट पर्शियन हिस्ट्री; ई.जी. ब्राउन : ए लिटररी हिस्ट्री ऑव पर्शिया; सर जे. मैलकम : द हिस्ट्री ऑव पर्शिया (1815); सर विलियम म्यूर : हिस्ट्री ऑव द कैलीफ़ेट इट्स राइज़, डिक्लाइन ऐंड फ़ाल; विश्वंभरनाथ पांडे : ज़रथुस्त्री धर्म और ईरानी संस्कृति (1952)। (वि.ना.पां.)