ऊतक परीक्षा

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लेख सूचना
ऊतक परीक्षा
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 2
पृष्ठ संख्या 179
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1964 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक श्रीधर अग्रवाल

ऊतक परीक्षा निदान के लिए जीवित प्राणियों के शरीर से ऊतक (टिशू) को अलग कर जो परीक्षण किया जाता है उसे ऊतक परीक्षा (बाइऑप्सी) कहते हैं। अर्बुद के निदान की अन्य विधियाँ उपलब्ध न होने पर, संभावित ऊतक के अपेक्षाकृत एक बड़े टुकड़े का सूक्ष्म अध्ययन ही निदान की सर्वोत्तम रीति है। शल्य चिकित्सा में इसकी महत्ता अधिक है, क्योंकि इसके द्वारा ही निदान निश्चित होता है तथा शल्य चिकित्सक को आँख बंदकर करने के बदले उचित इलाज करने का मार्ग मिल जाता है।

ऊतक-परीक्षा-विधि रोग के प्रकार और शरीर में उसकी स्थिति पर निर्भर रहती है। जब अर्बुद सतह पर स्थित रहता है तब यह परीक्षा अर्बुद को काटकर की जाती है। किंतु जब वह गहराई में स्थित रहता है तब ऊतक का एक छोटा टुकड़ा पोली सुई द्वारा चूसकर अलग किया जा सकता है। यह 'सुई-उतक-परीक्षण' (नीडिल-बाइऑप्सी) कहलाता है। ऊतक के इस तरह अलग करने के बाद विकृति-विज्ञान-परीक्षक (पैथालोजिस्ट) उसे हिम के समान जमाकर और उसके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अनुप्रस्थ काट लेकर, कुछ मिनटों में ही निदान कर लेता है। स्तवग्रंथि अर्बुद जैसे रोगों में, निदान की तुरंत आवश्यकता होने के कारण, यही विधि उपयोग में लाई जाती है, अन्यथा साधारणत: ऊतक का स्थिरीकरण करके और उसे सुखाकर मोम में जमा दिया जाता है। इसके बाद उससे एक इष्टिका (ब्लाक) काट ली जाती है। इस इष्टिका के सूक्ष्म अनुप्रस्थ काट (सेक्शन) लेकर, उन्हें उपयुक्त रंगों से रंजित किया जाता है। इस विधि में साधारणत: एक से लेकर तीन दिन तक लगते हैं।

कुछ चिकित्सक ऊतक परीक्षण के विपक्ष में हैं, क्योंकि उनकी यह आशंका है कि ग्रंथियों के काटने से रोग शिराओं तथा लसीका तंत्रों द्वारा फैल जाता है, किंतु यह सिद्ध हो चुका है कि ऊतक परीक्षा द्वारा रोग बढ़ने की संभावना प्राय: नहीं रहती।


टीका टिप्पणी और संदर्भ