कुमारसंभव
कुमारसंभव
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 66-67 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | परमेश्वरीलाल गुप्त |
कुमारसंभव महाकवि कालिदास विरचित कार्तिकेय के जन्म से संबंधित महाकाव्य जिसकी गणना संस्कृत के पंच महाकाव्यों में की जाती है। इसमें वर्णित कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
पर्वतराज हिमालय के मैनाक नामक पुत्र और गौरी नामक कन्या हुई। कन्या पार्वती और उमा नाम से भी विख्यात हुई। जब कन्या हुई तो एक दिन उसके घर नारद आए और भविष्यवाणी की कि कन्या का विवाह शिव से होगा। यह भविष्यवाणी सुनकर हिमालय निश्चिंत हो गए । उधर शिव हिमालय के शिखर पर तप कर रहे थे। हिमालय ने एक सखी के साथ उमा को उनकी परिचर्या के लिये भेज दिया और उमा भक्तिभाव से शिव की सेवा करने लगी।
उन्हीं दिनों तारकासुर से युद्ध में देवता लोग पराजित हो गए। दैत्य अनेक प्रकार के छल करने लगा। तब इंद्र सहित सारे देवता ब्रह्मा के पास आए। तारकासुर के निमित योग्य सेनापति की माँग की। तब ब्रह्मा ने कहा कि शंकर के वीर्य से उत्पन्न पुरूष ही तुम्हारा योग्य सेनापति हो सकता है। इसलिए तुम लोग प्रयास करो जिससे शिव पार्वती के प्रति आसक्त हों। यदी शिव ने पार्वती को स्वीकार कर लिया तो पार्वती से जो पुत्र होगा तो उसके सेनापति बनने पर तुम्हारी विजय होगी। तत्पश्चात् इंद्रादि देवता शिव के विरक्त भाव को हटाने के उपाय पर विचार करने के लिये एकत्र हुए। जब मदन उस सभा मे आए तो इंद्र ने उनसे अननुरोध किया कि वे अपने मित्र वसंत के साथ शिव के तपस्या स्थान पर जायँ और शिव को पार्वती के प्रति आसक्त करें। तदनुसार मदन अपनी पत्नी रति और मित्र वसंत को लेकर शंकर के आश्रम में पहुँचा। जब पार्वती कमलबीज की माला अर्पण करने शिव के निकट पहुँची और शिव ने उसे लेने के लिये हाथ बढाया , तब मदन ने अपने धनुष पर मोहनास्त्र चढ़ाया। तत्क्षण शिव का मन विचलित हुआ। शंकर ने इस प्रकार मन के अकस्मात् विकृत होने का कारण जानने के लिये चारों ओर दृष्टि दौडाई। उन्हें शरसंधान करता मदन दिखाई पड़ा। उसे देखते ही शिव आग बबूला हो गए; उनके तृतीय नेत्र से अग्निज्वाला प्रकट हुई और मदन उसमें भस्म हो गया।
रति अपने पति को इस प्रकार भस्म होते देख विलाप करने लगी और वसंत से चिता तैयार करने को कहा और स्वयं प्राण त्यागने को तैयार हुई। तब आकाशवाणी हुई कि थोड़ा सब्र करो तुम्हे तुम्हारा पति पुन प्राप्त होगा।
उधर शिव नारीसंपर्क से बचने के लिए अंतर्धान हो गए। मदन के भस्म होने और शिव के अंतर्धान हो जाने से पार्वती ने अपना सारा मनोरथ विफल होते देखा और यह सोचकर कि यह रूपसौंदर्य व्यर्थ है, वे शिव को प्रसन्न करने के लिए एक पर्वत शिखर पर जा कर उग्र तप करने लगी। कुछ काल के अनंतर शिव का मन पिघला उन्होंने पार्वती को स्वीकार करने का विचार किया। किंतु इससे पूर्व उन्होंने पार्वती की परीक्षा करने का निश्चय किया और वे एक तपस्वी के आश्रम में पहुँचे। पार्वती ने अतिथि के रूप में उनका समुचित सत्कार किया। तदंतर उस तरुण तपस्वी ने पार्वती से जिज्ञासा की कि किसकी प्राप्ति के लिए इतनी उग्र तपस्या कर रही हो। अतिथि के प्रश्न को सुनकर पार्वती लज्जित हुई और अपने मनोभाव प्रकट करने मे संकोच करने लगी तब उनकी सखी ने शिव की प्राप्ति की इच्छा की बात कही। यह सुनकर तपस्वी वेशधारी शिव, शिव के दुर्गुणों और कुरूपता आदि का उल्लेख कर उनकी निंदा करने लगे। पार्वती को यह शिव निंदा नही हुई और उन्हे डाँटने लगी। तब शिव अपने स्वरूप मे प्रकट हुए और उनका हाथ पकड़ लिया।
तत्पश्चात शिव ने सप्तर्षि के बुलाकर हिमालय के पास भेजा। उन्होंने उनसे जाकर बताया कि शिव ने पार्वती का पाणिग्रहण करने की इच्छा प्रकट की है। तब विवाह का निश्चय हुआ और विवाह की तैयारी होने लगी। सप्तमातृकाएँ दूल्हे के योग्य वस्त्र लेकर आई पर शिव ने उन सब को स्वीकार नहीं किया और नंदी पर सवार होकर ही चले । पश्चात् विवाह की सारी क्रियाएँ हुई। विवाह संपन्न होने पर शिव सहित पार्वती ने ब्रह्मा को प्रणाम किया । ब्रह्मा ने आशीर्वाद दिया। तुम्हें वीर पुत्र हो। अप्सराओं ने आकर वर-वधु के सम्मुख एक नाटक प्रस्त्तुत किया। नाटक समाप्त होने के बाद इंद्र ने शिव से मदन को जीवित करने का अनुरोध किया। अंत में शिव और पार्वती के एकांत मिलन की चर्चा विस्तार से की गई है। इस महाकाव्य में अनेक स्थलों पर स्मरणीय और मनोरम वर्णन हुआ है। हिमालयवर्णन, पार्वती की तपस्या, ब्रह्मचारी की शिवनिंदा, वसंत आगमन, शिवपार्वती विवाह और रतिक्रिया वर्णन अदभुत अनुभूति उत्पन्न करते हैं। कालिदास का बाला पार्वती, तपस्विनी पार्वती, विनयवती पार्वती और प्रगल्भ पार्वती आदि रूपों नारी का चित्रण अद्भुत है।
यह महाकाव्य १७ सर्ग्रों में समाप्त हुआ है, किंतु लोक धारणा है कि केवल प्रथम सर्ग ही कालिदास रचित है। बाद के अन्य नौ सर्ग अन्य कवि की रचना है। कुछ लोगों की धारणा है कि काव्य आठ सर्गों में ही शिवपार्वती समागम के साथ कुमार के जन्म की पूर्वसूचना के साथ ही समाप्त हो जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि आठवें सर्ग मे शिवपार्वती के
संभोग का वर्णन करने के कारण कालिदास को कुष्ठ हो गया और वे लिख न सके। एक मत यह भी है कि उनका संभोगवर्णन जनमानस को रुची नहीं इसलिए उन्होंने आगे नहीं लिखा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ