तानसेन

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०८:२०, १८ फ़रवरी २०१२ का अवतरण
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
लेख सूचना
तानसेन
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 5
पृष्ठ संख्या 331-332
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक फूलदेवसहाय वर्मा
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1965 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक जयदेव सिंह

तानसेन भारतीय संगीत में कदाचित्‌ की किसी को इतना यश मिला हो जितना तानसेन को मिला, किंतु खेद की बात है कि उनके जीवन के सबंध में ऐतिहासिक तथ्य बहुत कम मालूम हैं।

तानसेन के ठीक नाम का भी अभी तक पता नहीं चल पाया है। तन्नु, तन्न, त्रिलोचन, तनसुख, रामतनु इत्यादि उनके नाम बतलाए जाते हैं। 'तानसेन' उनकी उपाधि थी। कुछ लोगों का कहना है कि ग्वालियर के राजा विक्रमाजीत सिंह तोमर ने यह उपाधि उन्हें दी थी, किंतु बहुत से लेखकों का विश्वास है कि बांधवगढ़ के राज रामचंद्र सिंह ने यह उपाधि उन्हें दी थी।

अबुलफ़ज्ल़ ने अपने लेखों में उन्हें ग्वालियरी कहा है। संभवत: ग्वालियर में ही कहीं उनका जन्म हुआ था। ग्वालियर से २० मील पर बेहट नाम का एक गाँव है। यही उनका जन्मस्थान कहा जाता है। उस गाँव में एक शिवमंदिर है और उसके पास एक चबूतरा। शिवमंदिर थोड़ा सा झुका हुआ है। किंवदंती है कि चबूतरे पर बैठकर तानसेन तान आलाप लिया करते थे। उनके तान आलाप के कारण वायु में जो स्पंदन हुआ उसी से शिवमंदिर झुक गया।

अबुलफ़ज्ल़ ने 'अकबरनामा' में उनकी मृत्यु की तारीख २६ अप्रैल, सन्‌ १५८९ बतलाई है। वह मृत्यु के समय लगभग ८० या ८५ वर्ष के थे। अत: उनका जन्म १५०४ से १५०९ ईसवी सन्‌ में हुआ होगा।

अनुश्रुति के अनुसार उन्हें संगीत की शिक्षा स्वामी हरिदास से मिली थी किंतु स्वामी जी केवल ब्रह्मचारी को ही अपना शिष्य बनाते थे। यह संभव है कि स्वामी जी ने कभी कभी कुछ रागों के विषय में उन्हें कुछ बतलाया हो। कुछ लोग उन्हें ग्वालियर के सूफी संत ग़्साौ मुहम्मद का शिष्य बतलाते हैं, किंतु ग़्साौ मुहम्मद गायक नहीं थें। अत: तानसेन उनके शिष्य नहीं हो सकते। उनका जन्म 'कलावंत' के घर में हुआ था। संभवत : उन्होने संगीत की शिक्षा अपने पिता से पाई थी जिनका नाम मकरंद पांडेय कहा जाता है। संभव है, उन्हें कुछ शिक्षा राजा मानसिंह या विक्रमाजीतसिंह के दरबारी गायकों से भी मिली हो।

सन्‌ १५१९ में विक्रमाजीतसिंह इब्राहिम लोदी के द्वारा परास्त हुए। उनका राज्य चले जाने पर ग्वालियर के कलाकर इधर उधर चले गए। तानसेन पहले शेरशाह सूरी के पुत्र दौलत खाँ सूरी के दरबारी गायक नियुक्त हुए। दौलत खाँ की मृत्यु के अनंतर वह बांधवगढ़ के राजा रामचंद्रसिंह के यहाँ नियुक्त हुए। उस समय के संस्कृत कवि माधव ने 'वीरभानूदय काव्यम' में तानसेन के ्ध्रुावपद गान की भूरि भूरि प्रशंसा की है और लिखा है कि राजा रामचंद्रसिंह ने तानसेन को करोड़ो रुपये दिये।

अकबर ने तानसेन की गानकला की प्रशंसा सुनी। उन्होंने अपने अफसर जलाल खाँ कुर्ची को सन. १५६२ ई० मे राजा रामचंद्रसिंह के पास फ़रमान सहित भेजा जिसमें उन्होने यह इच्छा प्रकट की कि तानसेन उनके दरबार में भेज दिए जाएँ। शाही फ़रमान के कारण राजा रामचंद्रसिंह को इच्छा न होते हुए भी तानसेन को दिल्ली दरबार भेजना पड़ा। 'आईने अकबरी' में अबुलफ़ज्ल़ ने लिखा है कि अकबर ने अपने दरबार में तानसेन का गाना सुनकर पहली बार दो लाख टका पुरस्कार स्वरूप दिया। अबुलफ़ज्ल़ का कहना है कि सहस्र वर्ष तक नानसेन जैसा गायक भारत में नही हुआ।

तानसेन का कंठ बहुत मधुर था और स्वर का लगाव उनका विशेष गुण था। उन्होंने कई रागों का निर्माण किया जिनमें मियाँ की तोड़ी मियाँ की सारंग, मियाँ की मल्लार और दरबारी कानड़ा मुख्य थे। अकेले दरबारी कानड़ा ही उनके नाम को अमर करने के लिए पर्याप्त है।

वह केवल गायक ही नहीं, नायक भी थे। संगीत में नायक उन्हें कहते थे जो स्वर ताल में गीत की रचनाएँ करते थे। 'रागकल्मद्रुम' में उनके द्वारा रचित कई ध्रुवपद दिए हुए हैं। राजा नवाब अली ने अपने 'मारध्रुलनग़्माात' में तानसेन द्वारा रचित कुछ ध्रुवपद स्वरलिपि में दिए हैं। खेद है, तानसेन के ध्रुवपदों का अभी पूर्ण संग्रह नहीं हो सका है।

तानसेन ने संगीतशास्त्र पर दो पुस्तकें भी लिखी - संगीतसार और रागमाला। यह दोनों पुस्तकें प्रकाशित हो गई हैं।

तानसेन ने एक मुसलमान महिला रख ली थी जिसके कारण हिंदू समाज से बहिष्कृत हो गए। उन्होंने स्वेच्छा से इस्लाम धर्म नहीं स्वीकार किया था। ग्वालियर में ग़्साौ मुहम्मद के मकबरे के पास एक छोटा से मकबरा है जो तानसेन की कब्र कहा जाता है। यहाँ प्रत्येक वर्ष तानसेन का उर्स मनाया जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ