दुर्ग
चित्र:Tranfer-icon.png | यह लेख परिष्कृत रूप में भारतकोश पर बनाया जा चुका है। भारतकोश पर देखने के लिए यहाँ क्लिक करें |
दुर्ग
| |
पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 6 |
पृष्ठ संख्या | 77-78 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी, फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | एस. के. गुप्त |
दुर्ग शब्द का तात्पर्य है ऐसा गढ़ जहाँ पहुँचना कठिन हो। युद्ध के तरीकों में परिवर्तन के साथ दुर्ग का अर्थ भी बदलता रहा है, क्योंकि युद्ध से दुर्ग का सीधा संबंध है। किसी भूभाग या क्षेत्र की नैसर्गिक रक्षात्मक शक्ति की वृद्धि करना भी अब दुर्गनिर्माण के अंतर्गत माना जाता है।
भारत में दुर्ग
भारत में दुर्ग की अनेक किस्में ज्ञात थीं। चाणक्य ने जलदुर्ग, मरुदुर्ग, वनदुर्ग आदि अनेक प्रकार के दुर्गों का वर्णन किया है। भारत के मुग़ल शासक दुर्ग रचना में बड़ी दिलचस्पी रखते थे, जिसका प्रमाण दिल्ली और आगरे के लाल किले तथा इलाहाबाद स्थित अकबर का क़िला है। पाश्चात्य देशों में दुर्ग-निर्माण-कला का विकास तोप और तोपखाने की फायर शक्ति के विकास के साथ साथ हुआ। भारत में तोपखाने का सर्वप्रथम उपयोग बहुत समय बाद, 1526 ई. में बाबर ने पानीपत के युद्ध में किया था। अत: यहाँ दुर्गकला का वैसा विकास होना संभव नहीं था।
दुर्गबंदी
दुर्गबंदी (देखें किलाबंदी) दो प्रकार की होती है, स्थायी और अस्थायी। शांति के समय कंक्रीट और प्रस्तर निर्मित किले, खाइयाँ, बाधाएँ और सैनिक आवास स्थायी दुर्गबंदी हैं और शत्रु से मुठभेड़ होने पर, या युद्ध अवश्यंभावी होने की स्थिति में की जानेवाली दुर्गबंदी, अस्थायी या मैदानी कहलाती है। मैदानी दुर्गबंदी लचीली होती है, अत: रक्षा के साथ ही आक्रमण होने के पहले अपने स्थिति को दृढ़ कर लेने का अवसर प्रदान करती है। खाईबंदी, अस्त्र अभिस्थापन, अस्त्रों के लिए स्पष्ट फायर क्षेत्र, सुरंग, कँटीले तार आदि बाधाएँ तथा गिर पेड़, चट्टान जैसे पदार्थों से उपलब्ध प्राकृतिक बाधाओं को और भी दृढ़ करना इत्यादि मैदानी दुर्गबंदी के अंतर्गत है। आधुनिक मैदानी दुर्गबंदी में गोपन और छद्मावरण आवश्यक हैं।
एक समय था जब युद्ध में आक्रमण की अपेक्षा सफल प्रतिरक्षा ही युद्ध की निर्णायिका होती थी। उन दिनों स्थायी दुर्गबंदी पर बहुत ध्यान दिया गया। तोप के आविष्कार के पूर्व मध्ययुगीन किले लगभग अभेद्य थे। शक्तिशाली से शाक्तिशाली आक्रमणकारी भी दुर्ग का घेरा डाले महीनों पड़े रहते थे। उन दिनों प्रतिरक्षा का अर्थ पराजय को यथासंभव अधिक से अधिक समय तक टालना मात्र था। दुर्ग रचना की कला में जर्मन, फ्रांसीसी, ब्रिटिश और इताली योगदान पर्याप्त हैं। ११वीं शताब्दी में नॉर्मन दुर्ग बने जो, भित्तिपातकों (battering rams) तक का प्रहार झेल जाते थे। धर्मयुद्धों (crusades) के काल में भी दुर्गकला का विकास हुआ। क्रमिक प्रतिरक्षा पंक्ति के सिद्धांत पर एककेंद्रीय दुर्ग बने जिन्हें १३वीं और १४वीं शताब्दी के घेरा इंजन भी नहीं तोड़ पाते थे। बारूद के आविष्कार ने युद्ध विज्ञान में क्रांति कर दी और फलत: दुर्गबंदी में भी बड़े परिवर्तन हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में प्रबलतम दुर्गों का ध्वंस करनेवाले अस्त्र बन सके थे।
शत्रु के मार्ग में बाधा उपस्थित करना, बहुत प्राचीन विद्या है। बाधा ऐसी होनी चाहिए कि शत्रु अपने अस्त्रों का प्रयोग करने में असुविधा का अनुभव करे, लेकिन प्रतिरक्षक को कोई असुविधा न हो। शत्रु के आक्रमण तथा स्थानीय आक्रमण को विभक्त (channelize) करने में मैदानी दुर्गबंदी सहायक होती है। फायर शक्ति, टैंक और छाताधारी सेना के कारण अब स्थायी दुर्गों का कोई उपयोग नहीं रह गया हैं, किंतु मैदानी दुर्गबंदी से बाधा उत्पन्न करके शत्रु के आने में देर की जा सकती है।
खाई युद्ध कोई नई विद्या नहीं है। प्राचीन रोम में हर सैनिक को खाई खोदनी पड़ती थी। जूलियस सीर्जर ने कँटीले तारों, सुरंगों और विस्फोटकों को छोड़कर, आधुनिक काल में ज्ञात सभी विद्याओं का प्रयोग किया था। मंगोलों ने १३वीं शताब्दी में खाई बंदी का प्रयोग किया था। अंतर यह है कि आधुनिक काल की खाइयाँ तोपखाने के कारण अधिक गहरी और मजबूत होती हैं। अस्त्रों के विकास ने मैदानी दुर्गबंदी को बहुत प्रभावित किया है।
पश्चिमी देशों की अपेक्षा अमरीका वालों ने मैदानी दुर्गबंदी को तेजी से ग्रहण किया, क्योंकि अमरीका में स्थायी दुर्ग नहीं थे। क्रांतियुद्ध में अमरीकियों को सदा ही मैदानी दुर्गबंदियों पर निर्भर रहना पड़ा।
प्रथम विश्वयुद्ध - पश्चिम में प्रथम विश्वयुद्ध घेराबंदी का युद्ध था। लाखों सैनिक महीनों तक खाइयों में पड़े रहते थे। खाइयों में प्रतिरक्षा की काररवाइयाँ होती थीं और तोपखानों का विन्यास इस प्रकार किया जाता था कि शत्रु का प्रवेश तीसरी पंक्ति में न हो सके। दोनों पक्ष मनोबल तोड़ने के प्रयासों पर अधिकाधिक बल देते थे।
प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति और द्वितीय युद्ध के प्रारंभ के मध्यकाल में सुरंग का आविष्कार महत्वपूर्ण रहा। खाई तंत्र, कँटीले तार की बाधा, मशीनगन तथा तोपखाना अभिस्थापन और टैंकों से बचाव के लिए सुरंग बिछाने का अध्ययन किया गया। दुर्गबंदी की दिशा में फ्रांस में माजिनो रेखा, जर्मनी में सीगफ्रड रेखा और रूस में स्तालिन रेखा पर ध्यान केंद्रित हुआ। टैंकों के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के लिए इस्पात और कंक्रीट की बाधाओं के अतिरिक्त जंगलों औ बाढ़ क्षेत्रों का भी उपयोग किया गया। हवाई सुरक्षा के लिए अतिरिक्त तोप अभिस्थापन, खोज बत्ती (search light) और व्यापक टेलिफोन संचार की व्यवस्था हुई तथा हवाई प्रेक्षण से बचने और शत्रु की स्थल सेना को धोखा देने के लिए छिपने की विधियों का निर्माण हुआ। मैदानी दुर्गबंदियों तक पहुँचने के लिए रेल और सड़कों की वृद्धि की गई तथा वायुयानों के उतरने के लिए अवतरणक्षेत्र और भूमिगत वायुयान शालाओं का निर्माण हुआ। विषैली गैसों से रक्षा तथा पैदल सेना के नजदीकी आक्रमण का सामना करने के लिए स्थितियों का संगठन किया गया। इन दिनों तटीय दुर्गबंदी पर बड़ा ध्यान रखा गया। लेकिन युद्ध से सिद्ध हो गया कि तोप और टैंक के सम्मुख इनका अस्तित्व महत्वहीन है।
दूसरा विश्वयुद्ध - इस युद्ध में टैंकों से बचने का प्रश्न था। टैकों के मार्ग में सुरंग बिछाकर उनके पहुँचने में देरी की जा सकती थी। प्रशांत द्वीपों में रत के बोरों का प्रयोग हुआ। जापानियों की मैदानी दुर्गबंदी, सुव्यवस्थित होती थी। खोदे हुए स्थान को जंगली पत्तों, टहनियों से वे इस प्रकार छिपा देते थे कि सैनिक स्थितियों को पहचानना कठिन हो जाता था।
नगरों में घरों में रहकर युद्ध करना, मैदानी दुर्गबंदी में सम्मिलित किया गया। युद्ध के लिए पत्थर के बने मजबूत घर चुन लिए गए और खाइयाँ खोदने के लिए बुलडोज़रों का उपयोग किया गया। इन साधनों का ठीक प्रकार से समन्वयन आवश्यक था, जिसके अभाव में इनसे अपना ही घातक अहित होता था।
जर्मनी ने एक दिन के अंदर बेल्जियम का एल्बेन-स्माल किला जीतकर सारे विश्व को चकित कर दिया। इस किले को जर्मनी ने किसी गुप्त अस्त्र के उपयोग से नहीं जीता, बलिक इसलिए जीता कि उसने मॉडलों द्वारा आक्रमण का अनेक बार पूर्वाभ्यास कर लिया था। जर्मनी ने माजिनो रेखा को उत्तर की ओर से पार करके प्रभावहीन कर दिया। इसी उपाय से उन्होंने स्तालिन रेखा को प्रभावहीन किया। रूसियों की १०० मील गहरी दुर्गबंदी भी जर्मनों की चालों के आगे प्रभावहीन सिद्ध हुई। लेकिन रूसियों को जर्मनी के आक्रमण की दिशा का पता लग गया, जिसके कारण वे उनके आक्रमण की तीव्रता को रोकने में सफल हुए।
कुछ समय बाद जापानियों ने सिंगापुर की तटीय दुर्गबंदी को निरर्थक कर दिया। जापानी इस दुर्ग के उत्तर में उतर पड़े थे और इस शक्तिशाली दुर्ग की तोपें केवल समुद्र की दिशा में फायर कर सकती थीं।
दूसरे विश्वयुद्ध से यह लगभग सिद्ध हो गया कि स्थायी दुर्गबंदी के निर्माण में धन और श्रम व्यय करना व्यर्थ है, क्योंकि शत्रु के आने में देर उत्पन्न करने के और भी उपाय हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि स्थायी दुर्ग सर्वदा के लिए समाप्त हो गए, क्योंकि भविष्य में परमाण्वीय युद्ध के समय सेनाओं को कंक्रीट की बनी खाइयों का आश्रय लेना पड़ सकता है।(एस. के. गुप्त)
टीका टिप्पणी और संदर्भ