देवदार
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देवदार
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 6 |
पृष्ठ संख्या | 113-114 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | राम प्रसाद त्रिपाठी, फूलदेव सहाय वर्मा |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | सद्गोपाल, विश्वंभरप्रसाद गुप्त |
देवदार संस्कृत देवदारु, देवताओं की लकड़ी, वैज्ञानिक नाम सिड्रस देवदार रौक्स ब.। लेबनान देवदार और ऐटलस देवदार इसी जाति के वृक्ष हैं। यह पिनाएसिई (Pinaceae) वंश का बहुत ऊँचा, शोभायमान, बड़ा फैलावदार, सदा हरा रहनेवाला और बहुत वर्षों तक जीवित रहनेवाला वृक्ष है। साधारणत: ढाई से पौने चार मीटर के घेरेवाले पेड़ वनों में बहुतायत से मिलते हैं, पर १४ मीटर के घेरेवाले तथा ७५ से ८० मीटर तक ऊँचे पेड़ भी पाए जाए हैं। पश्चिमी हिमालय, उत्तरी बलूचिस्तान, अफगानिस्तान, उत्तर भारत के कश्मीर से गढ़वाल तक के वनों में १,७०० से लेकर ३,५०० फुट तक की ऊँचाई पर ये पेड़ मिलते हैं। शोभा के लिए यह इंग्लैंड और अफ्रीका में भी उगाया जाता है। बीजों से पौधों को उगाकर वनों में रोपा जाता है। अफ्रीका में कलमों से भी उगाया जाता है।
देवदार का तना बहुत मोटा और पत्ते हल्के हरे रंग के मुलायम और लंबे होते हैं। लकड़ी पीले रंग की सघन, सुगंधित, हल्की, मजबूत और रालयुक्त होती है। राल के कारण कीड़े और फफूँद नहीं लगते और जल का भी प्रभाव नहीं पड़ता, लकड़ी उत्कृष्ट कोटि की इमारती होती है। रेल की पटरियाँ, फर्नीचर, मकान के दरवाजे और खिड़कियाँ, अलमारियाँ इत्यादि इत्यादि इसकी बनती हैं। इसपर रोगन और पालिश अच्छी चढ़ती है। इसकी लकड़ी से पेंसिल भी बनती है। इसकी छीलन और बुरादे से, ढाई से लेकर चार प्रतिशत तक, वाष्पशील तेल प्राप्त होता है, जो सुगंध के रूप में हिमालयी सेडारवुड तेल के नाम से व्यवहृत होता है। तेल निकाल लेने पर छीलन और बुरादा जलावन के रूप में व्यवहृत हो सकते हैं। देवदार की लकड़ी का उपयोग आयुर्वेदीय ओषधियों में भी होता है। भंजक आसवन से प्राप्त तेल त्वचारोगों में तथा भेड़ और घोड़ों के बालों के रोगों में प्रयुक्त होता है। इसके पत्तों में अल्प वाष्पशील तेल के साथ साथ ऐस्कौर्बिक अम्ल भी पाया जाता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ