अंगूर

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लेख सूचना
अंगूर
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 1
पृष्ठ संख्या 15
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पाण्डेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी'
संस्करण सन्‌ 1973 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक निरंकार सिंह्

अंगूर (अंग्रेजी नाम:Grape वानस्पतिक नाम: वाइटिस विनिफेरा प्रजाति वाइटिस; जाति: विनिफेरा; कुल: वाइटेसी) एक लता का फल है। इस कुल में लगभग 40 जातियाँ हैं जो उत्तरी समशीतोष्ण कटिबंध में पाई जाती है। अंगूर का परंपरागत इतिहास उतना ही प्राचीन है जितना मनुष्य का। बाइबिल से ज्ञात होता है कि नोआ ने अंगूर का उद्यान लगाया था। होमर के समय में अंगूरी मदिरा यूनानियों के दैनिक प्रयोग की वस्तु थी। इसका उत्पत्ति स्थान काकेशिया तथा कैस्पियन सागरीय क्षेत्र से लेकर पश्चिमी भारतवर्ष तक था। यहाँ से एशियामाइनर, यूनान तथा सिसिली की ओर इसका प्रसार हुआ। ई.पू. 600 में यह फ्रांस पहुँचा।

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अंगूर बहुत स्वादिष्ट फल है। इसे लोग बहुधा ताजा ही खाते हैं। सुखाकर किशमिश तथा मुनक्का के रूप में भी इसका प्रयोग किया जाता है। रोगियों के लिए ताजा फल अत्यंत लाभदायक है। किशमिश तथा मुनक्के का प्रयोग अनेक प्रकार के पकवान, जैसे खीर, हलवा, चटनी इत्यादि, तथा औषधियों में भी होता है। अंगूर में चीनी की मात्रा लगभग 22 प्रतिशत होती है। इसमें विटामिन बहुत कम होता है, परंतु लोहा आदि खनिज पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। भारतवर्ष में इसकी खेती नहीं के बराबर है। यहां इसकी सबसे उत्तम खेती बंबई राज्य में होती है। अंगूर उपजाने वाले मुख्य देश फ्रांस, इटली, स्पेन, संयुक्त राज्य अमरीका, तुर्की, ग्रीस ईरान तथा अफगानिस्तान है। संसार में अंगूर की जितनी उपज होती है उसका 80 प्रतिशत मदिरा बनाने में प्रयोग किया जाता है।

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अंगूर प्रधानत: समशीतोष्ण कटिबंध का पौधा है, परंतु उष्णकटिबंधीय प्रदेशों में भी इसकी सफल खेती की जाती है। इसके लिए अधिक दिनों तक मध्यम से लेकर उष्ण तक का ताप और शुष्क जलवायु अत्यंत आवश्यक है। ग्रीष्म ऋतु शुष्क तथा शीतकाल पर्याप्त ठंडा होना चाहिए। फूलने तथा फल पकने के समय वायुमंडल शुष्क तथा गरम रहना चाहिए। इस बीच वर्षा होने से हानि होती है। बलूचिस्तान में ग्रीष्म ऋतु में ताप 100° से 115° फा. तक पहुँचता है, जो अंगूर के लिए लाभप्रद सिद्ध हुआ है। बंबई में अंगूर जाड़े में होता है। दोनों स्थानों में भिन्न-भिन्न जलवायु होते हुए भी फल के समय ऋतु गरम तथा शुष्क रहती है। यही कारण है कि अंगूर की खेती दोनों स्थानों में सफल हुई है, यद्यपि जलवायु में बहुत भिन्नता है। सुषुप्तिकाल में पाले से अंगूर की लता को कोई हानि नहीं होती, परंतु जब फल लगने वाली डालें बढ़ने लगती हैं उस समय पाला पड़े तो हानि होती है, पौधे के इन जलवायु संबंधी गुणों में अंगूर की किस्मों के अनुसार न्यूनाधिक परिवर्तन हो जाता है। अंगूर की सफल खेती के लिए वह मिट्टी सर्वोत्तम है जिसमें जल निकास (ड्रेनेज) का पूर्ण प्रबंध हो। रेतीली दुमट इसके लिए सबसे उत्तम मिट्टी है।

अंगूर की अनेक किस्में हैं। विभिन्न देशों में सब मिलाकर लगभग 200 किस्में होंगी। व्यावसायिक अभिप्राय के अनुसार इन सबका वर्गीकरण किया गया है। इस आधार पर इन्हें चार भागों में विभाजित करते हैं।

(1) सुरा अंगूर इसमें मध्यम मात्रा में चीनी तथा अधिक अम्ल होता है। इस वर्ग के अंगूर मदिरा बनाने के लिए प्रयुक्त होते हैं।

(2) भोज्य अंगूर इसमें चीनी की मात्रा अधिक तथा अम्ल को होते हैं। इस वर्ग के अंगूरों के पके फल खाए जाते हैं, इसलिए इसका रंग, रूप तथा आकार चित्ताकर्षक होना आवश्यक है। यदि फल बीजरहित (बेदाना) हों तो अति उत्तम है।

(3) शुष्क अंगूर:इनमें चीनी की मात्रा अधिक तथा अम्ल कम होता है। इनका बीजरहित होना विशेष गुण है। इन्हें सुखाकर किशमिश तथा मुनक्का बनाते हैं।

(4) सरस अंगूर: इनमें मध्यम चीनी, अधिक अम्ल तथा सुगंध होती है। इनसे पेय पदार्थ बनाए जाते हैं।

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भारतवर्ष में कषि योग्य किस्में अग्रलिखित हैं: ‘मोकरी’ बंबई में, ‘द्रक्षाई’ तथा ‘पचाई’ मद्रास में, ‘बँगलोर ब्ल्यू’ तथा ‘औरंगाबाद’ मैसूर में, और ‘सहारनपुर नंबर 1’ या ‘बेदाना’, ‘सहारनपुर नंबर 2’, ‘मोतिया’, ‘ब्लैक कार्निकान’ तथा ‘रोज ऑव पेन’ इत्यादि, जो सहारनपुर राजकीय उद्यान में उपजाई जाती है।


अंगूर से तैयार होने वाली वस्तुएँ ये हैं: किशमिश, मुनक्का, संरक्षित रस, मदिरा, सिरका तथा जेली। प्रथम दोनों वस्तुओं की माँग भारतवर्ष में अधिक है। पके फल अधिक समय तक साधारण ताप पर नहीं टिकते, परंतु । ३२ डिग्री फा. ताप पर शत संग्रहागार (कोल्ड स्टोरेज) में वे अधिक समय तक ताजे रखे जा सकते हैं।

रासायनिक विश्लेषण

रासायनिक विश्लेषण के अनुसार अंगूर में 08 प्रतिशत प्रोटीन, 01 वसा, 10.2 प्रतिशत कार्बोहाइडरेट, 0.02 प्रतिशत कैल्सियम, 0.02 प्रतिशत फॉस्फोरस, 1.3 से 1.5 मि.ग्रा. प्रति 100 ग्राम लोहा होता है। इसके अतिरिक्त इसमें अनेक विटामिन भी होते हैं जिनकी मात्रा प्रति १०० ग्राम अंगूर में इस प्रकार होती है--विटामिन ए, 15 यूनिट; विटामिन सी, 10 मि.ग्रा.। अंगूर की प्रति 100 ग्राम मात्रा के सेवन से 45 कैलॉरी ऊर्जा उत्पन्न होती है। अंगूर में मौलिक टारटैरिक तथा रेसीनिक अम्ल होते हैं। अंगूर में ग्लूकोज शर्करा पर्याप्त मात्रा में विद्यमान होती है। विभिन्न किस्मों के अंगूरों में शर्करा की मात्रा 11 से 22 प्रतिशत तक पाई जाती है तथा किन्हीं खास जातियों की अंगूरों में तो यह पचास प्रतिशत तक पाई जाती है। अंगूर में जल तथा पोटैशियम लवण की समुचित मात्रा होती है। एलबूमिन तथा सोडियम क्लोराइड भी अल्प मात्रा में होता है।

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गुण

भारतीय चिकित्साशास्त्र के प्राचीन आचार्य वाण्भट्ट के अनुसार अंगूर का रस आँतों तथा गुर्दों की कार्यक्षमता बढ़ाता है। इसलिए कोष्ठबद्धता एवं मूत्रकृच्छ में लाभकर है। सुश्रुत संहिता में इसे बहुत पुष्टिकर माना गया है तथा क्षय रोग का निवारण करने वाला बताया गया है। अतिसार के रोगियों के लिए भी यह बहुत लाभदायक है। अंगूर के अधिकांश विटामिन और खनिज लवण इसके ऊपरी छिलके में होते हैं। अत: इसके छिलके समेत सेवन से ओतों को बल एवं सक्रियता प्राप्त होती है। यह कब्ज को दूर करने में सहायक होता है। रक्त निर्माण में अंगूर का रस महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कछ वर्ष पहले शिकागो के तीन डॉक्टरों ने बताया कि दस आैंस अंगूर के रस का सेवन किया जाए तो इससे रक्ताल्पता (एनीमिया) रोग कछ दिनों में दूर हो जाता है। अंगूर के सेवन से चेहरे पर लालिमा, कांति और ओज आ जाता है। अंगूर की शर्करा (ग्लूकोज) पचापचाया भोजन है इसलिए इसके सेवन के थोड़ी ही देर बाद शरीर को शक्ति, स्फूर्ति मिल जाती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

सं. ग्रं. __ पी. वियाला और बी. वमौरे: खेत्रे जनरा द वितिकुल्तूर आंपेलैरफी (1909); कार्ल म्यूलर: वाइनवाउ-लेक्सिकन (1930)। (ज.रा. सि.)|