अफ्रीका
अफ्रीका (अंग्रेजी में ऐफ़िका) एक महाद्वीप का नाम है जो पृथ्वी के पूर्वी गोलार्ध में एशिया के दक्षिण-पश्चिम में है।
स्थिति तथा विस्तार
क्षेत्रफल की दृष्टि से महाद्वीपों में अफ्रीका का द्वितीय स्थान है। तटवर्ती द्वीपसमूह सहित इसका क्षेत्रफल लगभग १,१६,३५,००० वर्ग मील है। इस प्रकार यह महाद्वीप क्षेत्रफल में भारत गणतंत्र के नौ गुने से भी बड़ा है। अक्षांशीय विस्तार की दृष्टि से यह महाद्वीप अद्वितीय है: यह उत्तरी तथा दक्षिणी दोनों ही गोलार्धों के कटिबंधों में लगभग समान दूरी तक विस्तृत है। ३७° २०¢ उ.अ. से ३४° ५१¢ द.अ. तक तथा १७° २०¢ प.दे. ५१° १२¢ पू.दे. तक यह फैला हुआ है। इसकी अधिकतम लंबाईं उत्तर में रासबेन सक्का से दक्षिण में अगुलहास अंतरीप तक, लगभग ५,००० मील तथा अधिकतम चौड़ाई पश्चिम में बर्ड अंतरीप से ग्वाडीफुई अंतरीप तक, लगभग ४,५०० मील हैं। विषुवत रेखा इस महाद्वीप के मध्य से जाती है। इसलिए इसका अधिकांश, लगभग ९० लाख वर्ग मील, अयनवृत्तीय कटिबंध में पड़ता है। दक्षिण की अपेक्षा यह उत्तर में अधिक चौड़ा है। इसके क्षेत्रफल का लगभग दो तिहाई भाग उत्तरी गोलार्ध में तथा एक तिहाई भाग दक्षिणी गोलार्ध के अंतर्गत आता है।
सीमा
अफ्रीका के पूर्व में हिंद महासागर तथा पश्चिम में अंध (अटलांटिक) महासागर स्थित है। उत्तर में भूमध्यसागर है, जिसकी लंबाईं जिब्राल्टर के मुहाने से सीरिया के तट तक लगभग २,३०० मील है। जिब्राल्टर का मुहाना १५ से २४ मील तक चौड़ा है। सईद बंदरगाह से स्वेज बंदरगाह तक लगभग १०७ मील लंबी ६५० फुट चौड़ी तथा ३७ फुट गहरी स्वेज़ नहर भूमध्यसागर को लालसागर से मिलाती है। इस नहर का उद्घाटन १८६९ ई. में हुआ। युद्धकालिक तथा आर्थिक दृष्टि से यह नहर बड़े महत्व की है। हाल में मिस्र ने इस नहर का राष्ट्रीयकरण कर लिया है। इसके निर्माण के पश्चात् भारत से यूरोपीय बंदरगाहों की दूरी चार-पाँच हजार मील कम हो गई है; जब यह नहीं बना था तब अफ्रीका के दक्षिण से होकर जहाजों को जाना पड़ता था। उत्तर-पूर्व में लालसागर बीच में रहने के कारण अफ्रीका एशिया महाद्वीप से पृथक् हो गया है। स्वेज बंदरगाह से दक्षिणपूर्व की ओर लगभग १,६०० मील की दूरी पर यह सागर संगीर्ण हो जाता है। यही संकीर्ण भाग 'बाबुल मंडब' का मुहाना है, जिसका अर्थ अरबी भाषा के अनुसार 'आँसू का द्वार' है। इस स्थान पर नाविकों को सशंक एवं सावधान रहना पड़ता है। इसकी चौड़ाई लगभग २० मील है और पेरिम नामक द्वीप द्वारा यहाँ जलमार्ग दो भागों में विभक्त हो जाता है।
समुद्रतट
अफ्रीका का समुद्रतट अधिक कटा-छँटा नहीं है। पश्चिमी तट पर गायना की खाड़ी के रूप में एक बहुत बड़ा घुमाव है जिसके अंतर्गत बेनिन की खाड़ी स्थित है। अंगोला राज्य में लोबिटो की खाड़ी है। दक्षिणी तट पर अल्गोजाए तथा डेलागोआ की खड़ियाँ हैं। दक्षिण-पूर्व में मोजांबिक का मुहाना मडागास्कर द्वीप को अफ्रीका से पृथक् करता है। पूर्वी तट पर एक चौड़ा नतोदर घुमाव है। इस घुमाव के उत्तर-पूर्व में शुमालीलैंड का प्रायद्वीप है जिसे अफ्रीका का सींग भी कहते हैं।
खोज
अफ्रीका का घनिष्ठ संबंध भूमध्यसागरीय देशों के साथ अधिक होना स्वाभाविक है। यह संबंध वंशानुगत, सांस्कृतिक तथा विशुद्ध भौगोलिक रूप में मिलता है। हेरोडोटस के वर्णन से ज्ञात होता है कि मिस्र देश के राजा नेको ने यूनानी दार्शनिकों के इस प्रश्न को हल करने की चेष्टा की कि यह महाद्वीप दक्षिण में सागर द्वारा घिरा है या नहीं। उसने पहले स्वेज स्थल डमरूमध्य पर नहर खुदवाने का असफल प्रयत्न किया। इसके पश्चात् उसने लालसागर में युद्धपोतों का एक बेड़ा तैयार कराया और चुने हुए फीनोशियन नाविकों को इस महाद्वीप की परिक्रमा कर जिब्राल्टर के मार्ग से वापस लौटने की आज्ञा दी। द्वितीय शताब्दी में सिकंदरिया में लिखित अपनी भूगोल की पुस्तक में क्लॉडिअस टॉलिमी ने इस महाद्वीप के उत्तरी भाग का विस्तृत वर्णन किया है। अरब के प्रमुख भूगोलवेत्ता इद्रीसी (११००-११६५) ने भी पूरे महाद्वीप का सविस्तार वर्णन किया है, जिसमें नील नदी के उद्गम स्थान तथा समीपस्थ बड़ी झीलों का भी वर्णन मिलता है। १४वीं तथा १५वीं शताब्दियों में पुर्तगाल-निवासियों ने इस महाद्वीप में अनेक अन्वेषण किए और इस महाद्वीप की लगभग ठीक-ठीक रूपरेखा अंकित की। उस मानचित्र में बड़ी झीलें भी दिखाई गई हैं। आधुनिक युग में मुंगोपार्क, बर्टन, स्पेक तथा लिविंग्स्टन सदृश अनेक साहसी युवकों ने पर्याप्त खोज की है। केप अंतरीप (केप ऑव गुड होप) के निकट से पार होने का सर्वप्रथम श्रेय १४८७ ई. में बार्थोलोमिउ डिआश को प्राप्त हुआ, जिन्होंने अलगोआ की खाड़ी भी देखी थी। इसके दस वर्ष पश्चात् वास्को द गामा और आगे बढ़े तथा अरबसागर पार कर भारत पहुँचने में सफल हुए। उस समय से १९वीं शताब्दी तक नाविकों द्वारा महाद्वीप के तटवर्ती भागों की परिक्रमा होती रही, किंतु इसका अधिकतर भीतरी भाग गुप्त रहस्य ही बना रहा। इसके अनेक भौगोलिक कारण थे। अत: यह महाद्वीप पिछली शताब्दी तक अंध महाद्वीप कहा जाता था।
प्राकृतिक बनावट
इस महाद्वीप की भूरचना तथा प्राकृतिक संरचना अन्य महाद्वीपों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट एवं सरल है। इसका अधिकांश भाग पठारी है, जिसपर भौमिक गतियों (अर्थ मूवमेंट्स) का प्रभाव बहुत कम पड़ा है। पिछले कई युगों से यह एक अचल भूखंड के रूप में स्थित रहा है। इसकी महाद्वीपीय छज्जाए (शेल्फ) एवं महाद्वीपीय ढाल (स्लोप) के किनारे प्राय: इसके समुद्रतट के समांतर हैं, जिससे ज्ञात होता है कि इसका निर्माण पृथ्वी की बाहरी परत के टूटने से हुआ है। इसके धरातल की लगभग एक तिहाई पर कैब्रियनपूर्व चट्टानें वर्तमान हैं। इस महाद्वीप के पश्चिमोत्तर प्रदेश तथा दक्षिण के अंतरीपीय भाग को छोड़कर प्राय: सर्वत्र मुड़ने से बने पर्वतों की श्रेणियों का अभाव है। पश्चिमोत्तर भाग में ऐटलस पर्वत यूरोप के आल्प्स पर्वत का ही एक बढ़ा हुआ भाग है। दक्षिण में अनेक छोटी-छोटी श्रेणियाँ हैं; उदाहरणार्थ रॉगवडबर्ग, निउवेतबर्ग, स्निउबर्ग, ड्राकेंसबर्ग, स्वार्तबर्ग, लॉन्जबर्ग इत्यादि। अफ्रीका के पश्चिमी तट पर स्थित बेंगेला को यदि लालसागर के तट पर स्थित स्वाकिन से एक कल्पित रेखा द्वारा मिलाया जाए, तो यह रेखा इस महाद्वीप को प्राकृतिक बनावट की दृष्टि से दो असमान भागों में बाँट देगी। उत्तरी भाग की औसत उँचाई ३,००० फुट से बहुत कम तथा दक्षिणी भाग की औसत उँचाई ३,००० फुट से बहुत अधिक है। उत्तरी भाग में अनेक पठार हैं जो कैंब्रियन पूर्व या आग्नेय चट्टानों से निर्मित हैं। इनमें अहगर, तसिली, तिबेस्ती तथा दारुर पठार मुख्य हैं। इसके अतिरिक्त इस भाग में अनेक उच्च प्रदेश भी हैं जिनमें कांगो की घाटी का उत्तरी भाग तथा गायना तट के पृष्ठभाग में स्थित उच्च भूमि उल्लेखनीय है। कैमरून की चोटी (१३,३५० फुट) एक प्रमुख ज्वालामुखी शिखर है। गायना की खाड़ी में फर्नंदो पो, प्रिंसिप, साओथोम आदि अनेक द्वीप ज्वालामुखी द्वारा निर्मित हैं। इस उत्तरी भाग में कई प्राकृतिक द्रोणियाँ (बेसिन ) भी हैं जिनमें पहुँचकर नदियों का पानी या तो सूख जाता है या उससे छोटी तथा छिछली झीलें बन जाती हैं। मुख्य खात शॉटेल जेरिद, शाद झील, देबो झील, बहरेल गजल आदि हैं। दक्षिणी भाग में भी गामी तथा कारू नामक दो प्राकृतिक द्रोणियाँ हैं।
पूर्वी अफ्रीका में स्थित एक लंबी निभंग उपत्यका (रिफ़्ट वैली) है जाए महान् निभंग उपत्यका (दि ग्रेट रिफ़्ट वैली) के नाम से विश्वविख्यात है। यह विश्व की सबसे लंबी निभंग उपत्यका है। इसका उत्तरी भाग एशिया में स्थित है तथा बीच के भाग में अकाब की खाड़ी एवं लालसागर है। अफ्रीका में पूर्वी अबिसीनिया की खड़ी ढाल तथा सुमालीलैंड के बीच स्थित निम्न भूमि, रुडॉल्फ झील, केनिया देश की नैवास्का झील तथा अन्य छोटी झीलों की श्रंखला, न्यास झील और शयेर नदी की घाटी इसी महान् निभंग उपत्यका के छिझवशेष हैं। इस निभंग उपत्याका की एक शाखा न्यास झील के उत्तरी छोर के पास से निकलती है, जिसे पश्चिमी निभंग उपत्यका कहते हैं। इसमें टैंगैन्यिका, किबू, एडवड, अल्बर्ट आदि झीलें स्थित हैं। पूर्वी अफ्रीका में पठार की ऊँचाई कई जगह ज्वालामुखी चट्टानों के जमा होने से बढ़ गई है। प्रमुख चोटियाँ किलिमैंजारो (१९,५९० फुट), केनिया (१७,०४० फुट), एल्गन (१४,१४० फुट), तथा रास दाशन (१५,००० फुट) हैं। इस भाग में रुबेंजारी नामक एक १६,७९० फुट ऊँची चोटी है जो ज्वालामुखी द्वारा निर्मित नहीं है। पठार की बाहरी ढाल खड़ी है और वह एक-दूसरे उपकूलीय मैदान से घिरी हैं।
झींलें
अफ्रीका की सबसे बड़ी झील विक्टोरिया न्यांजाए नामक झील है जो नील नदी के उद्गम स्थान के समीप है। इस झील का क्षेत्रफल २६,००० वर्ग मील, अधिकतम लंबाईं २५० मील, चौड़ाई २०० मील तथा गहराई २७० फुट है। इसके निकट ही अल्बर्ट न्यांजाए नामक झील है जाए १०० मील लंबी, २२ मील चौड़ी और ५५ फुट गहरी है। टेंगैन्यिका ४५० मील लंबी और ४० मील चौड़ी झील है इसकी अधिकतम गहराई ४,७०८ फुट है। दूसरी लंबी एवं सँकरी झील न्यासा है। (३५० मील लंबी, ४५ मील चौड़ी)। किबू झील ५५ मील लंबी तथा ३० मील चौड़ी है। यह झील पुरातन ज्वालामुखी प्रदेश में स्थित है। अबिसीनिया पठार के उत्तरी भाग में ५,६९० फुट की उँचाई पर स्थित टाना झील आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। रुडोल्फ झील पूर्वोत्तर अफ्रीका में स्थित है। इसकी लंबाईं १८५ मील तथा चौड़ाई ३७ मील है। रुडोल्फ झील के पूर्व में स्टेफनी झील ४० मील लंबी और १५ मील चौड़ी है। पश्चिमोत्तर मध्य अफ्रीका में चाउ तथा रोडेशिया में बैंगविऊलू नामक छिछली झीलें हैं। इनके क्षेत्रफल में ऋतुओं के अनुसार ्ह्रास तथा वृद्धि हुआ करती है। बैंगबिऊलू झील की अधिकतम माप ६० मीलव्४० मीलव्१५ फुट है। चाउ झील में शारी नदी गिरती है। वर्षाऋतु में इस झील की गहराई २४ फुट हो जाती है।
नदियाँ
अफ्रीका में पाँच मुख्या नदियाँ हैं: नील (४,००० मील), नाइजर (२,६०० मील), कांगो (३,००० मील), ज़ाबेजी (१,६०० मील) तथा ऑरेंज (१,३०० मील) है। इनमें नील नदी प्रमुख है। सभ्यता के ऊषाकाल (लगभग ४,००० ई.पू.) से ही इस नदी का ऐतिहासिक महत्व प्रकट होता है। ईसा से लगभग चार शताब्दी पूर्व यूनानी दार्शनिक अरस्तू ने नील नदी की वार्षिक बाढ़ का संबंध अबिसीनिया की ग्रीष्मकालीन वर्षा एवं हिम के द्रवीभूत होने से बताया था। नील नदी में छह प्राकृतिक जलप्रपात हैं। सबसे निचला प्रपात असवान के समीप है। इस नदी पर कई बाँध बनाए गए हैं जिनमें असवान बाँध सर्वोच्च और जगतप्रसिद्ध है। सोबत, नीली नील तथा अतवरा नदियाँ नील नदी की मुख्य सहायक हैं। कांगो नील नदी से लगभग १,००० मील छोटी है, किंतु इसमें अपेक्षाकृत जलराशि का वहन अत्यधिक होता है। अपनी सहायक नदियों के साथ कांगों नदी अफ्रीका के मध्य में यातायात का उत्तम साधन है। पश्चिमी अफ्रीका में नाजर नदी तथा उसकी सहायक बेनू के कारण प्रशस्त जलमार्ग उपलब्ध है। पश्चिमी भाग की छोटी नदियों में सेनेगाल तथा गैबिया उल्लेखनीय हैं। ज़ाबेज़ी और आरज दक्षिणी अफ्रीका की मुख्य नदियाँ हैं। इस महाद्वीप की अधिकांश नदियाँ विशालकाय होते हुए भी यातायात के लिए उपयुक्त नहीं हैं। कांगो नदी का एल्लाला प्रपात ज़ाबेजी का विक्टोरिया प्रपात, नाइजर का बुसा प्रपात तथा नील नदी के अनेक प्रपात आवागमन में बाधक होते हैं।
जलवायु
अफ्रीका की जलवायु पर समीपस्थ महासागरों तथा महाद्वीपों का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है। एशिया महाद्वीप का प्रभाव इसपर अपेक्षाकृत अधिक पड़ता है। समुद्री जलधाराएँ भी उपकूलीय प्रदेशों में अपना प्रभाव डालती हैं। पश्चिमी तट पर उत्तर में कैनरी तथा दक्षिण में बेंगुएला नामक ठंडी जलधाराएँ बहती हैं। इन दोनों धाराओं के मध्य गायना तट के निकट गायना नामक उष्ण जारा बहती है। दक्षिण पूर्व में मोज़ांबिक धारा उल्लेखनीय है। इस महाद्वीप को जलवायु के विचार से अनेक भागों में विभक्त किया जा सकता है। अफ्रीका की निजी विशेषता यह है कि उत्तरी अफ्रीका की जलवायु के अनुरूप ही दक्षिणी अफ्रीका में भी जलवायु पाई जाती है। मुख्यत: पॉच प्रकार की जलवायु यहाँ पाई जाती है---विषुवतीय जलवायु, सूडान सदृश उष्ण जलवायु, उष्ण मरुस्थलीय जलवायु, भूमध्यसागरीय जलवायु और चीन सदृश जलवायु। अफ्रीका में विषुवतीय जलवायु के भी तीन प्रभेद पाए जाते हैं---मध्य अफ्रीका सदृश, गायना सदृश और पूर्व अफ्रीका सदृश। मध्य अफ्रीका सदृश जलवायु कांगो क्षेत्र में ५° द.अ. के उत्तर में पाई जाती है। ताप वर्षभर लगभग ८०° फा. रहता है। वर्षा साल भर होती रहती है, पर अप्रैल या अक्टूबर में वर्षा अधिक होती है। इस क्षेत्र की वर्षा का वार्षिक योग ५०² से ६०² है। आपेक्षिक आर्द्रता बारहों महीने ऊँची रहती है। कांगो नदी के मुहाने के समीप शीत जलधारा तथा स्थलीय वायु के कारण वर्षा लगभग ३०² ही होती है। गायना सदृश जलवायु गायना के उपकूलीय भाग तथा उसके पृष्ठभाग में पाई जाती है। यह जलवायु प्रदेश सियेरा लियोन से लेकर कैमरूप तक ८° उ.अ. के दक्षिण में है। इस जलवायु में कुछ मामूली लक्षण पाए जाते हैं। वर्ष भर ताप ७५° से उँचा रहता है। आपेक्षिक आर्द्रता भी उँची रहती है। वर्षा अधिक होती है। ग्रीष्मकाल में वायु कूलोन्मुख चलती है और शीतकाल में इसकी गति विपरीत हो जाती है। फलत: ग्रीष्मकाल में ही वर्षा अधिक होती है। उदाहरणार्थ, फ्रोटोउन में पूरे वर्ष की वर्षा १७०² है, किंतु दिसंबर से लेकर फरवरी तक केवल ३² ही वर्षा होती है। सबसे अधिक वर्षा (४००² ) कैमरून पर्वत के पश्चिमी ढाल पर होती है। शीतकल में बहनेवाली ठंडी एवं अपेक्षाकृत शुष्क वायु स्वास्थ्यवर्धक होती है। पूर्वी अफ्रीका सदृश जलवायु पठारी भाग ३° उ.अ. से ५° द.अ. तक मिलती है। पठार की उँचाई अधिक (४,००० फुट) होने के कारण तापमान कम रहता है। वार्षिक तापांतर भी कम रहता है। दैनिक तापांतर अधिक होता है। वर्षा का वार्षिक योग लगभग ४५² है। प्रतिवाती ढालों पर वर्षा ६०² से ² तक होती है, किंतु अनुवाती ढालों पर अपेक्षाकृत कम (लगभग 20² ) होती है। निभंग उपत्यका में वर्षा 30² से अधिक नहीं होती।
सूडान सदृश जलवायु विषुवतीय भाग के उत्तर में लगभग 600 मील चौड़े कटिबंध पाई जाती है। इसका अधिकतम ताप लगभग 90° फा. है। मासिक ताप का मध्यम मान 70° फा. से कम नहीं रहता। वार्षिक तापांतर 15° फा. से 20° फा. तथा दैनिक तापांतर अत्यधिक होता है। शीतकाल में उ.पू. वाणिज्य वायु तथा ग्रीष्मकाल में द.प. मानसूनी वायु बहती है। वर्षा मानसुनी वायु से होती है। इस पेटी के दक्षिणी भाग में वर्षा 40² से 50² तथा उत्तरी भाग में 8² से 10² होती है। दक्षिण से उत्तर की ओर वर्षा की मात्रा, अवधि तथा निर्भरता का क्रमिक ्ह्रास होता जाता है। शीतकाल में हरमटन नामक शुष्क वायु बहती है, जिसके परिणामस्वरूप आपेक्षिक आर्द्रता लगभग 25 प्रतिशत हो जाती है। वाष्पीकरण की तीव्रता के कारण पर्याप्त मात्रा में होने वाली वर्षा का भी मूल्य मनुष्य के लिए घट जाता है। अबिसीनिया में उँचाई अधिक होने से ताप कम रहता है। वर्षा, गायना की खाड़ी तथा हिंद महासागर, दोनों से आनेवाली आर्द्र हवा से होती है, दक्षिणी तथा दक्षिणी पश्चिमी भागों में 60² से अधिक होती है,किंतु उत्तरी तथा पूर्वी भागों की दशा मरुभूमि तुल्य है। दक्षिणी अफ्रीका सूडान सदृश जलवायु कांगो क्षेत्र से दक्षिण तथा मकर रेखा से उत्तर पाई जाती है। प्रायद्वीपीय भाग के कारण यहाँ महासागरीय प्रभाव अधिक है। ऊँचाई का भी प्रभाव पड़ता है। ग्रीष्मकाल में औसत तापमान 82° फा. तथा शीतकाल 60° फा. रहता है। शीतकाल में आकाश स्वच्छ रहता है तथा आर्द्रता कम होती है। वर्षा ग्रीष्मकाल में होती है। वर्षा की मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर घटती जाती है। पूवी उपकूलीय भाग में मोज़ांबिक जलधारा का प्रभाव उपेक्षणीय है।
उष्ण मरुस्थलीय जलवायु का क्षेत्र 18° उ.अ. के उत्तर में अंध महासागर से लालसागर तक विस्तृत है। इसके भी दो विभाग हैं_सहारा सदृश तथा उपकूलीय मरुभूमि सदृश। सहारा सदृश जलवायु समुद्र से दूरस्थ भागों में पाई जाती है। ग्रीष्मकाल के अपराह्न में 120° फा. हो जाता है। शीतकाल में औसत ताप 60° फा. रहता है। आकाश निर्भेद्य रहने के कारण दैनिक तापांतर वर्ष भर लगभग 50° फा. रहता है। आपेक्षिक आर्द्रता 30% से 50% तक रहती है। वर्षा अत्यल्प होती है। उपकूलीय मरुभूमि सदृश जलवायु उत्तरी अफ्रीका के पश्चिमी उपकूलीय भाग में, दक्षिण अफ्रीका के कालाहारी प्रदेश में तथा शूमालीलैंड के उपकूलीय भाग में पाई जाती है। इन प्रदेशों में समुद्री प्रभाव के कारण ताप घट जाता है। दैनिक तापांतर कम तथा आपेक्षिक आर्द्रता अधिक रहती है। वर्षा लगभग ५² होती है।
भूमध्यसागरीय जलवायु पश्चिमोत्तर अफ्रीका तथा प्रायद्वीपीय अफ्रीका के दक्षिणी छोर पर लगभग 35° अ. के बाहर पाई जाती है। इस जलवायु की मुख्य विशेषता यह है कि वर्षा शीतकाल में होती है और ग्रीष्मकाल शुष्क होता है। ताप ग्रीष्म में लगभग 75° फा. तथा शीतकाल में 45° फा. से ऊपर हरता है। वर्षा की मात्रा स्थल की प्राकृतिक बनावट पर निर्भर रहती है। चीन सदृश जलवायु अफ्रीका के दक्षिणपूर्व में पाई जाती है। समुद्री प्रभाव के कारण जलवायु समोष्ण बनी रहती है। वार्षिक तापांतर अधिक नहीं हो पाता। पर्वतीय भागों में ताप अपेक्षाकृत कम रहता है। वर्षा ग्रीष्मकाल में होती है और उसकी मात्रा पूर्व से पश्चिम की ओर क्रमश: घटती जाती है। आपेक्षिक आर्द्रता अधिक रहती है।
मिट्टी
अफ्रीका की मिट्टी का अध्ययन अभी तक पर्याप्त रूप से नहीं हो पाया है। अमरीका के श्री सी.एफ. मार्बट ने पहले पहल अफ्रीका की मिट्टियों के प्रकार तथा उनका वितरण बताने की चेष्टा की। १९२३ ई. में उनके निश्चयों का सारांश प्रकाशित हुआ। अफ्रीका के अयनवृत्तीय भाग में प्राय: सर्वत्र लाल दोमट पाई जाती है। उष्ण मरुस्थलीय भाग की मिट्टी में जीवांश (ह्यूमस) कम पाया जाता है और मिट्टी का रंग फीका होता है। कहीं-कहीं क्षारमिश्रित ऊसर भी मिलता है। ट्रांसवाल की निम्नभूमि तथा दक्षिणी रोडेशिया में चर्नोज्ञेम नामक काली मटियार मिट्टी पाई जाती है। इसमें जीवांश की मात्रा अधिक होती है। इस मिट्टी की एक मेखला उत्तरी अफ्रीका के सूडान राज्य के मध्य में भी मिलती है। ऑरेंज फ्री स्टेट तथा ट्रांसवाल के निकटवर्ती उच्च प्रदेशों में गाढ़े भूरे रंग की उपजाऊ मिट्टी पाई जाती है। उत्तर में सूडान के अधिकांश भाग में यही मिट्टी मिलती है। शीतकालीन वर्षावाले क्षेत्रों (केप प्रांत के पश्चिमी भाग तथा ऐटलस पर्वतीय प्रदेश) में भूरे रंग की दोमट अधिक है। नेटाल तथा केप प्रांत के पूर्वी ढालों पर दोमट पाई जाती है। नील नदी की घाटी की मिट्टी अत्यधिक उपजाऊ है।
प्राकृतिक वनस्पति
प्राकृतिक वनस्पतियों की संख्या में अफ्रीका संसार में अद्वितीय है। विषुवतीय प्रदेश, अधिक ताप तथा वर्षा के कारणा, सदाहरित घने जंगलों से आच्छादित है। इसका विस्तार अव्यवस्थित रूप में गैंबिया के मुहाने से लेकर कांगो क्षेत्र तक मिलता है। गायना तट के मध्य भाग तथा कांगो की घाटी के निचले भाग में इन वनों का अभाव उल्लेखनीय है। पूर्वी अफ्रीका के अयनवृत्तीय भाग तथा मैडागैस्कर द्वीप के पूर्वी, उपकूलीय भाग में भी ऐसे वन पाए जाते हैं। इन वनों के वृक्ष अधिक उँचे और घने होते हैं। इनके नीचे छोटे-छोटे पौधे भूमि को पूर्णत: ढक लेते हैं। महोगनी, नारियल तथा रबर मुख्य वृक्ष है।
विषुवतीय वनस्थली के उत्तर तथा दक्षिण में घास का सावैना नामक विस्तृत क्षेत्र है। यहाँ अधिक वर्षावाले भाग में लबी घास के साथ-साथ, वृक्ष भी उग आते हैं, किंतु वर्षा की कमी के साथ वृक्षों की संख्या भी घटने लगती है। मरुस्थल के निकट बबूल तथा अन्य काँटेदार झाडियाँ अधिक मिलती हैं और घास भी लंबी नहीं होती। सावैना मंडल में मुख्य वृक्ष बाओबब है। दक्षिणपूर्व अफ्रीका में घास का वेल्ड नामक समशीतोष्ण मैदान पाया जाता है। यहाँ घास सावैना घास की अपेक्षा छोटी होती है। अबिसीनिया, मैडागैस्कर तथा पूर्वी अफ्रीका के ऊँचे पठारों पर भी घास के मैदान पाए जाते हैं। भूमध्यसागरीय जलवायुवाले प्रदेशों में जैतून (ऑलिव) और रसीले फलों के वृक्ष तथा कुछ झाडियाँ मिलती हैं। मरुस्थली भाग वनस्पति से प्राय: शून्य हैं। मरूद्यानों में कुछ काँटेदार झाड़ियाँ और खजूर के वृक्ष दिखाई पड़ते हैं।
वनजंतु
विषुवतीय वन कीड़े मकोड़ों तथा पक्षियों से भरा है। बृहत्काय जंतु नदियों, दलदलों तथा घने वनों के अंचल में अधिक हैं। इनमें हाथी, दरियाई घोड़े, गैंडे, मगर, घड़ियाल, इत्यादि मुख्य हैं। पेड़ की डालियों पर वास करनेवाले बैबून, गोरिल्ला, चिंपैंजी आदि नाना जाती के बंदर यहाँ पाए जाते हैं। सवैना मंडल वन्य पशुओं का भांडार है। घास के इस खुले मैदान में जिराफ, जेबरा, बारहसिंगा आदि तीव्रगामी पशु स्वच्छंद विहार करते हैं। इन अहिंसक पशुओं पर जीनवाले सिंह, चीते, तेंदुए, लकड़बग्घे, बनैले सूअर आदि शिकारी जंतु भी पाए जाते हैं। शुतुर्मुर्ग नाम का एक विचित्र पक्षी भी मिलता है। जंगली जीवों से उपलब्ध होनेवाली वस्तुओं में शुतुर्मुर्ग का पर तथा हाथीदाँत मुख्य हैं। हाथीदाँत के लाभदायक व्यापार के लालच से ही अरब के व्यापारी इधर अधिक आकर्षित होकर प्रविष्ट हुए थे। जंगलों में अजगर भी मिलते हैं। अफ्रीका का अजगर विषैला होता है। इन जंतुओं के अतिरिक्त मलेरिया तथा पीला ज्वर सदृश भयानक रोग फैलानेवाले मच्छड़, टसेट्सी मक्खी और अनेक प्रकार के जहरीले कीड़ों तथा चींटियों के लिए अफ्रीका कुख्यात है।
खनिज संपत्ति
अफ्रीका के कुछ भाग खनिज संपत्ति से संपन्न हैं। यूरोप निवासियों तथा अफ्रीका के आदिवासियों के बीच संबंध स्थापित करने में बेलजियन कांगो स्थित कटंगा की बाँबेवाली खान तथा दक्षिणी अफ्रीका की सोने और हीरे की खानों का प्रमुख हाथ रहा है। सहारा मरुभूमि में ऊँटों का लंबा कारवाँ वहाँ पाए जानेवाले नमक के व्यापार के लिए ही जाता था। अफ्रीका में कोयले, पेट्रोलियम, सीसे तथा जस्ते की कमी है, किंतु हीरा, सोना, मैंगनीज, ऐल्युमीनियम, प्लैटिनम तथा राँगा प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं। संसार का प्रमुख ताँबा उत्पादक क्षेत्रअफ्रीका में ही है। यह बेलजियन कांगो से रोडेशिया तक, 200 मील लंबी मेखला के रूप में, फैला हुआ है। लोहा उत्तरी तथा दक्षिणी दोनों भागों में पाया जाता है। अलजीरिया, मोरक्को तथा ट्यूनीशिया की खानें उत्तरी भाग में लौह के उत्पादन के लिए अधिक प्रसिद्ध हैं। मैडागैस्कर द्वीप में कोयले के अविकसित क्षेत्र हैं। यहाँ अभ्रक, सोना तथा रत्न भी निकलते हैं। संयुक्त राज्य (अमरीका) द्वारा उत्पादित लोहे के १८वें भाग के बराबर लोहा अफ्रीका में निकाला जाता है। संसार का 20 प्रतिशत मैंगनीज तथा १६ प्रतिशत ताँबा इस महाद्वीप में उत्पन्न होता है। मैंगनीज़ की मुख्य खान घाना देश के सिकंडी बंदरगाह से 34 मील दूर स्थित है। पूर्वी भाग के नेटाल राज्य में कोयले की खानें हैं। अफ्रीका संसार में कोबाल्ट का सबसे बड़ा उत्पादक है।
सिंचाई
विषुवतीय प्रदेश तथा उसके समीपस्थ सावैना मंडल के पर्याप्त वृष्टिवाले भाग को छोड़कर अफ्रीका के अधिकांश भाग में सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है। जहाँ सिंचाई की व्यवस्था नहीं है, वहाँ कृषि का विकास पूर्ण रूप से नहीं हो पाया है। अल्प वृष्टिवाले प्रदेशों में पशुपालन भी जल की सुलभता पर ही आश्रित है। नील नदी की घाटी में सिंचाई का समुचित प्रबंध किया गया है। असवान तथा सेनार सदृश विशाल बाँध इसके ज्वलंत प्रमाण हैं। ऐंग्लो ईजिप्शियन सूडान के प्रायद्वीप में तथा मिस्र देश के निचले भाग में सिंचाई के बिना रुई की खेती कदापि संभव नहीं थी। दक्षिणी अफ्रीका में भी सिंचाई की आवश्यकता अधिक थी और इस बात पर अधिक ध्यान दिया गया है। इस भाग में स्थित वालबैंक जलाशय, जिससे लगभग एक लाख एकड़ जमीन सींची जाती है, दक्षिणी गोलार्ध का सबसे बड़ा सिंचाई का साधन माना जाता है। पश्चिमोत्तर अफ्रीका में फ्रांसीसी सरकार ने सिंचाई की व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया है। अलजीरिया तथा ट्यूनीशिया के दक्षिणी भागों में पातालतोड़ कूपों का निर्माण हुआ है। अलजीरिया की शेलिफ नदी की घाटी में दो सिंचाई योजनाएँ बनी हैं। नाइजेरिया के उत्तरी भाग में कुओं से सिंचाई होती है। नाइजर तथा वोल्टा नदियों पर बनाए गए बाँजाऐं से पश्चिमी अफ्रीका में सिंचाई का अच्छा प्रबंध हो गया है। मोरक्को देश में इस दिशा में कुछ विकास हुआ है। पूर्वोत्तर अफ्रीका के इरीट्रिया देश के अंतर्गत भी नदियों का पानी सिंचाई के काम में लाया जाता है।
कृषि
अफ्रीका के अधिकांश भाग में कृषि प्राचीन ढंग से की जाती है। वहाँ के आदिवासी अपने आवश्यकतानुसार अन्न उपजाते हैं। मक्का, ज्वार तथा बाजरा उनके मुख्य खाद्याझ हैं। उनके खेतों में स्त्रियाँ पुरुषों की भाँति कठोर परिश्रम करती हैं। ये लोग कृषि के आधुनिक ढंग से प्राय: अनभिज्ञ हैं। वे खेतों में बाजारू खाद का प्रयोग नहीं करते। जहाँ विदेशी भूमिपतियों की देखरेख में खेती की जाती है, वाहँ अफ्रीका के आदिवासी मजदूरों के रूप में परिश्रम करते हैं। ये भूमिपति लाभप्रद शस्यों को उपजाने पर विशेष और मोटे अन्न पर अपेक्षाकृत कम ध्यान देते हैं।
अफ्रीका में पैदा होनेवाले कुछ पौधे तो वहाँ अनादि काल से पाए जाते हैं, उदाहरणार्थ नील, रेंड़ी, तथा कहवा; किंतु कुछ पौधे विदेशियों द्वारा बाहर से लाकर भी लगाए गए हैं। केला, कटहल, नारियल, खजूर, अंजीर, सन, जैतून, ज्वार, बाजरा, गन्ना तथा जान संभवत: यहाँ एशिया महाद्वीप से लाए गए और मक्का, कसावा, मूंगफली, शकरकंद, अरुई, सेम, पपीता तथा अमरूद व्यापारियों द्वारा अमरीका से आकर पश्चिमी अफ्रीका में लगाए गए। तंबाकू भी अमरीका से ही लाया गया।
विषुवतीय प्रदेश में जुगल को स्वच्छ कर कहीं-कहीं जान, गझा, अरुई, शकरकंद, मूंगफली, केला, कोको तथा कसावा नामक कंद की खेती की जाती है। सावैना मंडल की मुख्य उपजें मक्का, ज्वार तथा बाजरा हैं। शीतकाल में गेहूँ तथा औ की खेती होती है। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं मूंगफली और रुई भी उपजाएई जाती है। वेल्डवाले भाग में मक्का, तंबाकू, गेहूँ, जौ तथा जई की खेती होती है। सिंचाई की सहायता से रसदार फलों के वृक्ष भी लगाए जाते हैं। मरुस्थलीय भागों में बिना सिंचाई के कुछ भी पैदा नहीं होता। मरूद्यानों की मुख्य उपज खजूर तथा गेहूँ है। नील नदी की घाटी रुई की खेती के लिए विश्वविख्यात है। भूमध्यसागरीय प्रदेशों में गेहूँ की खेती होती है और अंगूर, सतालू, संतरा सदृश रसदार फल तथा जैतून के वृक्ष लगाए जाते हैं।
पशुपालन
मिस्र देशवासियों को संभवत: 3,500 ईसवी पूर्व से ही ऊँटों की जानकारी है, किंतु लगभग 325 ईसवी पूर्व तक वे ऊँटों का व्यवहार नहीं करते थे। परंतु घोड़ों का व्यवहार वे लगभग ढाई हजार ईसवी पूर्व से जानते हैं। जंगल तथा मरुस्थल के मध्यस्थ खुले भागों में घोड़ों का व्यवहार लड़ाई के काम में किया जाता था। गोपालन दूध, मांस और चमड़े के उत्पादन के लिए तथा कहीं-कहीं धार्मिक विचार से अधिक महत्वपूर्ण है। उत्तरी तथा पश्चिमोत्तर अफ्रीका में खच्चरों का व्यवहार अधिक हाता है। मुसलमानों को छोड़कर अन्य सभी धर्मावलंबी सूअर पालते हैं। बकरियाँ प्राय: सभी गाँवों में पाई जाती हैं। भेड़ें विशेषकर दक्षिणी अफ्रीका में पाली जाती हैं। बेल्जियन कांगो में अपि के पास जंगलों में काम करने के लिए हाथी पाले गए हैं।
सावैना मंडल, वेल्ड क्षेत्र तथा उच्च पठारी घास के मैदान पशुपालन के लिए उपयुक्त हैं। कहीं-कहीं जल की समस्या उत्पन्न होती है, किंतु कूओं तथा कृत्रिम जलाशयों का निर्माण करके यह समस्या अधिकांश भाग में हल की जा चुकी है। मरुस्थलों के अंचलीय भागों मे अभी यह समस्या वर्तमान है और व्यावसायिक पशुपालन में बाधक सिद्ध होती है। मरुस्थलीय भागों में ऊँट, उत्तर के सावैना मंडल में गाय और घोड़े तथा पूर्वी, दक्षिणी और पश्चिमोत्तर अफ्रीका में भेड़ तथा बकरियाँ मुख्य पालित पशु हैं।
उद्योग-धंधे
उद्योग धंधों की दृष्टि से अफ्रीका पिछड़ा हुआ महाद्वीप है। आधुनिक युग के उद्योगों का विकास अभी यहाँ नहीं हो पाया है। इसके मुख्य कारण हैं आवागमन के साधनों की असुविजाए, कुशल कारीगरों की कमी तथा कोयला जैसे ईधंन का असमान वितरण। इस महाद्वीप में जलविद्युत् की संभावना बहुत अधिक है (संसार की लगभग ४० प्रतिशत), किंतु इसका विकास पर्याप्त रूप से नहीं हो पाया है। अब धीरे-धीरे अफ्रीका के विभिझ भागों में कल-कारखाने खुल रहे हैं और इस दिशा में विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
मिस्र देश में सूती-वस्त्र उद्योग का विकास हुआ है। यहाँ सूत कातने तथा सूती कपड़े बुनने के अनेक कारखाने हैं। इसके अतिरिक्त आटा, तेल, चीनी, सिगरेट, सीमेंट तथा चमड़े के भी कई कारखाने हैं। खजूर का फल डब्बों में बंद करके बाहर भेजना यहाँ का एक मुख्य धंजाए है। दक्षिणी अफ्रीका में ईधंन सस्ता है। यहाँ औद्योगिक विकास अन्य भागों की अपेक्षा अधिक हुआ है। प्रिटोरिया में लोहा तथा इस्पात का एक आधुनिक कारखाना है। दक्षिणी अफ्रीका में सीमेंट, साबुन, सिगरेट, वस्त्र, रेल संबंधी सामग्री तथा विस्फोटक पदार्थ बनाने के अनेक कारखानें हैं। इस भाग के बंदरगाहों में मछली मारने का उद्योग भी उल्लेखनीय है। युगांडा में ओवेन-प्रपात-बाँध के उद्घाटन के साथ ही उस देश के औद्योगिक विकास का मार्ग खुल गया। वस्त्र तथा सीमेंट के उद्योग आरंभ हो गए हैं। बेल्जियन कांगो में भी औद्योगिक विकास हो रहा है। वहाँ नारियल के तेल के अनेक कारखाने हैं। इनके अतिरिक्त वस्त्र, साबुन, चीनी तथा जूते बनाने के कारखाने भी खुले हैं। इस औद्योगिक विकास का मुख्य कारण उस क्षेत्र में जलविद्युत् का विकास है। विषुवतीय प्रदेश में लकड़ी चीरने का उद्योग तीव्रता से बढ़ रहा है।
परिवहन के साधन
अफ्रीका में परिवहन के सुगम साधनों का प्राय: अभाव है। कुछ ही भागों में इनका विकास हो पाया है। अधिकांश में सामान ढोने के प्राचीन साधनों का ही व्यवहार होता रहा है। नील नदी में नाव, मध्य अफ्रीका में डोंगी तथा मजदूर, मरुस्थलों में ऊँट, ऐटलस प्रदेश में खच्चर तथा दक्षिणी अफ्रीका में बैलगाड़ी से बोझ ढोने का काम लिया जाता है। इन साधनों से वर्तमान युग की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती। अत: पक्की सड़कें तथा रेलमार्ग बनाने पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा है। रेलमार्ग बनाने में इस महाद्वीप में अनेक प्राकृतिक बाधाएँ उपस्थित होती हैं। अब तक अफ्रीका में रेलमार्ग का क्रमहीन ढाँचा मात्र खड़ा हुआ है, अन्यान्य देशों की भाँति इसका जाएल नहीं बिछ पाया है। दक्षिणी तथा पश्चिमोत्तर अफ्रीका, विषुवतीय प्रदेश तथा नील नदी की निचली घाटी में रेल की कई लाइनें बिछ गई हैं। सबसे अधिक विकास दक्षिणी अफ्रीका में हुआ है। केप ऑव गुड होप से जाए लाइन पूर्वी पठारी प्रदेश को पार करती हुई उत्तर की ओर बढ़ गई है वह केप-कैरो-लाइन के नाम से विख्यात है, किंतु मिस्र तथा सूडान की मध्यस्थ सीमा के पास विच्छिझ होने के कारण इसका नाम सार्थक नहीं है। बड़ी नदियाँ, जिनमें सैकड़ों मील तक छोटे जहाज चलते हैं, इस महाद्वीप के भीतरी भागों के लिए सुगम जलमार्ग हैं। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में स्वेज नहर का अद्वीतीय महत्व है। उपकूलीय भागों में समुद्री मार्ग से व्यापार होता है। अफ्रीका के समुद्री कूल पर कुछ महत्वपूर्ण बंदरगाह स्थित हैं, जिनमें पोर्ट सईद, सिकंदरिया, त्रिपोली, अल्जियर्स, डकार, अका, मोसामेद्स, केपटाउन, पोर्टऐलिजाएवेथ, डरबन, लॉरेंसो मार्क्स, जंजीबार, मोंबासा, स्वेज इत्यादि मुख्य हैं। इस महाद्वीप में वायुमार्ग की व्यवस्था अच्छी है। लंबी दूरी तथा अन्य सुगम साधनों के अभाव के कारण ही इसका इतना विकास हुआ है। कैरो, खार्तूम, नैरोबी, जाएहान्सबर्ग, एलिजाएबेथविल, लियोपोल्सदविल, कानो, डकार, अल्जियर्स इत्यादि वायुमार्ग के मुख्य केंद्र हैं।
व्यापार
अफ्रीका का अंतरराष्ट्रीय व्यापार मुख्यत: यूरोप के औद्योगिक देशों के साथ है। पिछली शताब्दियों में यह महाद्वीप गुलामों की बिक्री के लिए प्रसिद्ध था। इसके गुलामों का मुख्य ग्राहक संयुक्त राज्य (अमरीका) था। इस समय अफ्रीका विशेषकर कच्चा पदार्थ विभिन्न देशों निर्यात करता तथा विदेशों में निर्मित पदार्थें का आयात करता है। यहाँ से निर्यात होनेवाले पदार्थों में सोना, मैंगनीज, कोबाल्ट, ताँबा, निकल, फॉस्फेट, रबर, कोको, नारियल का तेल, कपास, फल, गोंद, ऊन, हाथीदाँत, शुतुर्मुर्ग के पर इत्यादि मुख्य हैं। विदेशों से कल पुर्जे, मोटर गाडियाँ, रेल के इंजन, दवाएँ, कृत्रिम खाद, छोटे जहाज, वायुयान, लड़ाई के हथियार इत्यादि आयात किए जाते हैं।
इस महाद्वीप की कुल अनुमित जनसंख्या लगभग 27 करोड़ और जनसंख्या घनत्व 23 व्यक्ति प्रति वर्गमील है।
निवासी
अफ्रीका के निवासियों में प्रमुख स्थान यहाँ के आदिवासियों का है। इनमें हबशी, हमाइट, शामी (सेमाइट), बौने, बुशमेन, हॉटेंटॉट तथा मसानी मुख्य जातियाँ हैं। शारीरिक बनावट तथा मुखाकृति की दृष्टि से हबशियों की कई उपजातियाँ मानी जाती हैं, किंतु पश्चिमी अफ्रीका का हबशी पूरे समुदाय का प्रतिरूप माना जाता है। उसका शरीर भरकम, कद साधारण या ऊँचा, सिर लंबा, नाक चौड़ी, होंठ मोटे, निचला जबड़ा कुछ आगे निकला हुआ, रंग गाढ़ा भूरा (करीब-करीब काला) और बाल काला तथा घुंघराला होता है। मध्यकांगो क्षेत्र के हबशी का कद साधारण या छोटा तथा सिर चौड़ा होता है। नील नदी के उद्गम के आसपास बसनेवाले नीलोटिक हबशी लेंबे कद (लगभग 6' 6)के होते हैं। हमाइट जाती के लोगों का शरीर दुर्बल, रंग हल्का, बाल सीधे या घुंघराले, नाक पतली तथा होंठ पतले होते हैं। इस जाती के लोग सहारा तथा पूर्वोत्तर अफ्रीका में पाए जाते हैं। जहाँ इनका संबंध हबशियों के साथ हो गया वहाँ हबशी जाती के कुछ लक्षण इनमें भी स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं।
अफ्रीका के उत्तरी तथा पूर्वी भाग में रहनेवाले लोग शामी जाती के हैं। इनका रंग हल्का भूरा, हमाइटों की तरह ही नाक और होंठ पतले होते हैं। साँवले रंग के अतिरिक्त इनके अन्य सभी लक्षण काकेशस की गोरी जाती के समान ही हैं। हमाइट तथा शामी दोनों जातियों के मनुष्य हबशी गुलामों को बेचने का व्यापार करते थे।
बेल्जियन कांगो क्षेत्र के पूर्वोत्तर प्रदेश में बौने निवास करते हैं। इनका शरीर सुगठित होता है और ये चतुर शिकारी होते हैं। इनका सिर बड़ा, गर्दन छोटी, धड़ लंबा, पैर छोटे तथा हाथ पाँव पतले होते हैं। इनकी चाल में डगमगाहट रहती है। इनकी औसत ऊँचाई ४फ़फ़ ६फ़फ़ होती है। स्त्रियाँ इससे भी छोटी होती हैं। इनकी नाक अधिक चौड़ी होती है। ये चौकन्ने दिखाई पड़ते हैं। इनका रंग हबशियों की तरह काला नहीं होता, बल्कि पीलापन लिए हुए कुछ भूरा होता है।
बुशमेन दक्षिणी अफ्रीका में कालाहारी में रहते हैं। इनका कद छोटा और शरीर की बनावट हबशियों से भिन्न होती है। इनका सिर लंबा, हाथ पैर घड़ की अपेक्षा छोटे तथा बात घुंघराले होते हैं। हॉटेंटॉट के शरीर की बनावट भी बुशमैन की तरह होती है किंतु बुशमैन की अपेक्षा इनकी ऊँचाई अधिक, सिर लंबा और सिर के ऊपरी भाग का चपटापन कम होता है। इनके जबड़े आगे की ओर अधिक निकले होते हैं। पूर्वी अफ्रीका के पठारी प्रदेश में मसाबी लोग पशुपालन द्वारा अपनी जीविका अर्जित करते हैं। उपर्युक्त निवासियों के अतिरक्ति भारतीय लोग तथा कई स्वार्थसाधक विदेशी भी यहाँ अधिक संख्या में आ बसे हैं।
अफ्रीका के देश
अफ्रीका का राजनीतिक मानचित्र रंगबिरंगा दिखाई पड़ता है। देशों की इतनी अधिक संख्या किसी अन्य महाद्वीप में नहीं मिलती। इसका मुख्य कारण है यूरोपीय राष्ट्रों की स्वार्थपरता, जिन्होंने आपनी स्वार्थसिद्धि के लिए इस महादेश के टुकड़े कर आपस में बाँट लिया है और इसकी प्राकृतिक संपत्ति का उपयोग कर स्वयं समृद्धिशाली बन गए हैं। अफ्रीका के देशों की सूची निम्नलिखित है:
मोरक्को, स्पैनिश मोरक्को, अल्जीरिया, टयुनीशिया, स्पैनिश सहारा, मौरितानिया, माली, नाइज्र, सेनेगाल, गायना, आइवरी कोस्ट, अपरवोल्टा, टोगो, दहोमी, पिगैंया, पुर्तगीज गायना, सियरा लियोन, लाइबेरिया, घाना, नाइजेरिय, चाद (शाद), कैरून, मध्य अफ्रीका गणतंत्र, कांगो, स्पैनिश गायना, लीबिया, संयुक्त अरब गणराज्य, सूडान, इथिओपिया, फ्रेंच शूमाली लैंड, शुमाली गणतंत्र, जैरे (कांगो या किन्शासा), यूगांडा, केनिया, तंजानिया, अंगोला, दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका, जांबिया, रोडेशिया, बोत्स्वाना, दक्षिण अफ्रीका गणतंत्र , मोजांबीक, मालागासी गणतंत्र, मलावी, लेसोथो, स्वाजीलैंड, इत्यादि।
विदेशी आधिपत्य
यह महद्वीप अपनिवेशवाद का ज्वलंत उदाहरण था। यहाँ मिस्त्र, इथिओपिया, लाइबेरिया और घाना को छोड़कर अन्य देशों पर प्रत्यक्ष या अप्रंत्यक्ष रूप से किसी न किसी विदेशी सरकार का आधिपत्य था। अफ्रीका के विभिन्न देशों पर अपना आधिपत्य जमानेवाल राष्ट्रों में यूरोप के ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, पुर्तगाल, स्पेन, तथा बेल्जियम मुख्य राष्ट्र थे। द्वितीय विश्व महायुद्ध के बाद से एशिया के लोगों की भाँति अफ्रीकी जनता भी अपनिवेशवाद क विरुद्ध जागृत हुई है और वहाँ स्वतंत्रता के नारे बुलंद किए गए। अब दक्षिणी अर्फीका में प्रचलित साम्राज्यादियों की रंग-भेद-नीति के विरुद्ध जनता सक्रियआंदोलन कर रहीं है।
सन् 1956 मे लार्ड हेली के इस बयान से कि यह अफ्रीका का ही एक मात्र भाग्य है कि इसके इतने देशों पर एक नएक यूरोपीय शक्ति का आधिपतय अथवा नियंत्रण बना हुआ हैं, वहाँ क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। सन् 1961 तक 23 राज्य, जो पहले फ्रेंच अथवा ब्रिटिश शासन के अधीन थे, स्वतंत्र हो गए ।
(न. प्र.)
अफ्रीकी एकता संगठन की स्थापना 30 अफ्रीका देशों के शासनाध्यक्षों ने 25 मई, 1963 ई. को अदिस अबागा में आयोजित सम्मेलन में एक राजलेख पर हस्ताक्षर करके की।
उक्त संगठन के प्रमुख उद्देश्य हैं अफ्रीकी एकता तथा संगठन में निरंतर वृद्धि करना: राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, स्वास्थ्य, वैज्ञानिक तथा सुरक्षा संबंधी नीतियों में तालमेल स्थापित करना: अफ्रीका से उपनिवेश वाद समाप्त करना और अफ्रीकी एकता संगठन के सदस्य राष्ट्रों की स्वधीनता की रक्षा हेतु एक सम्मिलित रक्षा व्यवस्था का गठन करना।
संगठन क प्रमुख अंग
(1) राज्याध्यक्षों अथवा शासनध्यक्षों की परिषद;
(2) विदेशमंत्रियों की परिषद्;:
(3) महासचिवालय तथा
(4) मध्यस्थता, विरोधशमन और पंचफैसले के लिए एक आयोग हैं। अफ्रीकी भाषाओं के अतिरिक्त इस संगठन ने फ्रेंच तथा अंगेजी भाषाओं को भी अधिकृत भाषा के रूप में मान्यता दी है।
(कै. चं. श.)
टीका टिप्पणी और संदर्भ