रामधारी सिंह दिनकर का काव्य

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प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख : रामधारी सिंह दिनकर का काव्य : काव्‍य के माघ्‍यम से राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक चेतना की सशक्‍त अभिव्‍यक्‍ति

रामधारी सिंह ‘ दिनकर ' के कृतित्‍व ने विचारकों का ध्‍यान जिन दिशाओं की ओर आकृष्‍ट किया है, वे हैं - उनकी ओजस्‍विता, गतिशीलता, गीतोन्‍मुखता, विद्रोही स्‍वर, सांस्‍कृतिक और राष्‍ट्रीय चेतना, मंगल कामना और विवेक की संयुक्‍ति तथा जनतांत्रिक विचार।

दिनकर के काव्‍य पर विचार करते समय कुछ प्रश्‍न उपस्‍थित होते हैं :-

- क्‍या दिनकर स्‍वच्‍छन्‍द धारा के कवि हैं ?

- क्‍या दिनकर ‘अज्ञेय' के कथन के अनुरूप रोमांटिक राष्‍ट्रवादी हैं अथवा डॉ0 नगेन्‍द्र के कथन के अनुरूप सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवादी कवि हैं ?

- एक ही काल और परिस्‍थिति में जीवित रहकर भी दिनकर का काव्‍य पंत, प्रसाद, निराला और मैथिलीशरण गुप्‍त के काव्‍य से किस प्रकार भिन्‍न है और क्‍या उसे किसी वाद के घेरे में बांधा जा सकता है ?

- दिनकर का चिन्‍तन केवल चिन्‍तन ही है या कोई समाधान भी प्रस्‍तुत करता है ?

स्‍वच्‍छन्‍दतावाद को प्रायः यूरोपीय रोमाण्‍टिसिज्‍म का समानार्थी माना जाता है। हिन्‍दी के स्‍वच्‍छन्‍दतावादी कवि जिन्‍हें ‘छायावादी कवि' के नाम से अभिहित किया जाता है, भावप्रवणता एवं कल्‍पना अथवा अन्‍तर्दृष्‍टि के बल पर अन्‍तः सौन्‍दर्य का उद्‌घाटन करने में समर्थ रचनाकारों के रूप में अपनी पहचान स्‍थापित करते हैं। प्रकृति के कण-कण में आध्‍यात्‍मिक चेतना और सौन्‍दर्य का प्रसार देखने के कारण उन्‍हें सर्वात्‍मवादी एवं प्रकृत-रहस्‍यवादी भी कहा गया है। डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी रोमांटिक साहित्‍य के मूल में ‘उन्‍मुक्‍त आवेगों की प्रधानता तथा कल्‍पना प्रवण अर्न्‍तदृष्‍टि' स्‍वीकार करते हैं तो पं0 नन्‍द दुलारे वाजपेयी रोमांटिक धारा के मूल में स्‍वतन्‍त्रता की लालसा और बन्‍धनों के त्‍याग की व्‍याप्‍ति मानते हैं। यहॉ यह भी कहना अभीष्‍ट है कि हिन्‍दी स्‍वच्‍छन्‍दतावादी काव्‍य में रोमानी प्रवृत्‍तियों की प्रधानता है किन्‍तु इसी काव्‍य धारा में सांस्‍कृतिक/राष्‍ट्रीय तत्‍व भी समाहित हैं। सांस्‍कृतिक एवं राष्‍ट्रीय पक्ष की प्रमुखता को लेकर हिन्‍दी में जिन कवियों ने रचनाएं की हैं, उनकी एक अलग उपधारा है और इस उपधारा के कवि हैं :-

(1) माखन लाल चतुर्वेदी (2) सियाराम शरण गुप्‍त (3) बालकृष्‍ण शर्मा ‘नवीन' (4) दिनकर

कामायनी जैसी गरिमामयी कृति की विषय-वस्‍तु और उसकी शिल्‍पविधि का प्रभाव ‘दिनकर' पर है किन्‍तु उसके आगे वे नतशिर नहीं हुए। स्‍वच्‍छन्‍दतावाद से दिनकर की भिन्‍नता को संकेत रूप में इस प्रकार अभिव्‍यक्‍त किया जा सकता है कि दिनकर ने ‘बनफूल' को प्रकृति प्रेमी के रूप में नहीं बल्‍कि जीवन दृष्‍टा के रूप में ‘साधारण' का प्रतीक मानकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया है। वर्ण्‍य विषय का यह विपर्यय मूलतः स्‍वच्‍छन्‍दतावाद से परिचालित होते हुए भी छायावादी काव्‍य रूढ़ियों के विपरीत पड़ा है। दिनकर की प्रारम्‍भिक रचनाओं में यह विपर्यय ‘विद्रोह' के रूप में अंकित है। आरम्‍भिक काव्‍य में श्रृंगार और हुंकार की सम्‍मिलित भूमि देखी जा सकती है। ‘रेणुका' काव्‍य संकलन के आरम्‍भ में ‘युगधर्म' और ‘जागृति-हुंकार' अभिव्‍यक्‍त है। ‘हिमालय के प्रति' कविता में राष्‍ट्रीय-सांस्‍कृतिक चेतना की खुली अभिव्‍यक्‍ति हुई है। पुण्‍य भूमि पर कराल संकट आ पड़ा है और व्‍याकुल सुत तड़प रहे हैं। आह्‌वान है :-

कह दे शंकर से, आज करें, वे प्रलय नृत्‍य फिर एक बार,

सारे भारत में गूँज उठे, ‘हर-हर-बम' का फिर महोच्‍चार।

‘रेणुका' में रोमानी कविताएँ राष्‍ट्रीय चेतना को साथ लेकर चलीं पर ‘हुंकार' में कवि अधिक आक्रोशी मुद्रा अपनाता है। ‘रसवंती' में दिनकर आरम्‍भ से ही अधिक उदात्‍त भूमि पर खड़े दिखाई पड़ते हैं। तभी वे ‘उर्वशी' में ‘कामाध्‍यात्‍म' का प्रक्षेपण कर सके।

दिनकर के प्रारम्‍भिक काव्‍य चरण में स्‍वच्‍छंदतावादी काव्‍य के दो तत्‍व-रोमानीवृत्ति और राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक चेतना मुख्‍य रूप से दिखाई पड़ते हैं किन्‍तु प्रारम्‍भ से ही वे अपने स्‍वतंत्र व्‍यक्‍तित्‍व के निर्माण के प्रति सचेत रहे और इसी कारण वे अधिक उदात्त भूमियों पर संचरण करने में सफल हुए।

दिनकर की 1955 ई0 में प्रकाशित ‘नील-कुसुम' को हिन्‍दी के कुछ विद्वानों ने प्रयोगवादी रचना माना है किन्‍तु मेरी दृष्‍टि में ‘नील-कुसुम' में संगृहीत रचनाएं प्रयोगवादी रचनाएं नहीं हैं :

1. दिनकर जी यह नहीं मानते कि जिस नई संवेदना के वे वाहक हैं वह हिन्‍द के सामान्‍य पाठक को छू तक नहीं गई है।

2. इसमें संकलित कविताओं के विषय ‘अपरिचित, अप्रत्‍याशित और अनपेक्षित नहीं हैं।

3. प्रयोगवादी कविता मूलतः प्रश्‍न चिन्‍हों की कविता है, संदेह और आशंका की कविता है, नील कुसुम वैसी कृति नहीं हैं। उसमें परम्‍परा की सुरभि का अभाव नहीं है।

नील कुसुम की कविताएँ उनकी काव्‍य यात्रा की ऐसी आधारशिला है जिस पर वे ‘उर्वशी' जैसी प्रबन्‍ध रचना का निर्माण कर सके। कुरुक्षेत्र एवं उर्वशी उनके विशेष चर्चित आख्‍यानकाव्‍य हैं तथा इन कृतियों में दिनकर ने अपनी गीतात्‍मक प्रवृत्‍तियों को जीवन के कतिपय वृहत्तर संदर्भों की ओर मोड़ा। कुरुक्षेत्र में युद्ध एवं शान्‍ति का संदर्भ एवं प्रसंग है, पर संघर्ष से बचने का समर्थन नहीं है। युद्ध एक तूफान है जो भीषण विनाश करता है पर जब तक समाज में शोषण, दमन, अन्‍याय मौजूद है तब तक संघर्ष अनिवार्य है :

युद्ध को तुम निन्‍द्‌य कहते हो, मगर,

जब तलक हैं उठ रही चिनगारियाँ

भिन्‍न स्‍वार्थों के कुलिश-संघर्ष की,

युद्ध तब तक विश्‍व में अनिवार्य है।

व्‍यक्‍ति का है धर्म तप, करुणा, क्षमा,

व्‍यक्‍ति को शोभा विनय भी, त्‍याग भी,

किन्‍तु उठता प्रश्‍न जब समुदाय का,

भूलना पड़ता हमें तप-त्‍याग को।

दिनकर ने वैयक्‍तिक ‘मुक्‍ति' की अपेक्षा समाजिक प्रवृत्‍ति की उपादेयता एवं सामाजिक समता को स्‍वीकार किया है :

शान्‍ति नहीं तब तक जब तक

सुख भाग न नर का सम हो

नहीं किसी को बहुत अधिक हो

नहीं किसी को कम हो

जब तक मनुज-मनुज का यह

सुखभाग नहीं सम होगा,

शामित न होगा कोलाहल,

संघर्ष नहीं कम होगा।

वे भाग्‍यवाद में विश्‍वास नहीं करते। वे वर्तमान जीवन की विपदाओं, कष्‍टों, अभावों का कारण विगत जीवन के कर्मों को मानकर हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं चाहते। जंगल में जाकर तप एवं साधना के बल पर आत्‍म कल्‍याण करने में वे विश्‍वास नहीं रखते। वे मनुष्‍य के पुरुषार्थ को जगाने का उपक्रम करते हैं। वे समाज में रहकर संघर्ष, कर्म-कौशल, परिश्रम एवं उदयम बल से समस्‍याओं का समाधान में विश्‍वास करते हैं।

सब हो सकते तुष्‍ट, एक-सा /सब सुख पा सकते हैं,

चाहें तो पल में धरती को / स्‍वर्ग बना सकते हैं

‘‘छिपा दिये सब तत्‍व आवरण /के नीचे ईश्‍वर ने

संघर्षों से खोज निकाला, / उन्‍हें उद्यमी नर ने।

‘‘ब्रह्मा से कुछ लिखा भाग्‍य में/ मनुज नहीं लाया है;

अपना सुख उसने अपने / भुजबल से ही पाया है।

‘‘प्रकृति नहीं डर कर झुकती है /कभी भाग्‍य के बल से

सदा हारती वह मनुष्‍य के, / उद्‌यम से, श्रम जल से

उर्वशी में पुरूरवा-उर्वशी की पौराणिक कथा के माध्‍यम से चिरन्‍तन पुरुष तथा चिरन्‍तन नारी के प्रश्‍नों पर विचार किया गया है। ‘उर्वशी' हिन्‍दी के विद्वानों में विवादमूलक कृती रही है। कुछ आलोचकों ने कहा है कि ‘उर्वशी' में एक दुर्निवार कामुक अहं ने अस्‍वाभाविक ढंग से आध्‍यात्‍मिक मुकुट पहनने की कोशिश की हैं तो कुछ आलोचकों ने उर्वशी को ‘समाधिस्‍थ चित्‍त' की देन बतलाया है। वास्‍तविकता यह है कि अध्‍यात्‍म की ओर मुड़ने वाला पुरूरवा भौतिक सुख से अतृप्‍त रहकर किसी अभौतिक सुख की ओर उच्‍छ्‌वसित भर ही है। उर्वशी सकल कामनाओं की प्रतीक है। अरविन्‍द की भविष्‍यत्‌ युग के बारे में धारणा है कि मानव बौद्धिक स्‍तर से ऊपर उठेगा और संबुद्धि के संकेतों से गतिशील होकर ऊर्ध्‍व यात्रा करेगा।

उर्वशी अपूर्णता से उत्तरोत्तर विकास की ओर की यात्रा है। उर्वशी में भौतिक स्‍तर पर अभिव्‍यंजित ‘‘काम का यदि आध्‍यात्‍मीकरण नहीं भी है तो कम से कम काम का उदात्तीकरण अवश्‍य है।

अंत में , निष्‍कर्ष यह है कि रामधारी सिंह ‘दिनकर' के काव्‍य में राष्‍ट्रीय सांस्‍कृतिक चेतना की सशक्‍त अभिव्‍यक्‍ति हुई है। उन्‍होंने वैयक्‍तिक ‘मुक्‍ति' की अपेक्षा सामाजिक समस्‍याओं के समाधान पर बल दिया है । उन्‍होंने व्‍यक्ति के पुरुषार्थ को सचेत किया है, प्रेरित किया है, जाग्रत किया है, उद्‌बुद्ध एवं प्रबुद्ध किया है। उनका विश्वास है कि व्‍यक्ति अपने श्रम, उद्‌यम एवं कर्म-कौशल से अपना भाग्‍य बना सकता है, अपनी तकदीर बदल सकता है। इस दृष्‍टि से रामधारी सिंह ‘दिनकर' का काव्‍य आज भी प्रासंगिक है।


सम्‍पर्क :

प्रोफेसर महावीर सरन जैन

(सेवा निवृत्त निदेशक, केन्‍द्रीय हिन्‍दी संस्‍थान)

123, हरि एन्‍क्‍लेव, बुलन्‍दशहर-203001

दूरभाष : (05732-233089)

E-mail : [email protected] / [email protected]



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शीर्षक उदाहरण 1

शीर्षक उदाहरण 2

शीर्षक उदाहरण 3

शीर्षक उदाहरण 4

टीका टिप्पणी और संदर्भ