जैवाणुक और संक्रामक रोग
जैवाणुक और संक्रामक रोग
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3 |
पृष्ठ संख्या | 53-56 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | सुधाकर पांडेय |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1976 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | भवानी शंकर याज्ञिक |
जैवाणुक और संक्रामक रोग जीवाणु वनस्पति वर्ग के सूक्ष्म जीवधारी हैं, जो द्विभाजन द्वारा एक के दो, दो के चार के अनुपात से बढ़ते हैं। इनमें वनस्पतियों क्लोरोफिल नामक पदार्थ का अभाव होता है। और इनके अभाव में ये वनस्पति तथा प्राणिवर्ग दोनों से भिन्न हैं और इनके अभाव में न ते वनस्पति वर्ग और न प्राणिवर्ग का अस्तित्व संभव है। दोनों वर्गों के लिये अत्यंत उपयोगी होने के कारण इनका महत्व किसी भी जीवधारी से कम नही है। इनको केवल रोगजनक समझना भारी भूल है। ये मुख्यत: मृतोपजीवी होते हैं और सड़े गले पदार्थों पर निर्वाह करते हैं। बहुत थोड़ी जाति के जीवाणु परजीवी होने के कारण जीवित पदार्थों से अपना पोषण पाते हैं। ये परजीवी जीवाणु ही रोगोत्पादक होते हैं, किंतु इनकी जातियाँ अपेक्षाकृत बहुत थोड़ी है१
रोगोत्पादक परजीवी जीवाणु, एक रागी के शरीर से बाहर निकल, दूसरे प्राणी के शरीर में प्रवेश कर तथा अपने पोषक के शरीर से पोषण पाकर बढ़ते हैं और जीवविष उत्पन्न कर अपने पोषक को रोगी बनाते हैं। रोगोत्पादक परजीवी जीवाणु का एक व्यक्ति से दूसरे में इस प्रकार रोग उत्पन्न करना संक्रमण कहलाता है और परिणाम स्वरूप जो विकार पोषक के शरीर में उत्पन्न होते हैं वे संक्रामक रोग कहे जाते हैं। यदि जीवाणु रोग उत्पन्न करनेवाला न हो तो उसका प्रवेश संक्रमण नहीं कहा जाता।
संक्रामक रोग केवल जीवाणुओं द्वारा ही नहीं होते, विषाणु (virus), रिकेट्सिया, प्रजीवाणु (प्रोटोज़ोआ) एवं अन्य एककोशीय तथा बहुकोशीय सूक्ष्म जीवों द्वारा भी उत्पन्न होते हैं। ऐसे सभी परजीवी रोगोत्पादक सूक्ष्म जीवों का समावेश सामान्यत: जीवाणु विज्ञान में होता आया है, किंतु ये सभी सूक्ष्म जीव जीवाणु जाति के नहीं होते। यहाँ शीतला, मसूरिका, पोलिओ, अलर्क (rabbies), ट्रैकोमा, इंफ्लुएंज़ा आदि विषाणुजन्य रोगों की तथा मलेरिया, कालाजार, फाइलेरिया, ऐमीबा पेचिश (प्रवाहिका) आदि प्रजीवाणुजन्य रोगों की चर्चा न कर केवल जीवाणुजन्य संक्रामक रोगों का उल्लेख अपेक्षित है।
संक्रमण क्रिया बड़ी जटिल होती है। संक्रामक रोगोत्पादक परजीवी जीवाणुओं के साथ अन्य सहभोजी जीवाणु भी पोषक रोगी के शरीर में पाए जाते हैं। रोगोत्पादक जीवाणुओं का निर्दोष सहभोजियों के समूह में से खोज निकालना कठिन कार्य होता है। रोगोत्पादक परजीवी जीवाणु तथा उसके पोषक आश्रय के बीच संघर्ष छिड़ जाता है। जीवाणुओं की रोगोत्पादक क्षमता उनकी आक्रामक शक्ति तथा जीव-विष-संचारण-क्षमता पर निर्भर करती है। मानव शरीर भी जीवाणुओं के आक्रमण का सामना करने के लिये अपनी प्रतिरोधक शक्ति काम में लाता है। रोग का होना अथवा न होना तथा होने पर उसकी तीव्रता जीवाणुओं की संख्या, आक्रामक शक्ति, विषाक्तता तथा पोषक के शरीर की प्रतिरोध शक्ति पर निर्भर रहती है। घात प्रतिघात का परिणाम रोग होता है, जिसकी तीव्रता इस सूत्र द्वारा प्रकट की जा सकती है:
रोग की तीव्रता = जीवाणुओं की संख्या X विषाक्तता/शरीर की प्रतिरोध शक्ति
यदि प्रतिरोध शक्ति पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हो तो परजीवी जीवाणुओं द्वारा आक्रमण होने पर भी रोग नहीं होता। ऐशी दशा में शरीर की प्रतिरोध शक्ति जीवाणुओं का पूर्णत: नाश करने में समर्थ होती है, किंतु प्रतिरोध शक्ति के पूर्ण अथवा आंशिक अभाव में मृत्यु हो जाती है, या रोग दीर्घकालीन हो जाता है। शरीर की कोशिकाओं और जीवाणुओं में परस्पर संघर्ष बना रहता है। परजीवी जीवाणुओं द्वारा उनके पोषक की मृत्यु होना वास्तव में जीवाणुओं के हित में नहीं हो सकता। जिसके द्वारा जीवाणुओं का भरण पोषण हो, उसका नाश होना स्वयं जीवाणुओं के लिये भी घातक है। इस कारण जीवाणुओं तथा उसके पोषक के हित में परस्पर सह अस्तित्व की चेष्टा होती है, जिससे जीवाणुओं की आक्रामकता तथा शरीर की प्रतिरोध शक्ति के परस्पर अनुपात के परिणाम स्वरूप इस संघर्ष में कभी अस्थायी अथवा स्थायी विरामसंधि या युद्धबंदी सी हो जाती है। ऐसी अवस्था में पोषक के शरीर में जीवाणु शांत पड़े रहते हैं, किंतु अपनी आक्रामक शक्ति के कारण अन्यव्यक्ति में भीषण संक्रमण उत्पन्न कर सकते हैं। ऐसे स्वस्थ परुष, जिनके शरीर में रोगोत्पादक परजीवी जीवाणु शांत अवस्था में पनपते रहते हैं और जिनके संपर्क से अन्य व्यक्तियों में जीवाणुओं का प्रवेश होकर रोगसंक्रमण संभव है, रोगवाहक कहे जाते हैं।
ये रोगवाहक व्यक्ति आग्रही अथवा अनाग्रही परजीवी जीवाणुओं के पोषक होते हैं और स्वयं स्वस्थ या रोगमुक्त होते हैं। कोई थोड़े समय के लिये रोगवाहक होने के कारण अस्थायी और कोई दीर्घकाल के लिये रोगवाहक होने के कारण स्थायी वाहक कहलाते हैं।
जीवाणुओं द्वारा रोग का सफल संक्रमण होने के लिये जिन बातों का होना आवश्यक होता है, वे इस प्रकार है :
- रोगविशेष को उत्पन्न करनेवाला परजीवी जीवाणु।
- जीवाणु का पोषक, जिसके शरीर में जीवाणु पनपते हैं।
- जीवाणु के अपने आश्रयदाता के शरीर से बाहर निकलने का मार्ग और सुविधा।
- जीवाणु के अन्य रोगग्राही व्यक्ति तक जीवित अवस्था में प्रसरण का माध्यम।
- नए रोगग्राही आश्रयदाता के शरीर में प्रवेश करने का द्वार।
- प्रतिरोध में अशक्त, द्रुतगाही तथा नया आश्रयदाता।
१. रोगोत्पादक, परजीवी सूक्ष्मजीव अनेक वर्गों के होते हैं, जिनमें विषाणु, रिकेट्सिया, जीवाणु, प्रजीवाणु, कवक (फफूंद, fungus) आदि मुख्य हैं। यहाँ केवल जीवाणुजन्य संक्रामक रोगों का उल्लेख अभिप्रेत है, इस कारण जीवाणुओं का ही वर्णन किया जाता है। इनका आकार ०.3 m से 3०-४० m (m अथवा माइक्रोन = ०.००१ मिलीमीटर) तक होता है। कुछ जीवाणु गोल (गोलाणु) होते हैं, कुछ दंडाकार (दंडाणु) और कुछ टेढ़े मेढ़ (सर्पिल)। कुछ चल होते हैं और कुछ अचल। परजीवी जीवाणुओं के लिये 3७o सेंo का ताप अनुकूल होता है, किंतु सड़े गले पदार्थों पर निर्वाह करनेवाले मृतोपजीवी के लिये २०o सेंo का ताप अनुकूल होता है। सामान्यत: १०o सेंo से कम ताप पर इनकी वृद्धि रुक जाती है और ४२o सेंo का ताप असह्य हो जाता है। कुछ तापसह जीवाणु ६०o सेंo ताप तो सबके लिये घातक होता है, किंतु स्पोरधारी जीवाणुओं के बीजाणु (spore) के नाश के लिये और भी अधिक ताप (तीन घंटे तक १४० सेंo) आवश्यक है। ताप के साथ आर्द्रता भी जीवाणुओं के लिये आवश्यक है। शुष्कता से जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, किंतु क्षय रोगोत्पादक जीवाणु तथा कुछ संरक्षक आवरणधारी जीवाणु शुष्कावस्था में भी जीवित रहते हैं। तीव्र प्रकाश भी जीवाणुओं के लिये नाशक है। प्रकाश के वर्णक्रम के नील-बैंगनी तथा पराबैंगनी पट्ट जीवाणुनाशक होते हैं।
२. जीवाणुओं का पोषक वह व्यक्ति होता है जो रोगावस्था में, रोगशमन होने पर, अथवा स्वस्थ दशा में, अपने शरीर में रोगोत्पादक जीवाणुओं को पनपने देता है। वास्तव में, मनुष्य मानव रोगों के जीवाणुओं का पोषक है। बहुत थोड़े रोगों के जीवाणु गाय, घोड़ा, बिल्ली, कुत्ता, चूहा आदि स्तनपायी पशुओं के शरीर में पाए जाते हैं। मनुष्यों के संपर्क में रहने के कारण इन पशुओं के कुछ रोगों से मनुष्य भी पीड़ित होता है। प्लेग के जीवाणुओं का आश्रय मूषक तथा अन्य कृंतक प्राणी होते हैं। ब्रूसेला रोग गाय तथा बकरी से, ऐंथेस रोग भेड़ों से, गोक्षय गाय से और ग्लाँडर्स घोड़ों से होता है। टिटैनस तथा गैस ग्रैंग्रीनकारक जीवाणुओं के बीजाणु सड़े गले पदार्थों से दूषित मिट्टी में पाए जाते हैं।
मनुष्यों के शरीर में पाए जानेवाले रोगोत्पादक जीवाणुओं का किसी नाशक द्रव्य द्वारा नाश करना सुगम नहीं है। उनके द्वारा संचारित जीवविष को निरापद करने के लिये शरीर प्रतिविष उत्पन्न करता है। जीवाणुओं को मारने के लिये जो रोगाणुनाशक द्रव्य (क्लोरीन, आयोडीन, पोटासियम परमैंगनेट, मरकरी परक्लोराइड आदि) प्रयोग में लाये जाते हैं, उनके द्वारा मानव शरीर में विद्यमान जीवाणुओं का नाश संभव नहीं है। ये द्रव्य मनुष्य के लिये भी हानिकर होते हैं। गत कुछ वर्षों से पेनिसिलीन, स्ट्रेप्टोमाइसीन, क्लोरेंफेनीकोस आदि, जीवाणुद्वेषी अथवा प्रतिजैवाणुक पदार्थों तथा सल्फा औषधियों आदि संश्लिष्ट रासायनिक चिकित्सोपयोगी पदार्थों के समुचित प्रयोग द्वारा अनेक प्रकार के जीवाणुओं का पोषक के शरीर में नाश करना अपेक्षाकृत सुगम हो गया है। वास्तव में संक्रामक रोगों की उचित प्रकार की चिकित्सा द्वारा जीवाणुओं के पोषक आश्रय तथा उनके वाहकों की संख्या यथासंभव कम करने से संक्रमण की सभावना में कमी की जा सकती है। यदि गलित कुष्ठ तथा क्षय आदि के रोगियों की ठीक ठीक चिकित्सा कर तथा उनको जनसंपर्क से पृथक् कर संक्रमण के प्रसार की संभावना कम कर दी जाय, तो ये विनाशकारी रोग समाज से लुप्त हा जा सकते हैं। यह निश्चय है कि रोगियों की समुचित चिकित्सा रोगनिरोध का प्रमुख साधन है।
3. जीवाणुओं का निकास पोषक के शरीर के भिन्न मार्गों द्वारा होता है। आंत्र प्रणाली में बसनेवाले जीवाणु वमन तथा मल में, मूत्र प्रणाली के मूत्र में तथा फोड़े फुंसी घाव वाले विविध स्रावों में बाहर निकलते हैं। रुधिर तथा ऊतकों के जीवाणु मच्छर, पिस्सू, जूँ आदि, कीट जंतुओं के काटने से बाहर निकल पाते हैं। श्वास प्रणाली के जीवाणु, थूक, खाँसी तथा छींक के साथ मुख और नासिका से निकलते हैं। धीरे बोलने तथा साधारण श्वास क्रिया में जीवाणु प्राय: नहीं निकलते, किंतु उच्च स्वर से बोलने, खाँसने और छींकने में बहुत मात्रा में निकलते हैं। नाक तथा मुख से थूक के साथ जो आर्द्र फुहार निकलती है उसमें जीवाणु विद्यमान होते हैं। इन रोगोत्पादक जीवाणुओं का शरीर से निकलते ही जीवाणुनाशक द्रव्यों की सहायता से तत्काल नाश कर देना चाहिए, अन्यथा यत्र तत्र फैल जाने का अवसर मिलने के उपरांत उनका नाश करना अत्यंत दुष्कर हो जाता है।
४. जीवाणुओं का पोषक शरीर से जीवित अवस्था में बाहर निकलकर पर्याप्त समय तक जीवित रहने पर ही अन्य व्यक्ति में संक्रमण हो सकता है। शरीर से बाहर आने पर अनुकूल वातावरण न होने के कारण अनेक परजीवी जीवाणु अधिक समय तक नहीं जीते, किंतु जो दूध, भोजन, सड़े गले पदार्थ, खाद, गोबर, गंदे पानी आदि में पहुँच जाते हैं और उनसे अपना भोजन प्राप्त कर सकते हैं, वे अधिक समय तक जीवित रहते हैं। उष्मा, प्रकाश और शुष्कता जीवाणुओं के लिये प्राय: घातक सिद्ध होते हैं। यदि वातावरण स्वच्छ हो, जहाँ जीवाणुओं के पनपने के साधनों का सर्वथा अभाव हो, तो उनका नाश हो जाता है और प्रसार में बाधा पड़ती है। प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने की क्षमता न्यूनाधिक रूप से अनेक जीवाणुओं में पाई जाती है। इसी कारण उनका प्रसार अपेक्षाकृत अधिक होता है। उपदंश (syphilis), गोनोमेह आदि रतिज रोगों में तथा नाना प्रकार के त्वग्रोगों में जीवाणुओं का एक रोगी से दूसरे मनुष्य तक प्रसरण संसर्ग द्वारा होता है। जल, दूध, भोजन, मिट्टी, धूलि, वायु, मक्खी तथा अन्य कीट भी जीवाणुओं के प्रसार के माध्यम होते हैं। रोगी द्वारा व्यवहार रूमाल, तौलिया, कपड़ा, बिस्तर, चम्मच, बर्तन आदि निर्जीव पदार्थों द्वारा भी रोगकरी जीवाणुओं का प्रसार होता है१ ऐसे निर्जीव पदार्थों जिनपर जीवाणु कुछ समय तक जीवित रह सकें और जो उनके प्रसरण में सहायक सिद्ध हों, संक्रमणी पदार्थ (fomites) कहे जाते हैं। शरीर तथा वातावरण की निरंतर स्वच्छता द्वारा जीवाणुओं का प्रसार रोका जा सकता है।
५. रोगी के शरीर से निकलकर ये परजीवी जीवाणु अपने भरण पोषण के लिये इधर उधर भटकते हैं और अवसर पाकर अन्य व्यक्ति के शरीर में प्रवेश पाते हैं। मनुष्य की असावधनता के कारण ही ये मानव शत्रु चोरी छिपे अपने अनुकूल आश्रय पाने में सफल होते हैं। सफल संक्रमण के लिये उचित और अनुकूल प्रवेशमार्ग आवश्यक हैं। विसूचिका (हैजा) के जीवाणु यदि किसी घाव में पहुँच जायँ तो रोग उत्पन्न नहीं कर सकते। त्वचा, मुख, नासिका, गुदा, आँखें आदि विभिन्न प्रवेशद्वारों से विभिन्न जीवाणु अपने आश्रय के शरीर में पहुँच जाते हैं। मुखद्वार से जल, दूध, भोजन के साथ जो जीवाणु पहुँचते हैं, मुख्यत: आंत्ररोग उत्पन्न करते हैं। श्वास प्रणाली के जीवाणु श्वासमार्ग से दूषित वायु की धूलि तथा संक्रमणी बिंदुकों द्वारा नाक, नासाग्रसनी, ग्रसनी, गलतोरणिका, टौंसिल, श्वासनली, श्वसनी होते हुए फुफ्फुस तक पहुँच जाते हैं। रोगी की त्वचा तथा श्लैष्मिक कला में पनपनेवाले जीवाणु स्पर्शयुक्त संसर्ग द्वारा अन्य पुरुष के शरीर में प्रवेश पाते हैं। इसी प्रकार कीटदंश द्वारा भी प्लेग आदि के जीवाणु सीधे रुधिर में पहुँच जाते हैं। कुछ जीवाणु ऐसे होते हैं जो केवल एक ही मार्ग न अपनाकर दो या अधिक मार्गों से प्रवेश पाते हैं।
संक्रामक रोगों के सफल निरोध के लिये जीवाणुजन्य रोगों का वर्गीकरण उनके प्रवेशद्वार के आधार पर किया जाता है। रोगोत्पादक जीवाणुओं के भोजन, श्वास, स्पर्श तथा कीटदंश द्वारा शरीर में प्रवेश पाने के कारण उनका संक्रमण क्रमश: अशन, श्वास, स्पर्श तथा दंश संक्रमण कहा जाता है। प्रवेशद्वार भिन्न होने के कारण उनके गंतव्य स्थान भी प्राय: भिन्न होते हैं। इस कारण रोग के लक्षण भी उसी के अनुरूप होते हैं। रुधिर और लसीकाप्रवाह के साथ जीवाणु अपने गंतव्य स्थान पर पहुँचते तथा अपने पोषक पाकर पनपते और जीवविष उत्पन्न कर पोषक को अस्वस्थ बनाते हैं।
६. पोषक के शरीर में पहुँचने पर जीवाणु रोग तभी उत्पन्न कर सकते हैं जब पोषक में प्रतिरोधशक्ति का पूर्ण अथवा आंशिक अभाव हो, अन्यथा नहीं। सफल संक्रमण के लिये पोषक का प्रतिरोधशक्तिरहित, अथवा संक्रमण के प्रति द्रुतगाही, होना आवश्यक है। जीवाणु की जीवविष उत्पन्न करने की क्षमता और उसकी आक्रमण शक्ति के अनुसार रोग की तीव्रता होती है। जीवाणु का प्रवेश होने के बाद रोग के लक्षण प्रकट होने में कुछ समय लगता है। इस अवधि में जीवाणुओं की वृद्धि होती है और जीवविष उत्पन्न होता है। जीवाणुप्रदेश तथा रोगलक्षण की उत्पत्ति के बीच के समय को उस रोग का उद्भवन काल कहा जाता है। इस काल में मनुष्य स्वयं तो स्वस्थ रहता है परंतु रोगोत्पादक जीवाणुओं का पोषक होने के कारण रोग का प्रसरण कर सकता है। रोगी होने के पूर्व ही रोगवाहक होने के कारण ऐसे उद्भवन कालिक रोगवाहक पूरे पंचमांगी सिद्ध होते हैं। संक्रामक रोगों से रक्षा के लिये हमें जीवाणुओं के विरुद्ध संघर्ष में विजय प्राप्त करनी होगी। अंतरराष्ट्रीय आचरण और सामरिक नियमों के अनुसार जैवाणुक युद्ध पूर्णत: अवैध है। युद्धरत प्रतिरक्षी जैवाणुक युद्ध नहीं करते, किंतु हमारे इष्ट-मित्र, सगे संबंधी ही अपने स्वजनों से निरंतर जैवाणुक युद्ध करने में व्यस्त हैं। यही बड़ी विडंबना है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रोगोत्पादक जीवाणुओं से त्राण पाने के हेतु हमें निम्नलिखित उपाय करने चाहिए--
- रोगियों अथवा रोगवाहकों के शरीर में व्याप्त जीवाणुओं का श्रेष्ठतम चिकित्सा द्वारा नाश और रोगियों का स्वस्थ व्यक्तियों से पृथक्करण।
- रोगियों अथवा रोगवाहकों के शरीर से बाहर निकलते ही जीवाणुओं का नाशक द्रव्यों द्वारा नाश और जल, भोजन, धूल, वायु तथा अन्य संक्रमणी पदार्थों की स्वच्छता की व्यवस्था, जिससे जीवाणुओं का प्रसार न हो सके।
- शारीरिक स्वच्छता तथा स्वास्थ्यानुकूल आचरण, जिससे जीवाणुओं का स्वस्थ व्यक्तियों के शरीर में प्रवेश न हो सके।
- स्वास्थ्यवर्धक जीवनचर्या द्वारा शरीर को पुष्ट और सबल बनाना तथा आवश्यकतानुसार रोगनिरोधक उपायों द्वारा शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाना।
चिकित्सा विज्ञान की जैसे जैसे उन्नति होती गई, रोगनिरोध के संबंध में भी उसी अनुपात में सफलता मिली। वातावरण की स्वच्छता से तथा दूध, भोजन, जल, वायु को दोषरहित रखने से जीवाणुओं के प्रसार के माध्यम का नियंत्रण हो गया। इससे जल तथा भोजन द्वारा प्रवेश पानेवाले जीवाणुओं का संक्रमण शनै: शनै: कम होने लगा और आंत्रप्रणाली के संक्रमणों में बहुत कमी हो गई। वायु में व्याप्त बिंदुक फुहारों से फैलनेवाले रोगों को रोकने में अधिक सफलता नहीं मिली। वातावरण की स्वच्छता के लिये मल मूत्र तथा अन्य सड़नेवाले पदार्थों को इकट्ठा कर आवासस्थानों से दूर ले जाकर उचित रूप से निस्तारण करना महत्वपूर्ण है। यह कार्य अब यंत्रों की सहायता से स्वास्थ्य इंजीनियरों द्वारा होता है। स्वच्छ जल का वितरण भी कुशल इंजीनियरों द्वारा होता है। मल मूत्र तथा गंदे पदार्थों का निस्तरण इस प्रकार किया जाता है कि उनका उत्पादन कृषितथा अन्य उद्योगों में सहायक सिद्ध हो। स्वास्थ्यप्रद आवासों का निर्माण भी दक्ष इंजीनियरों द्वारा ही संभव है। शरीर को पुष्ट करने के लिये सुखप्रद आवास के साथ पौष्टिक भोजन भी चाहिए। ये सब कार्य प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्यवर्धक और रोगनिरोधक हैं। स्वास्थ्यवर्धन से जीवनस्तर में उन्नति होती है और जीवनस्तर की उन्नति से स्वास्थ्योन्नति। ये परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं।
रोगी के स्पर्श द्वारा होने वाले संक्रमण रोगों में उपदंश तथा गोनोमेह (सुजाक) मुख्यत: रतिज रोग हैं जो रोगी के साथ सहगमन से होते हैं। त्वचा के रोग खाज, खुजली, दाद भी स्पर्शज रोग हैं। गलित कुष्ठ माइकोबैक्टीरियम लेप्री (Mycobacterium leprae) द्वारा होता है और रोगी के ्व्राणों के स्रावों से बाहर निकले रहते हैं, अनावृत रोगी कहे जाते हैं। अनावृत रोगी के साथ दीर्घकालीन निकटतम सपर्क से यह रोग फैलता है और अल्पवय के द्रुतग्राही बालकों में इसका संक्रमण होता है। रोग का उद्भवनकाल बहुत अधिक होता है। बाल्यावस्था में संसर्ग होने पर अनेक वर्षों बाद रोग के लक्षण प्रगट होते हैं। अनावृत रोगियों के द्रव्यों से अनावृत रोगियों को विसंक्रमित कर देना चाहिए। उपदंश तथा गोनोमेह मुख्यत: व्यभिचार द्वारा फैलते हैं। ये रोग चिकित्सासाध्य हैं और उचित चिकित्सा द्वारा इनका प्रसार बहुत रुक गया है। प्रसूतिपूयता तथा ्व्राणों की पूयता पूयजनक जीवाणुओं के संसर्ग से होती है।
कीटदंश से उत्पन्न होनेवाले जैवाणुक रोगों में प्लेग मुख्य है। मलेरिया, कालाजार, पीतज्वर, डैंग्यू तथा पुनरावर्ती ज्वर भी कीटदंश से फैलते हैं, किंतु ये जैवाणुक रोग नहीं हैं। प्लेग मुख्यत: मूषक तथा अन्य कृंतक स्तनपायी जीवों का रोग है। मूषक के शरीर के पिस्सू इस रोग के जीवाणु पास्च्युरेला पेस्टिस (Pasteurella pestis) को मनुष्य के शरीर में पहुँचाते हैं। चूहों और उनके पिस्सुओं से अपना बचाव रखने से रोग से रक्षा होती है। चूहों का नाश करने के लिये अब अनेक उपयोगी विष प्राप्त हैं और पिस्सुओं को मारने के लिये भी कीटनाशक द्रव्य बहुत उपयोगी हैं। प्लेग से बचने के लिये टीका (inoculation) भी गुणकारी है। भारत में प्लेग का प्रकोप अब बहुत कम हो गया है।
सभी पशुरोगों से मनुष्य पीड़ित नहीं होता। जैवाणुक पशुरोगों में जो मनुष्य को भी होते हैं, गोक्षय, ऐं्थ्रौक्स, ग्लैंडर्स और ब्रूसिला (brucella) रोग मुख्य हैं। गोक्षय पीड़ित गाय के दूध से फैलता है। इस रोग का जीवाणु माइकोबैक्टीरियम ट्युबरर्क्युलोसिस बोविस कहा जाता है। गाय के दूध को उबालकर पीने से इस रोग का भय नहींरहता। ब्रूसिला रोग भी बकरी, गाय तथा अन्य पशुओं के दूध से होता हैं। ऐं्थ्राैंक्स के जीवाणु स्पोरयुक्त होते हैं, जो पीड़ित पशुओं के चर्म में पाए जाते हैं। भेड़ का ऊन मुख्यत: रोग के प्रसार में सहायक होता है। ऐं्थ्रौक्स के बीजाणु मांसभक्षण के साथ आंत्रप्रणाली मे, श्वास के साथ फुफ्फुस में तथा धूलि के साथ ्व्राणों में पहुँचकर रोग उत्पन्न करते हैं। पीड़ित पशु का नाश तथा उसके चर्म, ऊन आदि का जीवाणुनाशक उपायों से विसंक्रमण करना चाहिए। ग्लैंडर्स का जीवाणु (फाइफरेला मैलियाई, Pfeifferella mallei) मुख्यत: अश्वजाति के पशुओं के ्व्राणों के पूय, मल तथा नासास्रवाव में पाया जाता है और मनुष्य को विशेष त्वग्रोग से पीड़ित करता है। मानव शरीर के आंतर अवयवों में भी रोगविकार होता हैं।
जल, दूध, मांस तथा अन्य खाद्य पदार्थों द्वारा मुखमार्ग से अनेक रोगकारी जीवाणु आंत्रप्रणाली में पहुँच सकते हैं, जिससे टाइफॉइड ज्वर, विसूचिका, पेचिश, सैल्मोनेलाजन्य आहारविषाक्तता आदि रोग होते हैं। दूषित दूध द्वारा अनेक रोगों का प्रसार संभव है। स्वच्छ जल में रोगोत्पादक जीवाणु अधिक समय तक नहीं जीवित रहते, किंतु गंदे जल में कई दिन तक जीवित रहते हैं। पका हुआ गरम भोजन प्राय: दोषरहित होता है और ठंढे खाद्य पदार्थों में कुछ रोगोत्पादक जीवाणु रह सकते हैं। सामूहिक भोजनालय के पात्रों की स्वच्छता पर पूरी देखभाल रखना आवश्यक है।
आंत्रिक ज्वर (टाइफाइड) में क्लोरमफेनिकोल का उपयोग उस रोग के जीवाणुओं का कुछ अंश में घातक है। अन्य रोगों में भी जीवाणुद्वेषी द्रव्य कुछ उपयोगी सिद्ध हुए हैं, किंतु हैजा के लिये कोई ऐसा द्रव्य उपयोगी नहीं है। हैजे का उद्भवनकाल बहुत कम है। कुछ ही घंटों में रोग के लक्षण प्रकट हो सकते हैं। रोग का प्रकोप इतने वेग से बढ़ता है कि किसी औषधि का गुणकारी प्रभाव होने के लिये समय ही नहीं रहता हैजे के जीवाणु आंत्रप्रणाली में ही रहते हैं, किंतु जीवविष रुधिर द्वारा समस्त शरीर में व्याप्त होता है। आंत्रिक ज्वर के जीवाणु भी ऐसा ही करते हैं, किंतु कुछ समय तक जीवाणु रुधिर में भी पाए जाते हैं। दोनों रोगों के निरोध के लिये विशेष टीके प्राप्त हैं, जिनसे आत्मार्जित सक्रिय प्रतिरोध शक्ति उत्पन्न कर जनता की रक्षा की जा सकती है। रोगियों तथा रोगवाहकों की प्रभावकारी चिकित्सा और नगरों तथा ग्रामों की स्वच्छता से जीवाणुजनित रोग क भयंकरता दूर की जा सकती है।
बिंदुक फुहारों से दूषित जीवाणुयुक्त वायु श्वासप्रणाली के रोगों के प्रसार का मुख्य माध्यम है। शरीर में सबसे अधिक गंदा स्थान मुख और नासिका ही हैं। श्वसनमार्ग के रोगकारी जीवाणु वायु में धूलि के साथ उड़ते रहते हैं। संक्रमणी बिंदुक के सूख जाने पर भी क्षय रोग के जीवाणु जीवित रहते हैं। एक ही छोटे कमरे में अधिक मनुष्यों के निवास से कमरे की वायु में जीवाणुओं की संख्या बहुत बढ़ जाती है। साधारण बोलचाल तथा श्वास द्वारा निकलती बिंदुक फुहार प्राय: एक मीटर तक और खाँसी तथा छींक के साथ निकलनेवाली और भी दूर तक छिटक जाती है। इस कारण एक कमरे में सोनेवाले व्यक्तियों की शय्याओं के बीच पर्याप्त अंतर होना चाहिए और कमरे की खिड़कियाँ खुली रखनी चाहिए, जिससे दुषित वायु बाहर निकल सके। वायु की जीवाणुरहित करने के व्ययसाध्य उपाय सर्वसुलभ नहीं सिद्ध हुए। सूर्य का प्रकाश इस कार्य के लिये अत्यंत लाभदायक है।
नगर तथा ग्रामों की निर्माण योजना स्वास्थ्यप्रद सिद्धांतों के आधार पर होनी चाहिए, जिससे जनसंकुलता न रहे। धूल और धूम उत्पन्नकारी उद्योग धंधे नगर से दूर एक विशेष क्षेत्र में होने चाहिए। माता के साथ बालक को एक ही शैय्या पर सुलाना बुरा है। कुष्ठ, क्षय आदि अनेक संक्रामक रोगों से पीड़ित माता अपनी संतानों को अपने साथ सुलाकर, मुखचुंबन कर अथवा अन्य प्रकार से संसर्ग कर संतान के साथ वस्तुत: प्रेम नहीं करती, वरन स्वास्थ्य की हानि करती है। रोगी के बिंदुकों से दूषित हाथ सबसे अधिक रोगप्रसार करते हैं। मुख अथवा नाक में उँगलियाँ, पेंसिल आदि देना बुरा होता है। दूषित हाथ के अनंतर रूमाल, तौलिया, चम्मच, बिस्तर, रोगी के व्यवहृत कपड़े आदि संक्रामक पदार्थों की गणना में आते हैं। साधारण उच्छ्वसित वायु में जीवाणुओं की संख्या अधिक नहीं होती। अँधेरे कमरे की बिंदुक-दूषित धूलि बहुत हानिकारक होती है।
बिंदुकप्रसारित संक्रामक रोग अनेक हैं, किंतु सभी जैवाणुकजन्य नहीं होते। विषाणुजन्य रोग अपेक्षाकृत अधिक व्याप्त हैं। ऐसे रोगों में शीतला, मसूरिका, पोलियों, सरदी जुकाम, कनपेड़, गलसुआ, इंफ्लूऐंजा आदि मुख्य है। बिंदुकप्रसारित जैवाणुक रोगों में क्षय, डिप्थीरिया, गर्दनतोड़ (crebrospinal) ज्वर, न्यूमोनिया, गलदाह (sorethroat), कुकुर खाँसी, आदि मुख्य हैं। कुष्ठ, ऐं्थ्रौक्स तथा न्यूमोनिक प्लेग भी बिंदुक फुहारों से होते हैं। क्षय का प्रकोप अत्यधिक व्यापक है और निरोधक साधनों के अभाव में इस रोग का प्रसार भारत में क्रमश: बढ़ता प्रतीत होता है। बाल्यावस्था में ही माइकोबैक्टीरियम ट्यूबकिंल द्वारा संक्रमण होने पर यह रोग होता है। पाँच से प्रंद्रह वर्ष की आयुवाले बालकों में संक्रमण का प्रसार तो होता रहता है, किंतु प्राय: रोग का घातक रूप नहीं प्रकट होता। रोग की भयंकरता पाँच वर्ष की अवस्था के पूर्व तथा वयस्क होने पर अधिक होती है। डिप्थीरिया रोग बालकों में विशेषत: घातक होता है। शिक (Schick) परीक्षण द्वारा ऐसे बालकों का पता लगाया जा सकता है जो इस रोग के लिये विशिष्ट प्रतिपिंडों के अभाव में विशेष रूप से अरक्षित हैं। संक्रमण की आशंका होने पर ऐसे बालकों को वैक्सीन द्वारा प्रतिरक्षित किया जा सकता है। इस रोग के जीवाणु वायु के अतिरिक्त दूध में भी पाए जाते हैं और ऐसे दूषित दूध के सेवन से भी यह रोग हो सकता है। गर्दनतोड़ ज्वर के भी रोगवाहक होते हैं। पेनिसिलीन आदि जीवाणुद्वेषी द्रव्यों (antibiotics) द्वारा अथवा सल्फा औषधियों द्वारा उचित चिकित्सा करने से रोग पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। यही बात गलदाह तथा न्यूमोनिया के लिये भी लागू है। वास्तव में जीवाणुद्वेषी द्रव्यों के उपयोग से जैवाणुक रोगों की चिकित्सा सुगम और साध्य हो गई हैं। कुकुरखाँसी की तीव्रता से बचने के लिये वैक्सीन बहुत लाभदायक है। वास्तव में बालकों की रक्षा के लिये शीतला के टीके के अतिरिक्त यदि धनुस्तंभ, डिप्थीरिया तथा कुकुरखाँसी के त्रिक् वैक्सीन का भी टीका लिया जाय तो इन रोगों से बालमृत्यु में कमी के साथ इन रोगों की व्यापकता में भी कमी हो सकती है।