कुट्टनी

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लेख सूचना
कुट्टनी
पुस्तक नाम हिन्दी विश्वकोश खण्ड 3
पृष्ठ संख्या 58
भाषा हिन्दी देवनागरी
संपादक सुधाकर पांडेय
प्रकाशक नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
मुद्रक नागरी मुद्रण वाराणसी
संस्करण सन्‌ 1976 ईसवी
उपलब्ध भारतडिस्कवरी पुस्तकालय
कॉपीराइट सूचना नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी
लेख सम्पादक बलदेव उपाध्याय

कुट्टनी वेश्याओं को कामशास्त्र की शिक्षा देनेवाली नारी। वेश्या संस्था के अनिवार्य अंग के रूप में इसका अस्तित्व पहली बार पाँचवीं शती ई. के आसपास ही देखने में आता है। इससे अनुमान होता है कि इसका आविर्भाव गुप्त साम्राज्य के वैभवशाली और भोगविलास के युग में हुआ।

कुट्टनी के व्यापक प्रभाव, वेश्याओं के लिए महानीय उपादेयता तथा कामुक जनों को वशीकरण की सिद्धि दिखलाने के लिए कश्मीर नरेश जयापीड (779 ई.-812) के प्रधान मंत्री दामोदर गुप्त ने कुट्टनीमतम्‌ नामक काव्य की रचना की थी। यह काव्य अपनी मधुरिमा, शब्दसौष्ठव तथा अर्थगांभीर्य के निमित्त आलोचनाजगत्‌ में पर्याप्त विख्यात है, परंतु कवि का वास्तवकि अभिप्राय सज्जनों को कुट्टनी के हथकंडों से बचाना है। इसी उद्देश्य से कश्मीर के प्रसिद्ध कवि क्षेमेंद्र ने भी एकादश शतक में समयमातृका तथा देशोपदेश नामक काव्यों का प्रणयन किया था। इन दोनों काव्यों में कुट्टनी के रूप, गुण तथा कार्य का विस्तृत विवरण है। हिंदी के रीतिग्रंथों में भी कु ट्टनी का कुछ वर्णन उपलब्ध होता है।

कुट्टनी अवस्था में वृद्ध होती है जिसे कामी संसार का बहुत अनुभव होता है। कुट्टीनमत में चित्रित विकराला नामक कुट्टनी (कुट्टनीमत, आर्या 27-30) से कुट्टनी के बाह्य रूप का सहज अनुमान किया जा सकता है-अंदर को धँसी आँखें, भूषण से हीन तथा नीचे लटकनेवाला कान का निचला भाग, काले सफेद बालों से गंगाजमुनी बना हुआ सिर, शरीर पर झलकनेवाली शिराएँ, तनी हुई गरदन, श्वेत धुली हुई धोती तथा चादर से मंडित देह, अनेक ओषधियों तथा मनकों से अलंकृत गले से लटकनेवाला डोरा, कनिष्ठिका अँगुली में बारीक सोने का छल्ला। वेश्याओं को उनके व्यवसाय की शिक्षा देना तथा उन्हें उन हथकंडों का ज्ञान कराना जिनके बल पर वे कामी जनों से प्रभूत धन का अपहरण कर सकें, इसका प्रधान कार्य है। क्षेमेंद्र ने इस विशिष्ट गुण के कारण उसकी तुलना अनेक हिंस्र जंतुओं से की है-वह खून पीने तथा माँस खानेवाली व्य्घ्रााी है जिसके न रहने पर कामुक जन गीदड़ों के समान उछल कूछ मचाया करते है:

व्याध्रीव कुट्टनी यत्र रक्तपानानिषैषिणी।
नास्ते तत्र प्रगल्भन्ते जम्बूका इव कामुका:।।[१]

कुट्टनी के बिना वेश्या अपने व्यवसाय का पूर्ण निर्वाह नहीं कर सकती। अनुभवहीना वेश्या की गुरु स्थानीया कुट्टनी कामी जनों के लिये छल तथा कपट की प्रतिमा होती है, धन ऐंठने के लिए विषम यंत्र होती हैं; वह जनरूपी वृक्षों को गिराने के लिये प्रकृष्ट माया की नदी होती है जिसकी बाढ़ में हजारों संपन्न घर डूब जाते हैं :

जयत्यजस्रं जनवृक्षपातिनी।
प्रकृष्ट माया तटिनी कुट्टनी।।[२]

कुट्टनी वेश्या को कामुकों से धन ऐंठने की शिक्षा देती हैं, हृदय देने की नहीं; वह उसे प्रेमसंपन्न धनहीनों को घर से निकाल बाहर करने का भी उपदेश देती है। उससे बचकर रहने का उपदेश उपर्युक्त ग्रंथों में दिया गया है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. समयमातृका।
  2. देशोपदेश 1।2