सत्यनारायण शास्त्री
सत्यनारायण शास्त्री
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पुस्तक नाम | हिन्दी विश्वकोश खण्ड 12 |
पृष्ठ संख्या | 438 |
भाषा | हिन्दी देवनागरी |
संपादक | कमलापति त्रिपाठी |
प्रकाशक | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
मुद्रक | नागरी मुद्रण वाराणसी |
संस्करण | सन् 1964 ईसवी |
उपलब्ध | भारतडिस्कवरी पुस्तकालय |
कॉपीराइट सूचना | नागरी प्रचारणी सभा वाराणसी |
लेख सम्पादक | रामस्वरूप |
सत्यनारायण शास्त्री आधुनिक आयुर्वेद जगत् के प्रख्यात पंडित और चिकित्सा शास्त्री थे। आयुर्वेद की धवल परंपरा को सजीव बनाए रखने के लिए आपने जीवन भर कार्य किया। सत्यनारायण शास्त्री जन्म सन् 1887 ई. (संवत् 1944 की माघ कृष्ण गणेश चतुर्थी) को ननिहाल, काशी के अगस्तकुंडा मुहल्ले, में हुआ था। 8 वर्ष की अवस्था में ही इन्होंने भाषा गणित आदि विषयों का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था। महामहोपाध्याय पं. गंगाधर शास्त्री तथा महामहोपाध्याय शिवकुमार शास्त्री से आपने साहित्य, न्याय, विविध दर्शनों तथा अन्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त किया था। आपने ज्योतिविंद् जयमंगल ज्योतिषी से ज्योतिष का, योगिराज शिवदयाल शास्त्री से योग, वेदांग एवं तंत्र कवि राज धर्मदास से आयुर्वेद की शिक्षा प्राप्त की थी।
1925 ई. में ये काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयुर्वेद महाविद्यालय के प्राध्यापक नियुक्त हुए और 1938 ई. में इसके प्रिंसिपल हो गए। वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय में आण्युर्वेद विभाग खुलने पर वहाँ सम्मानित विभागाध्यक्ष और बाद में प्राचार्य नियुक्त हुए।
योगदान
सन् 1950 ई. में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने आपको अपना निजी चिकित्सक नियुक्त किया और उनकी मृत्यु तक उनके निजी चिकित्सक रहे। इस रूप में भी आपने आयुर्वेद जगत् का गौरववर्धन किया।ये अखिल भारतीय सरयूपारीण पंडित परिषद् और काशी शास्त्रार्थ-महासभा के अध्यक्ष, काशी विद्वत्परिषद् और विद्वत्प्रतिनिधि-सभा के संरक्षक भी थे। ये वाराणसेय शास्त्रार्थ महाविद्यालय के स्थायी अध्यक्ष और अर्जुन दर्शनानद आयुर्वेद महाविद्यालय, वाराणसी के संस्थापक भी थे। 1938 ई. में ये हिंदू विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय चिकित्सा परिषद् के सदस्य चुने गए थे। काशी की परंपरा के अनुसार प्रारंभ से ही शास्त्री जी गरीब तथा असहाय विद्यार्थियों को सहायता देकर घर पर ही उन्हें विद्यादान देते रहे।
हिंदी आंदोलन
सन् 1955 ई में 'पद्मभूषण' के अलंकरण से आपको विभूषित किया गया। आपकी यह उपाधि-भारत सरकार द्वारा संस्कृत और आयुर्वेद के प्रति की गई सेवाओं के लिए प्रदान की गई। किंतु 1967 ई. में हिंदी आंदोलन के समय जब नागरी प्रचारिणी सभा, काशी ने हिंदी सेवी विद्वानों से सरकारी अलंकरण के त्याग का अनुरोध किया तब आपने भी अलंकरण का त्याग कर दिया। नाड़ी ज्ञान तथा रोग निदान के पाप अन्यतम आचार्य थे। रोगी की नाड़ी देखकर रोग और उसके स्वरूप का सटीक निदान तत्काल कर देना अपकी सबसे बड़ी विशेषता रही।
23 सितंबर, 1969, मंगलवार को 82 वर्ष की आयु में अगस्तकुंडा स्थित निवास स्थान पर शास्त्री जी का देहांत हो गया। मृत्यु के कुछ देर पूर्व उन्होंने कहा-'अब त्रयोदशी हो गई, अच्छा मुहूर्त आ गया है।' आपने पद्मासन लगाकर बैठने की कोशिश की किंतु वह संभव न हो पाने के कारण आपने प्राणायाम किया और कुछ श्लोकों का उच्चारण करते हुए प्राण त्याग दिए।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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