भगवान् वेदव्यास, ने अपनी ज्ञानदृष्टि से सम्पूर्ण प्राणियों के निवास स्थान, धर्म, अर्थ और काम के भेद से त्रिविध रहस्य, कर्मोपासना ज्ञान रूप वेद, विज्ञान सहित योग, धर्म, अर्थ एवं काम, इन धर्म, काम और अर्थरूप तीन पुरूषार्थो के प्रतिपादन करने वाले विविध शास्त्र, लोक व्यावहार की सिद्धि के लिये आयुर्वेद, धनुर्वेद, स्थापत्यवेद, आदि लौकिक शास्त्र सब उन्हीं दश्ज्योति आदि से हुए हैं- इस तत्व को और उनके स्वरूप को भली भाँति अनुभव किया। उन्होंने ही इस महाभारत ग्रन्थ में, व्याख्या के साथ उस सब इतिहास का तथा विविध प्रकार की श्रुतियों के रहस्य आदि का पूर्ण रूप से निरूपण किया है और इस पूर्णता को ही इस ग्रन्थ का लक्षण बताया गया है। महर्षि ने इस महान ज्ञान का संक्षेप और विस्तार दोनों ही प्रकार से वर्णन किया है; क्योंकि संसार में विद्वान् पुरूष संक्षेप और विस्तार दोनों ही रीतियों को पसंद करते हैं। कोई-कोई इस ग्रन्थ का आरम्भ ‘नारायण’ ‘नमस्कृत्य’ से मानते हैं और कोई-कोई आस्तीक पर्व से। दूसरे विद्वान् ब्रह्मण उपरिचर वसुफी कथा से इसका विधि पूर्वक पाठ प्रारम्भ करते हैं। विद्वान् पुरूष इस भारत संहिता के ज्ञान को विविध प्रकार से प्रकाशित करते हैं। कोई–कोई ग्रन्थ की व्यवस्था करके समझाने मे कुशल होते हैं तो दूसरे विद्वान् अपनी तिक्ष्ण मेघाशक्ति के द्वारा इन ग्रन्थों को धारण करते है। सत्यवती नन्दन भगवान् व्यास ने अपनी तपस्या एवं ब्रह्मचर्य की शक्ति से सनातन वेद का विस्तार करके इस लोक पावन पवित्र इतिहास का निर्माण किया है। प्रशस्त व्रतधारी, निग्रहानुग्रह-समर्थ, सर्वज्ञ पराशरनन्दन ब्रह्मर्षि श्रीकृष्ण वैपायन इस इतिहास शिरोमणि महाभारत की रचना करके यह विचार करने लगे कि अब शिष्यों को इस ग्रन्थ का अध्ययन कैसे कराऊँ? जनता में इसका प्रचार कैसे हो। द्वैपायन ऋषि का यह विचार जानकर लोकगुरू भगवान् ब्रह्मा उन महात्मा की प्रसन्न्ता तथा लोक कल्याण की कामना से स्वयं ही व्यास जी के आश्रम पर पधारे। व्यास जी ब्रह्म जी को देखकर आश्चर्य चकित रह गये। उन्होनें हाथ जोड़कर प्रणाम किया और खडे़ रहे। फिर सावधान होकर सब ऋषि मुनियों के साथ उन्होनें ब्रह्मा जी के लिये आसन की व्यवस्था की। जब उस श्रेष्ठ आसन पर ब्रह्मा जी विराज गये, तब व्यास जी ने उनकी परिक्रमा की और ब्रह्माजी के आसन के समीप ही विनय पूर्वक खडे़ हो गये। परमेष्टी ब्रह्माजी की आज्ञा से वे उनके आसन के पास ही बैठ गये। उस समय व्यास जी के हृदय में आन्न्द का समुद्र उमड़ रहा था और सुख पर मन्द-मन्द पवित्र मुस्कान लहरा रही थी। परम तेजस्वी व्यास जाने परमेष्ठी ब्रह्माजी से निवेदन किया ‘भगवन् ! मैंने यह सम्पूर्ण लोकों से अत्यन्त पूजित एक महाकाव्य की रचना की है। ब्रह्मन् ! मैंने स महाकाव्य में सम्पूर्ण वेदों का गुप्ततम रहस्य तथा अन्य सब शास्त्रों का सार-सार संकलित करके स्थापित कर दिया है। केवल वेदों क ही नहीं, उनके अगं एवं उपनिषदों का भी इसमें विस्तार से निरूपण किया है। इस ग्रन्थ में इतिहास और पुराणों का मन्यन करके उनका प्रश्स्त रूप प्रकट किया गया है। भूत, वर्तमान और भविष्यकाल की इन तीनों संज्ञाओं का भी वर्णन हुआ है।
इस ग्रन्थ में बुढ़ापा, मृत्यु, भय, रोग और पदार्थो के सत्यत्व ऑर मिथ्यात्मक विशेष रूप से निश्चय किया गया है तथा अधिकारी-भेद से भिन्न-भिन्न प्रकार के धर्मो एवं आश्रमों का भी लक्षण बताया गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्णो के कर्तव्य का विधान, पुराणों का सम्पूर्ण मूलतत्व भी प्रकट हुआ है। तपस्या एवं ब्रह्मचर्य के स्वरूप, अनुष्ठान एवं फलों का विवरण, पृथ्वी, चन्द्रमा, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा, सत्ययुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग-इन सबके परिमाण और प्रमाण, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और इनके आध्यात्मिक अभिप्राय और अध्यात्म शास्त्र का इस ग्रन्थ में विस्तार से वर्णन किया गया है। न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, दान तथा पाशुपत (अन्तर्यामी की महिमा) का भी इसमें विशद निरूपण है। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि देवता, मनुष्य आदि भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म का कारण क्या है? लोकपावन तीर्थो, देशों, नदियों, पर्वतों, वनों और समुद्र का भी इसमें वर्णन किया गया है। दिव्य नगर एवं दुर्गो के निर्माण का कौशल तथा युद्ध की निपुणता का भी वर्णन है। भिन्न-भिन्न भाषाओं और जातियों जो विशेषताएँ है, लोक व्यवहार की सिद्धि के लिये जो कुछ आवश्यक है तथा और भी जितने लोकोपयोगी है; परन्तु मुझे इस बात की चिन्ता है कि पृथ्वी में इस ग्रन्थ को लिख सके ऐसा कोई नहीं है। ब्रह्माजी ने कहा–व्यास जी ! संसार में विशिष्ट तपस्या और विशिष्ट कुल के कारण जितने भी श्रेष्ठ ऋषि-मुनि हैं, उनमें मैं तुम्हें सर्वश्रेष्ट समझता हूँ; क्योंकि तुम जगत् जीव और ईश्वर-तत्व का जो ज्ञान है, उसके ज्ञाता हो। मैं जानता हूँ कि आजीवन तुम्हारी ब्रह्मवादिनी वाणी सत्य भाषण करती रही है और तुमने अपनी रचना को काव्य कहा हैं, इसलिये अब यह काव्य के नाम से ही प्रसिद्ध होगी।
|