महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 54-69

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द्वितीय अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व द्वितीय अध्याय श्लोक 71-84
उस प्रकार अवि़द्या, कर्म और तृष्णा द्वारा चक्र की भाँति भ्रमण करता हुआ मनुष्य संसार की विभिन्न योनियों में गिरता है। फिर तो ब्रह्मजी से लेकर तृणपर्यन्त सभी प्राणियों में तथा जल भूमि और आकाश के वह मनुष्य बारम्बार जन्म लेकर चक्क्र लगाता रहता है। यह अविवेकी पुरूषों की गति बतायी गयी है। अब आप मुझसे विवेकी पुरूषों की गति का वर्णन सुनें। जो धर्म एवं कल्याण मार्ग में तत्पर है और मोक्ष के विषय में जिनका निरन्तर अनुराग है, वे विवेकी हैं। वेद की यह आज्ञा है कि कर्म करो और कर्म छोडो अतः आगे बताये जाने वरले सभी धर्मों का अहंकार शून्य होकर नुष्ठान करना चाहिए। यज्ञ, अध्ययन, दान, तन, सत्य, क्षमा मन और इन्द्रियों का संयम तथा लोभ का परित्याग--ये धर्म के आठ मार्ग हैं। इनमें से पहले बताये हुए चार धर्म पितृयान के मार्ग में स्थित हैं अर्थात् इन चारों का सकाम भाव से अनुष्ठान करने पर ये पितृयान मार्ग ले जाते हैं। अग्निहोत्र और संध्योपासनदि जो अवश्य करने योग्य कर्म हैं उन्हें कर्तव्य बुद्धि से ही अभिमान छोड़कर करे। अन्तिम चार धर्मों को देवायन मार्गका स्वरूप बताया गया है। साधु पुरूष सदा दसी मार्ग का आश्रय लेते हैं। आगे बताये जाने वाले आठ अंगों से युक्त मार्ग द्वारा अपने अन्तःकरण को शुद्ध करके कर्तव्य कर्मों का कर्तृत्व के अभिमान से रहित होकर पालन करे । पूर्णतया संकल्पों के एक ध्येय में लगा देने से इन्द्रियों को भली प्रकार वश में कर लेने से, अहिंसादि व्रतों का अच्छी तरह पालन करने से भली प्रकार शुरू की सेवा करने से, यथायोग्य यागसाधनापयोगी आहार करने से, वेदादि का भली प्रकर अध्ययन करने से कर्मों को भली-भाँति भगवतसमपर्ण करने से और चित्त का भली प्रकार निरोध करने से मनुष्य परम कल्याण को प्राप्त होता है। संसार को जीतने की इच्छा वाले बुद्धिमान पुरूष इसी प्रकार राग-द्वेष से मुक्त होकर कर्म करते हैं। इन्हीं नियमों के पालन से देवता लोग ऐश्वर्य को प्राप्त हुए हैं। रूद्र, साध्य, आदित्य, वसु तथा दोनों अश्विनी कुमार योगजनित ऐश्वर्य से मुक्त होकर इन प्रजाजनों का धारण-पोषण करते हैं। कुन्तीनन्दन ! इसी प्रकार आप भी मन और इन्द्रियों को भली भाँति वश में करके तपस्या द्वारा ऐश्वर्य प्राप्त करने की चेष्टा कीजिए। यज्ञ, युद्धादि कर्मों से प्राप्त हाने वाली सिद्धि पितृ-मातृमयी (परलोक और इस लोक में भी लाभ पहुँचाने वाली ) है, जो आपको प्राप्त कर चुकी है। अब तपस्या द्वारा योगसिद्धि प्राप्त करने का प्रयत्न करजिये, जिस सक ब्राह्मणों का भरण पोषण हो सके । सिद्ध पुरूष जो-जो वस्तु चाहते है,उस अपने तप के प्रभाव से प्राप्त कर लेते हैं अतः आप तपस्या का आश्रय लेकर अपने मनोरथ की पूर्ति कीजिये।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अरणयपर्व में पाणडवों प्रव्रजन (वन-गमन) विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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