महाभारत वन पर्व अध्याय 2 श्लोक 36-53

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द्वितीय अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व द्वितीय अध्याय श्लोक51-70

युधिष्ठिर ने कहा – ब्रह्मन ! मैं जो धन चाहता हूँ, वह इसलिये नहीं कि मुझे धन संबंधी भोग भोगने की इक्ष्‍छा है; मैं तो ब्राह्मणों के भरण-पोषण के लिए ही धन की इच्‍छा रखता हूँ,लोभ वश नहीं। विप्रवर ! गृहस्थ-आश्रम में रहने वाला मेरे जैसा पुरूष अपने अनुयायियों भरण-पोषण भी न करे यह कैसे उचित को सकता है। गृहस्थ के भोजन में देवता,पितृ, मनुष्य एवं समस्त प्राणियों का हिस्सा देखा जाता है। गृहस्थ का धर्म है कि वह अपने हाथ से भोजन न बनाने वाले संन्यासी आदि को अवश्य पका-पकाया अन्न दे। आसन के लिए तृण (कुश) बैठने के लिए स्थान जल और चौथी मधुर वाणी सत्पुरुषों के घर में इन चार वस्तुओं का अभाव कभी नहीं होता। रोग आदि से पीडित मनुष्य का सोने के लिये शय्या थके माँदे हुए को बैठने के लिए आसन प्यासे को पानी और भूखे को भोजन तो देना ही चाहिये।जो अपने घर पर आ जाये उसे प्रेम भरी दृष्टि से देखें, मन से उसके प्रति उत्तम भाव रखें, उससे मीठे वचन बोलें और उठ के उसके लिए आसन दें। यह गृहस्थ का सनातन धर्म है। अतिथि को आते देख उठ कर उसकी अगवानी और यथोचित रीति से उसका आदर सत्कार करें।
यदि गृहस्थ मनुष्य अग्निहो़त्र, जाति-भाई अतिथि अभ्यासगत बन्धु-बान्धव स्त्री-पुत्र तथा मृत्यु जनों का आदर-सत्कार करे तो व अपनी क्रोधाग्नि से उसे जला सकते हैं। केवल अपने लिए अन्न न पकावें (देवता-पितरों एवं अतिथियों के उद्देश्य से ही भोजन बनाने का विधान है) निकम्मे पशुओं पर हानि न करें और जिस वस्तु को विधि पूर्वक देवता आदि के लिये अर्पित न करें उसे स्वयं भी न खाय। कुत्तों, चाण्डालों और कौवों के लिए पृथ्वी पर अन्न डाल दें। यह वैश्व देव नामक महान यज्ञ है जिसका अनुष्ठान प्रातः काल और सायंकाल में भी किया जाता है। अतः गृहस्थ मनुष्य प्रतिदिन विघस एवं अमृत भोजन करे। घर के सब लोगों के भोजन कर लेने पर जो अन्न शेष रह जाये उसे विघस कहते है तथा कलिवैश्देव से बचे हुए देव का नाम अमृत है। अतिथि को नेत्र दें (उसे प्रेम भरी दृष्टि से देखें) मन दें (मन से हित-चिन्तन करें ) तथा मधुर वाणी प्रदान करें (सत्य प्रिय हित ही बात कहें)। जब वह जाने लगे तब कुछ दूर तक उसके पीछे-पीछे जायें और वह जब तक घर पर रहे, ताब तक उसके पास बैठें (उसकी सेवा में लगे रहें )। यह पाँच प्रकार की दक्षिाणाओं से युक्त अतिथि यज्ञ है, जो गुहस्थ अपरिचित थके-माँदे पथिक को प्रसन्नता पूर्वक भोजन देता है उसे महान पुण्य फल की प्राप्ति हेती है। ब्रह्मन् जो गृहस्थ इस वृत्ति से रहता है, उसके लिये उत्तम धर्म की प्राप्ति बतायी गयी है,अथवा इस विषय में आपकी क्या सम्मती है ।

शौनकजी ने कहा- अहो ! बहुत दुःख की बात है, इस जगत में विपरीत बातें दिखायी देती हैं। साधु पुरूष जिस कर्म से लज्जित होते हैं, दुष्ट मनुष्यों को उसी से प्रसन्नता प्राप्त होती है। अज्ञानी मनुष्य अपनी जननेंन्द्रिय तथा उदर की तृप्ति के लिए मोह एवं राग के वशीभूत हो अनुसरण करता हुआ नाना प्रकार की विषय-सामग्री को यज्ञावशेष मानकर उनका संग्रह करता है। समझदार मनुष्य भी मन को हर लेने वाली इन्द्रियों द्वारा विषयों की ओर खींच लिया जाता है। उस समय उसकी विचार शक्ति मोहित हो जाती है। जैसे दुष्ट घोड़े वश में न हाने पर सारथी को कुमार्ग में घसीट ले जाते हैं यही दशा उस अजितेन्द्रिय पुरूष की भी होती है। जब मन और पाँचों इन्द्रियाँ अपने विषयों में प्रवृत्त होती है उस समय प्राणियों के पूर्व संकल्प के अनुसार उसी की वासना से वासित मन विचलित हो उठता है। मन जिस इन्द्रिय के विषयों का सेवन करने जाता है, उसी में उस विषय के प्रति उत्सुकता भर जाती है और वह इन्द्रिय उस विषय के उपभोग में प्रवृत्त हो जाती है। तदनन्तर संकल्प ही जिसका बीज है उस काम के द्वारा विषय रूपी बाणों से बंधकर मनुष्य ज्योति के लोभ से पतंग की भाँति लाभ की आग में गिर पड़ता हैं। इसके बाद इच्छानुसार आहार-विहार से मोहित हो महामोह मय सुख में निमग्न रहकर वह मनुष्य अपने आत्मा के ज्ञान से वंचित हो जाता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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