इस महाभारत ग्रन्थ में व्यास जी ने कुरूवंश के विस्तार, गान्धारी की धर्मशीलता, बिदुर की उत्तम प्रज्ञा और कुन्ती देवी के धैर्य का भील भाँति वर्णन किया है। महर्षि भगवान् व्यास ने इसमें वसुदेव नन्दन श्री कृष्ण के महात्म्य, पाण्डवों की सत्य परायणता तथा घृतराष्ट्र पुत्र दुर्योधन आदि के दुर्व्यवहारों का स्पष्ट उल्लेख किया है। पुण्य कर्मा मानवों के उपाख्यानों सहित एक लाख श्लोकों के इस उत्तरग्रन्थ को आद्य भारत (महाभारत) जानना चाहिये। तदनन्तर व्यास जी ने उपाख्यान भाग को छोड़कर चौबीस हजार श्लोकों की भारत संहिता बनायी; जिसे विद्वान् पुरूष भारत कहते हैं। इसके पश्चात् महर्षि ने पुन: पर्व सहित ग्रन्थ में वर्णित वृत्तन्तों की अनुक्रमणिका (सूची) का एक संक्षिप्त अध्याय बनाया, जिसमें केवल डेढ़ सौ श्लोक हैं। व्यास जी ने सबसे पहले अपने पुत्र शुकदेव जी को इस महाभारत ग्रन्थ का अध्ययन कराया। तदनन्तर उन्होंने दूसरे दूसरे सुयोग्य (अधिकारी एवं अनुगत) शिष्यों को इसका उपदेश दिया। तत्पश्चात भगवान् व्यास ने साठ लाख श्लोकों की एक दूसरी संहिता बनायी। उसके तीन लाख श्लोक देवलोक में समाद्दत हो रहे हैं, पितृलोक में पंद्रह लाख तथा गन्धर्वलोक में चौदह लाख श्लोकों का पाठ होता है। इस मनुष्य लोक में एक लाख श्लोकों का आद्यभारत (महाभारत) प्रतिष्ठित है। देवर्षि नारद ने देवताओं को और असित देवलने पितरों को इसका श्रवण कराया है। शुकदेव जी ने गन्धव, यक्ष तथा राक्षसों को महाभारत की कथा सुनायी है; परन्तु इस मनुष्य लोक में सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि व्यास शिष्य धर्मात्मा वैशम्पायन जी ने इसका प्रवचन किया है। मुनिवरो ! वही एक लाख श्लोकों का महाभारत आप लोग मुझसे श्रवण कीजिये। दुर्योधन क्रोधमय विशाल वृक्ष के समन है। कर्ण स्कन्ध, शकुनि शास्त्रा और दु:शासन समृद्ध फल पुष्प है। अज्ञानी राजा धृतराष्ट्र ही इसके मूल हैं[१]।
युधिष्ठिर धर्ममय विशाल वृक्ष हैं। अर्जुन स्कन्ध, भीमसेन शाखा और माद्रीनन्दन इसके समृद्ध फल पुष्प हैं। श्री कृष्ण, वेद और ब्राह्मण ही इस वृक्ष के मूल (जड़) हैं[२]। महाराज पाण्डु अपनी बुद्धि और पराक्रम से अनेक देशों पर विजय पाकर (हिसंक) मृगों को मारने के स्वभाव वाले होने के कारण ऋषि-मुनियों के साथ वन में ही निवास करते थे। एक दिन उन्होंने मृगरूपधारी महर्षि को मैथुनकाल में मार डाला। इससे वे बड़े भारी संकट में पड़ गये (ऋषि ने यह शाप दे दिया कि स्त्री सहवास करने पर तुम्हारी मृत्यु हो जायगी), यह संकट होते हुए भी युधिष्ठिर आदि पाण्डवों के जन्म से लेकर जात कर्म आदि सब संस्कार वन में ही हुए और वहीं उन्हें शील एवं सदाचार की रक्षा का उपदेश हुआ। पूर्वोक्तशाप होने पर भी संतान होने का कारण यह था कि कुल धर्म की रक्षा के लिये दुर्वासा द्वारा प्राप्त हुई विद्या का आश्रम लेने के कारण पाण्डवों की दोनों माताओं कुन्ती और माद्री के समीप क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा दोनों अश्विनीकुमार- इन देवताओं का आगमन सम्भव हो
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