महाभारत वन पर्व अध्याय 8 श्लोक 1-12

अद्‌भुत भारत की खोज
Bharatkhoj (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित ०६:३९, २८ जून २०१५ का अवतरण ('== अष्टम अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)== {| style="background:none;" width="100%" ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अष्टम अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व अष्टम अध्याय श्लोक 1-24
व्यासजी ने धृतराष्ट्र दुर्योधन के अन्याय को रोकने के लिये अनुरोध

व्यासजी ने कहा- महाप्राज्ञ धृतराष्ट्र ! तुम मेरी बात सुनो, मैं तुम्हें समस्त हित की उत्तम बात बताता हूँ। महाबाहो ! पाण्डव लोग जो वन में भेजे गये हैं, यह मुझे अच्छा नहीं लगा है। दुर्योधन आदि ने उन्हें छलपूर्वक जूए में हराया है। भारत ! वे तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर अपने को दिये हुए क्लेश याद करके कुपित हो कौरवों पर विष उगलेंगे अर्थात् विष के समान घातक अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करेंगे। ऐसा जानते हुए भी तुम्हारा यह पापात्मा एवं मूर्ख पुत्र क्यों सदा रोष में रहकर राज्य के लिये पाण्डवों का वध करना चाहता है। तुम इस मूढ़को रोको। तुम्हारा यह पुत्र शान्त हो जाय। यदि इसने वनवासी पाण्डवों को मार डालने की इच्छा की, तो यह स्वयं ही अपने प्राणों को खो बैठेगा। जैसे ज्ञानी विदुर, भीष्म, मैं, कृपाचार्य तथा द्रोणाचार्य हैं, वैसे ही साधुस्वभाव तुम भी हो। महाप्राज्ञ ! स्वजनों के साथ कलह अत्यन्त निन्दित माना गया है। वह अधर्म एवं अयंश बढ़ाने वाला है; अतः राजन् ! तुम स्वजनों के साथ कलह में न पड़ो। भारत ! पाण्डवों के प्रति इस दुर्योधन का जैसा विचार है, यदि उसकी उपेक्षा की गयी--उसका शमन न किया गया, तो उसका विचार महान् अत्याचारी की सृष्टि कर सकता है। अथवा तुम्हारा यह मन्दबुद्धि पुत्र अकेला ही दूसरे किसी सहायक को लिये बिना पाण्डवों के साथ वन में जाय। मनुजेश्वर ! वहाँ पाण्डवों के संसर्ग में रहने से तुम्हारे पुत्र के प्रति उनके ह्रदय में स्नेह हो जाय, तो तुम आज ही कृतार्थ हो जाओगे। किंतु महाराज ! जन्म के समय किसी वस्तु का जैसा स्वभाव बन जाता है,वह दूर नहीं होता। भले ही वह वस्तु अमृत क्यों न हो? यह बात मेरे सुनने में आयी है। अथवा इस विषय में भीष्म,द्रोण विदुर या तुम्हारी क्या सम्मति है? यहाँ जो उचित हो, वह कार्य पहले करना चाहिये, उसी से तुम्हारे प्रयोजन की सिद्धि हो सकती है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्‍तर्गत अरण्यपर्व में व्‍यासवाक्‍यविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ।




« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख