महाभारत अादि पर्व अध्याय 1 श्लोक 12-27
प्रथम अध्याय: आदिपर्व (अनुक्रमणिका पर्व)
मैं बहुत से तीर्थों एवं धामों की यात्रा करता हुआ ब्राह्मणों के द्वारा सेवित उस परम पुण्यमय समन्तपञचक क्षेत्र कुरूक्षेत्र देश में गया, जहाँ पहले कौरव-पाण्डव एवं अन्य सब राजाओं का युद्ध हुआ था। वहीं से आप लोगों के दर्शन की इच्छा लेकर मैं यहाँ आपके पास आया हूँ। मेरी यह मान्यता है कि आप सभी दीर्घायु एवं ब्रह्मस्वरूप हैं। ब्राह्मणों ! इस यज्ञ में सम्मलित आप सभी महात्मा बड़े भाग्यशाली तथा सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी हैं। इस समय आप सभी स्नान, संध्या वन्दन, जप और अग्निहोत्र आदि करके शुद्ध हो अपने-अपने आसन पर स्वस्थचित से विराजमान हैं। आज्ञा कीजिये, मैं आप लोगों को क्या सुनाऊँ? क्या मैं आप लोगों को धर्म और अर्थ के गूढ़ रहस्य से युक्त, अन्त:करण को शुद्ध करने वाली भिन्न-भिन्न पुराणों की कथा सुनाऊॅ अथवा उदार चरित महानुभाव ऋषियों एवं सम्राटों के पवित्र इतिहास ? ऋषियों ने कहा—उग्रश्रवा जी ! परमर्षि श्रीकृष्ण द्वैपायन ने जिस प्राचीन इतिहास रूप पुराण का वर्णन किया है और देवताओं तथा ऋषियों ने अपने-अपने लोक में श्रवण करके जिसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है, जो आख्यानों में सर्वश्रेष्ठ है, जिसका एक-एक पद, वाक्य एवं पर्व विचित्र शब्द विन्यास और रमणीय अर्थ से परिपूर्ण है, जिसमें आत्मा-परमात्मा के सूक्ष्म स्वरूप का निर्णय एवं उनके अनुभव के लिये अनुकूल युक्तियाँ भरी हुई हैं और जो सम्पूर्ण वेदों के तात्पर्यानुकूल अर्थ से अलंकृत है, उस भारत इतिहास के परम पुण्यमय, ग्रन्थ के गुप्त भावों को स्पष्ट करने वाली, पदों वाक्यों की व्युत्पत्ति से युक्त, सब शास्त्रों के अभिप्राय के अनुकूल और उनसे समर्थित हो अदभ्रकर्म व्यास की संहिता है, उसे हम सुनना चाहते है। अवश्य ही वह चारों वेदों के अर्थो से भरी हुई तथा पुण्यस्वरूप है। पाप और भय को नाश करने वाली है। भगवान वेदव्यास की आज्ञा से राजा जनमेजय के यज्ञ में प्रसिद्ध ऋषि वैशम्पायन ने आनन्द में भरकर भली भाँति इसका निरूपण किया है। उगश्रवा जी ने कहा– जो सबका आदि कारण अन्तर्यामी और नियन्ता है, यज्ञों में जिसका आवाहन और जिसके उद्देश्य से हवन किया जाता है, जिसकी अनेक पुरुषों द्वारा अनेक नामों से स्तुति की गयी है, जो ऋत (सत्यस्वरूप), एकाक्षर ब्रह्म (प्रणव एवं एकमात्र अविनाशी और सर्वव्यापी परमात्मा), व्यक्ताव्यक्त (साकार-निराकार) स्वरूप एवं सनातन है, असत्-सत् एवं उभयरूप से जो स्वयं विराजमान है; फिर भी जिसका वास्तविक स्वरूप सत्-असत दोनों से विलक्षण है, यह विश्व जिससे अभिन्न है, जो सम्पूर्ण परावर (स्थूल-सूक्ष्म) जगत का सृष्टा पुराण पुरुष, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर एवं वृद्धि-क्षय आदि विकारों से रहित है, जिसे पाप कभी छू नहीं सकता, जो सहज शुद्ध है, वह ब्रह्म ही मंगलकारी एवं मंगलमय विष्णु है। उन्हीं चराचर गुरू ऋषिकेश (मन-इन्द्रियों के प्रेरक) श्रीहरि को नमस्कार करके सर्वलोक पूजित अद्भुत कर्मा महात्मा महर्षि व्यासदेव के इस अन्त:करणाशोचक मत का मैं वर्णन करूँगा॥ |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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