महाभारत वन पर्व अध्याय 29 श्लोक 1-16

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उन्‍तीसवाँ अध्‍याय: वनपर्व (अरण्‍यपर्व)

महाभारत वनपर्व अध्याय 29 श्लोक 1- 27 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर के द्वारा क्रोध की निदा और क्षमाभाव की विशेष प्रशंसा

युधिष्ठिर बोले-परम बुद्धिमती द्रौपदी ! क्रोध ही मनुष्यों को मारने वाला है और क्रोध ही यदि जीत लिया जाय तो अभ्युदय करने वाला है। तुम यह जान लो कि उन्नति और अवनति दोनों क्रोध मूलक ही हैं( क्रोध को जीतने उन्नति वशीभूत होने से अवनति होती है)। सुशोभने ! जो क्रोध को रोक लेता है, उसकी उन्नति होती और जो मनुष्य क्रोध के वेग को भी सहन नहीं कर पाता, उसके लिये वह परम भयंकर क्रोध विनाशकारी बन जाता है।। 2 ।। इस जगत में क्रोध के कारण लोगों का नाश होता दिखायी देता है; इसलिये मेरे-जैसा मनुष्य लोक विनाशक क्रोध का उपयोग दूसरों पर करेगा? क्रोधी मनुष्य पाप कर सकता है, क्रोध के वशीभूत मानव गुरुजनों की हत्या कर सकता है और क्रोध में भरा हुआ पुरुष अपनी कठोर वाणी द्वारा श्रेष्ठ मनुष्यों का भी अपमान कर देता है। क्रोधी मनुष्‍य कभी यह नहीं समझ पाता कि क्या कहना चाहिये और क्या नहीं। क्रोधी के लिये कुछ भी अकार्य अथवा अवाच्य नहीं है। क्रोध वश वह मनुष्य पुरुषों की भी हत्या कर सकता है और वध के योग्य मनुष्यों की भी पूजा में तत्पर हो सकता है। इतना ही नहीं, क्रोधी मानव ( आत्म हत्या द्वारा ) अपने आप को भी यमलोक का अतिथि बना सकता है। इन दोषों को देखने वाले मनस्वी पुरुषों ने, जो इहलोक और परलोक में भी परम उत्तम कल्याण की भी इच्छा रखते हैं,क्रोध को जीत लिया। अतः धीर पुरुषों ने जिसका परित्याग कर दिया है। उस क्रोध को मेरे-जैसा मनुष्य कैसे उपयोग में ला सकता है? द्रुपदकुमारी ! यही सोचकर मेरा क्रोध कभी नहीं बढ़ता है। क्रोध करने वाले पुरुष के प्रति जो बदले में क्रोध नहीं करता, वह अपने को और दूसरों को भी महान् भय से बचा लेता है। वह अपने और पराये दोनों के दोषों को दूर करने के लिये चिकित्सक बन जाता है। यदि मूढ़ एवं असमर्थ मनुष्य दूसरों द्वारा क्लेश दिये जाने पर स्वयं भी बलिष्ठ मनुष्यों पर क्रोध करता है तो वह अपने ही द्वारा अपने आपका विनाश कर देता है। अपने चित्त को वश में रखने के कारण क्रोध वश देहत्याग करनेवाले उस मनुष्य के लोक और परलोक दोनों नष्ट हो जाते हैं। अतः द्रुपदकुमारी ! असमर्थ के लिये अपने क्रोध को रोकना ही अच्छा माना गया है। इसी प्रकार जो विद्वान् पुरुष शक्तिशाली होकर भी दूसरों द्वारा क्लेश दिये जाने पर स्वयं क्रोध नहीं करता, वह क्लेश देने वाले का नाश न करके परलोक में भी आनन्द का भागी होता है। इसलिये बलवान् या निर्बल सभी विश मनुष्यों को सदा आपत्ति काल में भी क्षमाभाव का ही आश्रय लेना चाहिये। कृष्णे ! साधु पुरुष क्रोध को जीतने की ही प्रशंसा करते हैं। संतो का यह मत है कि इस जगत में क्षमाशील साधु पुरुष की सदा जय होती है। झूठ से सत्य श्रेष्ठ है। क्रूरता से दयालुता श्रेष्ठ है, अतः दुर्योधन मेरा वध कर डाले तो भी इस प्रकार अनेक तो भी इस प्रकार अनेक दोषों से भरे हुए सत्पुरुषों द्वारा परित्यक्त क्रोध का मेरे जैसा-पुरुष कैसे उपयोग कर सकता है? दूरदर्शी विद्वान् जिसे तेजस्वी कहते हैं, उसके भीतर क्रोध नहीं होता; यह निश्चित बात है। जो उत्पन्न क्रोध को अपनी बुद्धि से दबा देता है, उसे तत्वदर्शी विद्वान् तेजस्वी मानते हैं। सुन्दरी ! क्रोधी मनुष्य किसी कार्य को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता। वह यह भी नहीं जानता कि मर्यादा क्या है ( अर्थात क्या करना चाहिये ) और क्या नहीं करना चाहिये। क्रोधी मनुष्य अवध्य पुरुषों का वध कर देता है। क्रोधी मनुष्य गुरुजनों को कटु वचनों द्वारा पीड़ा पहुँचाता है। इसलिये जिसमें तेज हो, उस पुरुष को चाहिये कि वह क्रोध को अपने से दूर रखे। दक्षता, अमर्ष, शौर्य और शीघ्रता-ये तेज के गुण हैं। जो मनुष्य क्रोध से दबा हुआ है, वह इन गुणों की सहज में ही नहीं पा सकता। क्रोध का त्याग करके मनुष्य भली भाँति तेज प्राप्त कर लेता है। महाप्राज्ञे ! क्रोधी पुरुषों के लिये समय के उपयुक्त तेज अत्यन्त दुःसह है। मूर्ख लोग क्रोध को ही सदा मानते हैं। परंतु रजोगुण जनित क्रोध का यदि मनुष्यों के प्रति प्रयोग हो तो वह लोगों के नाश का कारण होता है। अतः सदाचारी पुरुष सदा क्रोध का परित्याग करे। अपने वर्णधर्म के अनुसार न चलने वाला मनुष्य ( अपेक्षाकृत ) अच्छा, किंतु क्रोधी नहीं अच्छा-यह निश्चय है। साध्वी द्रौपदी ! यदि मूर्ख और अविवेकी मनुष्य क्षमा आदि सद्गुणों का उल्लंघन कर जाते हैं तो मेरे जैसा विज्ञ पुरुष उनका अतिक्रमण कैसे कर सकता है? यदि मनुष्यों में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष न हों तो मानवों में कभी सन्धि नहीं हो सकती; क्योंकि झगड़े की जड़ तो क्रोध ही है। यदि कोई अपने को सतावे तो स्वयं भी उसको सतावे। औरों की तो बात ही क्या है, यदि गुरुजन अपने को मारें तो उन्हें भी मारे बिना न छोड़़े; ऐसी धारणा रखने के कारण सब प्राणियों का ही विनाश हो जाता है और अधर्म बढ़ जाता है। यदि सभी क्रोध के वशीभूत हो जायँ तो एक मनुष्य दूसरे के द्वारा गाली खाकर स्वयं भी बदलें में उसे गाली दे सकता है। मार खाने वाला मनुष्य बदले में मार सकता है। एक का अनिष्ठ होने पर वह दूसरे का भी अनिष्ठ कर सकता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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