उन्तीसवाँ अध्याय: वनपर्व (अरण्यपर्व)
महाभारत वनपर्व अध्याय 29 श्लोक 28- 52 का हिन्दी अनुवाद
पिता पुत्रों को मारेंगे और पुत्र पिता को, पति पत्नियों को मारेंगे और पत्नियाँ पति को। कृष्णे ! इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् के क्रोध का शिकार हो जाने पर तो कहीं शान्ति नहीं रहती। शुभानने ! तुम यह जान लो कि सम्पूर्ण प्रजा की सन्धि मूलक ही है। द्रौपदी ! यदि राजा तुम्हारे कथानुसार क्रोधी हो जाय तो सारी प्रजाओं का शीघ्र ही नाश हो जायगा। अतः यह समझ लो कि प्रजावर्ग के नाश और अवनति का कारण है। हम इस जगत् में पृथ्वी के समान क्षमाशील पुरुष भी देखे जाते हैं, इसीलिये प्राणियों का जीवन बताया गया है। सुशोभने ! पुरुष को सभी आपत्तियों क्षमाभाव रखना चाहिये। क्षमाशील पुरुष ही समस्त प्राणियों का जीवन बताया गया है। जो बलवान् पुरुष के गाली देने या कुपित होकर मारने पर भी क्षमा कर जाता है तथा जो सदा अपने क्रोध-को काबू में रखता है, वही विद्वान् और वही श्रेष्ठ पुरुष है। वही मनुष्य प्रभावशाली कहा जाता है। उसी को सनातन लोक प्राप्त होते हैं। क्रोधी मनुष्य अल्पज्ञ होता है। वह इस लोक और परलोक दोनों में विनाश का ही भागी होता है। इस विषय में जानकर लोग क्षमावान् पुरुषों की गाथा का उदाहरण देते हैं। कृष्णे ! क्षमावान् महात्मा काश्यप ने इस गाथा का गान किया था। क्षमा धर्म है, क्षमा यज्ञ है, क्षमा वेद है और क्षमा शास्त्र है। जो इस प्रकार जानता है, वह सब कुछ क्षमा करने के योग्य हो जाता है। क्षमा ब्रह्मा है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है और क्षमा शौच है। क्षमा ने ही सम्पूर्ण जगत्-को धारण कर रक्खा है। क्षमाशील मनुष्य यज्ञवेता, ब्रह्मवेत्ता और तपस्वी पुरुषों से भी ऊँचे लोक प्राप्त करते हैं। ( सकामभाव से ) यज्ञ कर्मों का अनुष्ठान करने वाले पुरुषों के लोक दूसरे हैं एवं ( सकामभाव से ) वापी, कूप, तडाग और दान आदि कर्म करने वाले मनुष्यों के लोक दूसरे हैं। परंतु क्षमावानों के लोक ब्रह्मलोक के अन्तर्गत हैं; जो अत्यन्त पूजित हैं। क्षमा तेजस्वी पुरुषों का तेज है, क्षमा तपस्वियों का ब्रह्म है, क्षमा सत्यवादी पुरुषों का सत्य है। क्षमा यज्ञ है और क्षमा शम ( मनोनिग्रह ) है। कृष्णे ! जिसका महत्व ऐसा बताया गया है, जिसमें ब्रह्म, सत्य, यज्ञ और लोक सभी प्रतिष्ठित हैं, उस क्षमा को मेरे-जैसा मनुष्य कैसे छोड़ सकता है। विद्वान् पुरुष को सदा क्षमा का ही आश्रय लेना चाहिये। जब मनुष्य सब कुछ सहन कर लेता है, तब वह ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है। क्षमावानों के लिये ही यह लोक है। क्षमावानों के लिये ही परलोक है। क्षमाशील पुरुष इस जगत में सम्मान और परलोक में उत्तम गति पाते हैं। जिन मनुष्यों का क्रोध सदा क्षमाभाव से दबा रहता है, उन्हें सर्वोत्तम लोक प्राप्त होते हैं। अत: क्षमा सबसे उत्कृष्ट मानी गयी है। इस प्रकार काश्यपजी ने नित्य क्षमाशील पुरुषों की इस गाथा का गान किया है। द्रौपदी ! क्षमा की यह गाथा सुनकर संतुष्ट हो जाओ, क्रोध न करो। मेरे पितामह शान्तुनन्दन भीष्म शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। देवकीनन्दन श्रीकृष्ण भी शान्तिभाव का ही आदर करेंगे। आचार्य द्रोण और विदुर भी शान्ति को ही अच्छा कहेंगे। कृपाचार्य और संजय भी शान्त रहना ही अच्छा बतायेंगे। सोमदेव, युयुत्सु, अश्वत्थामा तथा हमारे पितामह व्यास भी सदा शान्ति का ही उपदेश देते हैं।
ये सब लोग यदि राजा धृतराष्ट्र को सदा शान्ति के लिये प्रेरित करते रहेंगे तो वे अवश्य मुझे राज्य दे देंगे, ऐसा मुझे विश्वास है। यदि नहीं देंगे तो लोभ के कारण नष्ट हो जायँगे। इस समय भारत वंश के विनाश के लिये यह बड़ा भयंकर समय आ गया है। भामिनि ! मेरा पहले से ही ऐसा निश्चित मत है कि सुयोधन कभी इस प्रकार क्षमाभाव को नहीं अपना सकता, वह इसके योग्य नहीं है। मैं इसके योग्य हूँ, इसलिये क्षमा मेरा ही आश्रय लेती है। क्षमा और दया यही जितात्मा पुरुषों का सदाचार है और यही सनातन धर्म है, अतः मैं यथार्थ रूप से क्षमा और दया को ही अपनाऊँगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगमनपर्व में द्रौपदी-युधिष्ठिरसंवादविषय उन्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख