महाभारत वन पर्व अध्याय 30 श्लोक 1-17
उन्तीसवाँ अध्याय: वनपर्व (अरण्यपर्व)
दुःख से मोहित द्रौपदी का युधिष्ठिर की बुद्धि, धर्म, एवं ईश्वर के न्याय पर आक्षेप
द्रौपदी ने कहा-राजन् ! उस धाता ( ईश्वर ) और विधाता ( प्रारब्ध ) को नमस्कार है, जिन्होंने आपकी बुद्धि में मोह उत्पन्न कर दिया। पिता-पितामहों के आचार का भार वहन करने में भी आपकी विचार विपरीत दिखायी देता है। कर्मों के अनुसार उत्तम, मध्यम, अधम, योनि में भिन्न-भिन्न लोकों की प्राप्ति बतलायी गयी है, अतः कर्म नित्य हैं ( भोगे बिना उन कर्मों का क्षय नहीं होता )। मूर्ख लोग लोभ से ही मोक्ष पाने की इच्छा रखते हैं। इस जगत् में धर्म, कोमलता, क्षमा, विनय, और दया से कोई भी मनुष्य कभी धन और ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं कर सकता। भारत ! इसी कारण तो आप पर भी यह दुःसह संकट आ गया, जिसके योग्य न तो आप हैं और न आपके महा तेजस्वी ये भाई ही हैं। भरतकुलतिलक ! आपके भाइयों ने न तो पहले कभी और न आज ही धर्म से अधिक प्रिय दूसरी किसी वस्तु को समझा है। अपितु धर्म को जीवन से भी बढ़कर माना है। आपका राज्य धर्म के लिये ही है, आपका जीवन भी धर्म के ही लिये है। ब्राह्मण, गुरुजन और देवता सभी इस बात को जानते हैं। मुझे विश्वास है कि आप मेरे सहित भीमसेन, अर्जन और नकुल-सहदेव का भी त्याग कर देंगे; किंतु धर्म का त्याग नहीं करेंगे। मैंने आर्यों के मुँह से सुना है कि यदि धर्म की रक्षा की जाय तो वह धर्मरक्षक राजा की स्वयं भी रक्षा करता है। किंतु मुझे मालूम होता है कि वह आपकी रक्षा नहीं कर रहा है। नरश्रेष्ठ ! जैसे अपनी छाया सदा मनुष्य के पीछे चलती है, उसी प्रकार आपकी बुद्धि सदा अनन्य भाव से धर्म का ही अनुसरण करती है। आपने अपने समान और अपने से छोटों का भी कभी अपमान नहीं किया। फिर अपने से बड़ों का तो करते ही कैसे? सारी पृथ्वी का राज्य पाकर भी आपका प्रभुताविषयक अहंकार कभी नहीं बढ़ा। कुन्तीनन्दन ! आप स्वाहा, स्वधा, और पूजा के द्वारा देवताओं, पितरों और ब्राह्मणों की सदा सेवा करते रहते हैं। पार्थ ! अपने ब्राह्मणों की समस्त कामनाएँ पूरी करके सदा उन्हें तृप्त किया है। भारत ! आपके यहाँ मोक्षाभिलाषी संन्यासी तथा गृहस्थ ब्राह्मण सोने के पात्रों में भोजन करते थे। जहाँ स्वयं अपने हाथों उनकी सेवा-टहल करती थी। वानप्रस्थों को भी आप सोने के पात्र दिया करते थे। आपके घर में कोई ऐसी वस्तु नहीं थी, जो ब्राह्मणों के लिये अदेय हो। राजन् ! आपके द्वारा शान्ति के लिये जो घर में यह वैश्व-देव कर्म किया जाता है, उसमें अथियों और प्राणियों के लिये अन्न देकर आप अवशिष्ट अन्न के द्वारा जीवन-निर्वाह किया करते हैं। इष्टि ( पूजा ), पशुबन्ध ( पशुओं का बाँधना ), काम्य याग, नैमित्तिक याग, पाकयज्ञ तथा नित्यज्ञ--ये सब भी आपके यहाँ बराबर चलते रहते हैं। आप राज्य से निकलकर लुटेरों द्वारा सेवित इस निर्जन महावन में निवास कर रहे हैं, तो भी आपका धर्मकार्य कभी शिथिल नहीं हुआ है। अश्वमेघ, राजसूय, पुण्डरीक तथा गोसव इन सभी महायज्ञों का आपने प्रचुर दक्षिणा दान पूर्वक अनुष्ठान किया है। परंतु महाराज ! उस कपट द्यूत जनित पराजय के समय आपकी बुद्धि विपरीत हो गयी, जिसके कारण आप राज्य, धन, आयुध तथा भाइयों और मुझे भी दाँव पर रखकर हार गये। आप सरल, कोमल, उदार, लज्जाशील, और सत्यवादी हैं। न जाने कैसे आपकी बुद्धि में जूआ खेलने का व्यसन आ गया। आपके इस दुःख और भयंकर विपत्ति को विचार कर अत्यन्त मोह प्राप्त हो रहा है और मेरा मन दुःख से पीडित हो रहा है। इस विषय में लोग इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण देते हैं, जिसमें कहा गया है कि सब लोग ईश्वर के वश में हैं, कोई भी स्वाधीन नहीं है। विधाता ईश्वर ही सब के पूर्वकर्मों के अनुसार प्राणियों के लिये सुख दुःख, प्रिय अप्रिय की व्यवस्था करते हैं। नरवीर नरेश ! जैसे कठपुतली सूत्राधार से प्रेरित हो अपने अंगो का संचालन करती हैं, उसी प्रकार यह सारी प्रजा ईश्वर की प्रेरणा से अपने हस्त-पाद आदि अंगों द्वारा विविध चेष्टाएँ करती हैं। भारत ! ईश्वर आकाश के समान सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त होकर उनके कर्मानुसार सुख-दुःख का विधान करते हैं।जीव स्वतन्त्र नहीं है, वह डोरे में बँधे हुए पक्षी की भाँति कर्म के बन्धन में बँधा होने से परतन्त्र है। वह ईश्वर के ही वश में होता है। उसका न तो दूसरों पर वश चलता है, न अपने ऊपर।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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