महाभारत वन पर्व अध्याय 1 श्लोक 21-37
प्रथम अध्याय: वनपर्व (अरण्य पर्व)
'नीच पुरूषों का साथ करने से मनुष्यों की बुद्धि नष्ट होती है। मध्यम श्रेणी के मनुष्यों का साथ करने से मध्यम होती है और उत्तम पुरूषों का संग करने से श्रेष्ठ होती है। ‘उत्तम, प्रसिद्ध एवं विशेषत: धर्मिष्ठ मनुष्यों ने लोक में धर्म, अर्थ और काम की उत्पत्ति के हेतुभूत जो वेदोक्त गुण (साधन) बताये हैं- लोगों द्वारा काम में लाये जाते हैं और शिष्ट पुरूष उन्हीं का आदर करते हैं। ‘ वे सभी सद्गुण पृथक-पृथक और एक साथ आप लोगों में विद्यमान हैं, अत: हम लोग कल्याण की इच्छा से आप जैसे गुणवान पुरूषों के बीच में रहना चाहते हैं।' युधिष्ठिर ने कहा – हम लोग धन्य हैं; क्योंकि ब्राह्मण आदि प्रजा वर्ग के लोग हमारे प्रति स्नेह और करूणा के पाश में बँधकर जो गुण हमारे अंदर नहीं हैं, उन गुणों को भी हम में बतला रहे हैं।’ भाइयों सहित मैं आप सब लोगों से कुछ निवेदन करता हूँ। आप लोग हम पर स्नेह और कृपा करके उसके पालन से मुख न मोड़ें। (आप लोगों को मालूम होना चाहिए कि) हमारे पितामह भीष्म, राजा धृतराष्ट्र, विदुरजी, मेरी माता तथा प्राय: अन्य सगे संबन्धी भी हस्तिनापुर में ही हैं। वे सब लोग आप लोगों के साथ ही शोक और संताप से व्याकुल हैं, अत: आप लोग हमारे हित की इच्छा रखकर उन सबका यत्नपूर्वक पालन करें। अच्छा,अब लौट जाइये, आप लोग बहुत दूर चले आये हैं। मैं अपनी शपथ दिलाकर अनुरोध करता हूँ कि आप लोग मेरे साथ न चलें। मेरे स्वजन आपके पास धरोहरों के रूप में हैं। उनके प्रति आप लोगों के हृदय में स्नेह भाव रहना चाहिये। मेरे हृदय में स्थित सब कार्यों में यही कार्य सबसे उत्तम है, आपके द्वारा इसके किए जाने पर मुझे महान संतोष प्राप्त होगा और इसी से मेरा सत्कार भी हो जायेगा। वैशम्पायनजी कहते हैं – जनमेजय ! धर्मराज के द्वारा इस प्रकार विनयपूर्वक अनुरोध किये जाने पर उन समस्त प्रजा ने ‘हा ! महाराज !' ऐसा कहकर एक ही साथ भयंकर अार्तनाद किया। कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर के गुणों का स्मरण करके प्रजा वर्ग के लोग दु:ख से पीड़ित और अत्यन्त आतुर हो गये। उनकी पाण्डवों के साथ जाने की इच्छा पूर्ण नहीं हो सकी। वे केवल उनसे मिलकर लौट आये। पुरवासियों के लौट जाने पर पाण्डवगण रथों पर बैठकर गंगाजी के किनारे प्रमाण कोटि नामक वट के समीप आये। संध्या होते-होते उस वट के निकट पहुँचकर शूरवीर पाण्डवों ने पवित्र जल का स्पर्श (आचमन और संध्या वन्दन आदि ) करके वह रात वहीं व्यतीत की। दु:ख से पीडित हुए वे पाँचों पाण्डु कुमार उस रात में केवल जल पीकर ही रह गये। कुछ ब्राह्मण लोग भी इन पाण्डवों के साथ स्नेहवश वहाँ तक चले आये थे। उनमें से कुछ साग्नि (अग्निहोत्री ) थे और कुछ निराग्नि। उन्होंने अपने शिष्यों तथा भाई-बंधुओं को भी साथ ले लिया था। वेदों का स्वध्याय करने वाले उन ब्राह्मणों से घिरे हुए राजा की बड़ी शोभा हो रही थी। संध्या काल की नैसर्गिक शोभा से रमणीय तथा राक्षस, पिशाच आदि के संचरण का समय होने से अत्यंत भयंकर प्रतीत होने वाले उस मुहूर्त में अग्नि प्रज्वलित करके वेद मंत्रों के घोषपूर्वक अग्निहोत्र करने के बाद उन ब्राह्मणों में परस्पर संवाद होने लगा। हंस के समान मधुर स्वर में बोलने वाले उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने कुरूकुल रत्न राजा युधिष्ठिर को आश्वासन देते हुए सारी रात उनका मनोरंजन किया। इस प्रकार श्री महाभारत वनपर्व के अरण्य पर्व में पुरवासियों के लौटने से संबंध रखने वाला पहला अध्याय पूरा हुआ।
टीका टिप्पणी और संदर्भसंबंधित लेख
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