महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 366-390

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द्वितीय अध्‍याय: आदिपर्व (पर्वसंग्रह पर्व)

महाभारत: आदिपर्व: द्वितीय अध्याय: श्लोक 375-395 का हिन्दी अनुवाद

इसके बाद धर्मराज ने आकाश गंगा में गोता लगाकर मानव शरीर को त्याग दिया और स्वर्गलोक में अपने धर्म से उपार्जित उत्तम स्थान पाकर वे इन्द्रादि देवताओं के साथ उनसे सम्मानित हो आनन्द पूर्वक रहने लगे। इस प्रकार बुद्धिमान् व्यास जी ने यह अठारहवाँ पर्व कहा है। तपोधनों ! परम ऋषि महात्मा व्यास जी ने इस पर्व में गिने-गिनाये पाँच अध्याय और दो सौ नौ (209) श्लोक कहे हैं। इस प्रकर ये कुल मिलाकर अठारह पर्व कहे गये हैं। खिल पर्वो में हरिवंश तथा भविष्य का वर्ण न किया गया है। हरिवंश के खिल पर्वो में महर्षि व्यास ने गणना पूर्वक बारह हजार (12000) श्लोक रक्खे हैं। इस प्रकार महाभारत में यह सब पर्वों का संग्रह बताया गया है। कुरूक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुई थीं और वह महाभयंकर युद्ध अठारह दिनों तक चलता रहा। जो द्विज अंगों और उपनिषदों सहित चारों वेदों को जानता है, परंतु इस महाभारत इतिहास को नहीं जानता, वह विशिष्ट विद्वान् नहीं है। असीम बुद्धि वाले महात्मा व्यास ने यह अर्थशास्त्र कहा है। यह महान् धर्मशास्त्र भी है, इसे काम-शास्त्र भी कहा गया है (और मोक्षशास्त्र तो यह है ही)। इस उपाख्यान को सुन लेने पर और कुछ सुनना अच्छा नहीं लगता। कोकिल का कलरव सुनकर कौओं की कठोर ‘काँय-काँय’ किसे पसंद आयेगी? जैसे पाँच भूतों से त्रिविध (आध्यात्मिक, आदिदैविक और आधिभौतिक) लोकसृष्टियाँ प्रकट होती हैं, उसी प्रकार इस उत्तम इतिहास से कवियों का काव्य रचना विषयक बुद्धियाँ प्राप्ति होती हैं। द्विजवरो ! इस महाभरत इतिहास के भीतर ही अठारह पुराण स्थित हैं, ठीक उसी तरह, जैसे आकाश में ही चारों प्रकार की प्रजा (जरायुज, स्वेदज, अण्डज और उद्भज) विद्यमान हैं। जैसे विचित्र मानसिक क्रियाएँ ही समस्त इन्द्रियों की चेष्टाओं का आधार हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण लौकि-वैदिक कर्मो के उत्कृष्ट फल-साधनों का यह आख्या ही आधार है। जैसे भोजन किये बिना शरीर नहीं रह सकता, वैसे ही इस पृथ्वी पर कोई भी ऐसी कथा नहीं है जो इस महाभारत का आश्रय लिये बिना प्रकट हुई हो। सभी श्रेष्ठ कवि इस महाभारत की कथा का आश्रय लेते है और लेंगे। ठीक वैसे उन्नति चाहने वाले सेवक श्रेष्ठ स्वामी का सहारा लेते हैं। जैसे शेष तीन आश्रम उत्तम गृहस्थ आश्रम से बढ़कर नहीं हो सकते, उसी प्रकार संसार के कवि इस महाभारत काव्य से बढ़कर काव्य रचना करने में समर्थ नहीं हो सकते। तपस्वी महर्षियो ! (तथा महाभारत के पाठको) ! आप सब लोग सदा संसारिक आसक्तियों मे ऊँचे उठें और आप का मन सदा धर्म में लगा रहेः क्योंकि परलोक में गये हुए जीव का वन्धु या सहायक एकमात्र धर्म ही हैं। चतुर मनुष्य भी धन और स्त्रियों का सेवन तो करते हैं, किंतु वे उनकी श्रेष्ठता पर विश्राम नहीं करते है और न उन्हें स्थिर ही मानते हैं। जो व्यास जी के मुख से निकले हुए इस अप्रमेय (अतुलनीय) पुण्यदायक, पवित्र, पापहारी और कल्याण मय महाभारत को दूसरों के सुख से सुनता है, उसे पुष्कर तीर्थ के जल में गोता लगाने की क्या आवश्यकता है? ब्राह्मण दिन में अपनी इन्द्रियों द्वारा जो पाप करता है, उससे सायंकाल महाभारत का पाठ करके मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार वह मन, वाणी और क्रिया द्वारा रात में जो पाप करता है, उससे प्रातःकाल महाभारत का पाठ करके छूट जाता हैं। जो गौओं के सींग में सोना मढ़ाकर वेदवेत्ता एवं बहुज्ञ ब्रह्मण को प्रतिदिन सौ गौएँ दान देता है और जो केवल महाभारत कथा का श्रवण मात्र करता है, इन दोनों मे से प्रत्येक को बराबर ही फल मिलता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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