महाभारत आदि पर्व अध्याय 3 श्लोक 81-95

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तृतीय अध्‍याय: आदिपर्व (पौष्यपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 87- 107 का हिन्दी अनुवाद

यह सुनकर उत्तंक ने उत्तर दिया-‘मैं स्त्रियों के कहने से यह न करने योग्य निन्द्य कर्म नहीं कर सकता। उपाध्याय ने मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी है कि ‘तुम न करने योग्य कार्य भी कर डालना’। इसके बाद कुछ काल बीतने पर उपाध्याय वेद परदेश से अपने घर लौट आये। आने पर उत्तंक का सारा वृत्तान्त मालूम हुआ, इससे वे बड़ें प्रसन्न हुए। और बोले-‘बेटा उत्तंक ! तुम्हारा कौन सा प्रिया कार्य करूँ ? तुमने धर्म पूर्वक मेरी सेवा की है। इससे हम दोनों की एक दूसरे के प्रति प्रीति बढ़ गयी है। जब मैं तुम्हें घर लौटने की आज्ञा देता हूँ-जाओ, तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण होंगी’। गुरू के ऐसा कहने पर उत्तंग बोले-‘भगवन् ! मैं आपका कौन सा प्रिय कार्य करूँ ? वृद्ध पुरूष कहते भी है। जो अधर्मपूर्वक अध्यापन या उपदेश करता है अथवा जो अधर्मपूर्वक प्रश्न या अध्ययन करता हैं, उन दोनों में मे एक (गुरू अथवा शिष्य) मृत्यु एवं विद्वेष को प्राप्त होता है। अतः आपकी आज्ञा मिलने पर मैं अभीष्ट गुरू दक्षिणा भेंट करना चाहता हूँ।’उत्तंक के ऐसा कहने पर उपाध्याय बोले-‘बेटा उत्तंक ! तब कुछ दिन और यहीं ठहरों’। तदनन्तर किसी दिन उत्तंक ने फिर उपाध्याय से कहा- ‘भगवन् ! आज्ञा दीजिये, मैं आपको कौन सी प्रिय वस्तु गुरू दक्षिणा के रूप में भेंट करूँ। यह सुनकर उपाध्याय ने उनसे कहा-‘वत्स उत्तंक ! तुम बार बार मुझसे कहते हो कि ‘मैं क्या गुरू दक्षिणा भेट करूँ?’ अतः जाओ, घर के भीतर प्रवेश करके अपनी गुरूपत्नी से पूछ लो कि ‘मैं क्या गुरूदक्षिणा भेंट करूँ। ‘वे जो बतावें वही वस्तु उन्हें भेंट करो। उपाध्याय के ऐसा कहने पर उत्तंग ने गुरूपत्नी में पूछा -‘देवि ! उपाध्याय ने मुझे घर जाने की आज्ञा दी है, अतः मैं आपको कोई अभीष्ट वस्तु गुरूदक्षिणा के रूप में भेंट करके गुरू के ऋण से उऋण होकर जाना चाहता हूँ। अतः आप आज्ञा देंय मैं गुरूदक्षिणा के रूप में कौन सी वस्तु ला दूँ।’ उत्तंक के ऐसा कहने पर गुरूपत्नी उनसे बोलीं-‘वत्स ! तुम राजा पौष्य के यहाँ, उनकी क्षत्राणी पत्नी ने जो दोनों कुण्डल पहन रक्खे हैं, उन्हें माँग लाने के लिये जाओ। ‘और उन कुण्डलो को शीघ्र ले आओ। आज के चैथे दिन पुण्यक व्रत होने वाला हैं, मै उस दिन कानों में उन कुण्डलों को पहन कर सुशोभित हो ब्राह्मणों को भोजन परोसना चाहती है; अतः तुम मेरा यह मनोरथ पूर्ण करो। तुम्हारा कल्याण होगा। अन्यथा कल्याण की प्राप्ति कैसे सम्भव है?’ गुरूपत्नी के ऐसा कहने पर उत्तंक वहाँ से चल दिये। मार्ग में जाते समय उन्होंने एक बहुत बडे़ बैल को और उस पर चढ़े हुए एक विशालकाय पुरूषों को भी देखा। उस पुरूष ने उत्तंक से कहा-। ‘उत्तंक ! तुम इस बैल का गोबर खा लो।’ किन्तु उसके ऐसा कहने पर भी उत्तंक को वह गोबर खाने की इच्छा नहीं हुई।।99।। तब वह पुरूष फिर उसने बोला- ‘उत्तंक ! खालो’ विचार न करो। तुम्हारे उपाध्याय ने भी पहले इसे खाया था।’ उसके पुनः ऐसा कहने पर उत्तंक ‘बहुत अच्छा’ कहकर उसकी बात मान ली और उस बैल के गौबर तथा मूत्र को खा पीकर उताबली के कारण खड़े-खड़े ही आचमन किया। फिर वे चल दिये। जहाँ वे क्षत्रिय राजा पौष्य रहते थे, वहाँ पहुँचकर उत्तंक ने देखा-वे आसन पर बैठे हुए हैं, तब उत्तंक ने उनके समीप जाकर आशीर्वाद से उन्हें प्रसन्न करते हुए कहा। ‘राजन् ! मैं याचक होकर आपके पास आया हूଁ।, राजा ने उन्हें प्रणाम करके कहा- ‘भगवन् ! मैं आपका सेवक पौष्य हूँ कहिये, किस आज्ञा का पालन करूँ?’। उत्तंक ने पौष्य से कहा-‘राजन् ! गुरूदक्षिणा के निमित्त दो कुण्डलों के लिये आपके यहाँ आया हूँ आपकी क्षत्राणी ने जिन्हें पहन रक्खा है, उन्हीं दोनों कुण्डलों को आप मुझे दे दें। यह आपके योग्य कार्य है’।

यह सुनकर पौष्य ने उत्तंक से कहा-‘ब्रह्मन् ! आप अन्तःपुर मे जाकर क्षत्राणी से वे कुण्डल माँग लें।’ किन्तु वहाँ उन्हें क्षत्राणी नहीं दिखायी दी। तब वे पुनः राजा पौष्य के पास आकर बोले -‘राजन् ! आप मुझ सन्तुष्ट करने के लिये झूठी बात कहकर मेरे साथ छल करें, यह आपको शोभा नहीं देता है। आपके अन्तःपुर में क्षत्राणी नहीं हैं, क्योंकि वहाँ वे मुझे नहीं दिखायी देती हैं’। उत्तंक के ऐसा कहने पर पौष्य ने एक क्षण तक विचार करके उन्हें उत्तर दिया-‘निश्चय ही आप जूँठे मुँह हैं, स्मरण तो कीजिये, क्योंकि मेरे क्षत्राणी पतिव्रता होने के कारण उच्छिष्ट अपवित्र मनुष्य के द्वारा नहीं देखी जा सकती हैं। आप उच्छिष्ट होने के कारण अपवित्र हैं, इसलिये वे आपकी दृष्टि में नहीं आ रही हैं’।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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