तृतीय अध्याय: आदिपर्व (पौष्यपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: तृतीय अध्याय: श्लोक 108- 125 का हिन्दी अनुवाद
उनके ऐसा कहने पर उत्तंक ने स्मरण करके कहा‘‘हाँ’ अवश्य ही मुझमें अशुद्धि रह गयी है। यहाँ की यात्रा करते समय मैंने खड़े होकर चलते-चलते आचमन किया है।’ तब पौष्य ने उनसे कहा-‘ब्रह्मन् ! यही आपके द्वारा विधि का उल्लंघन हुआ है। खड़े होकर और शीघ्र पूर्वक चलते-चलते किया हुआ आचमन नहीं के बराबर है’। तत्पश्चात् उत्तंक राजा से ‘ठीक है’ ऐसा कहकर हाथ, पैर और मुँझ भली भाँति धोकर पूर्वाभिमुख हो आसन पर बैठे और हृदय तक पहुँचने योग्य शब्द तथा फेन से रहित शीतल जल के द्वारा तीन बार आचमन करके उन्होंने दो बार अँगूठे के मूल भाग से मुख पोंछा और नेत्र, नासिका आदि इन्द्रिय-गोलकों का जल सहित अंगुलियों द्वारा स्पर्श करके अन्तःपुर में प्रवेश किया। तब उन्हें क्षत्राणिका दर्शन हुआ। महारानी उत्तंक को देखते ही उठकर खड़ी हो गयीं और प्रणाम करके बोलीं- ‘भगवन् ! आपका स्वागत है, आज्ञा दीजिये, मैं क्या सेवा करूँ ?’ उत्तंक ने महारानी से कहा-‘देवि ! मैंने गुरू के लिये आपके दोनों कुण्डलों की याचना की है। वे ही मुझे दे दें।’ महारानी उत्तंक के उस सद्भाव (गुरूभक्ति) से बहुत प्रसन्न हुई। उन्होंने यह सेाचकर कि ‘ये सुपात्र ब्राह्मण हैं, इन्हें निराश नहीं लौटाना चाहिये’ अपने दौनों कुण्डल स्वयं उतार कर उन्हें दे दिये और उनसे कहा-‘ब्रह्मन् ! नागराज तक्षक इन कुण्डलों को पाने के लिये बहुत प्रयत्नशील हैं। अतः आपको सावधान होकर इन्हें ले जाना चाहिये’। रानी के ऐसा कहने पर उत्तंक ने उन क्षत्राणी से कहा-‘देवि ! आप निश्चिन्त रहें। नागराज तक्षक मुझसे भिड़ने का साहस नहीं कर सकता’। महारानी से ऐसा कहकर उनसे आज्ञा ले उत्तंक राजा पौष्य के निकट आये और बोले-‘महाराज पौष्य ! मैं बहुत प्रसन्न हूँ (और आपसे बिदा लेना चाहता हूँ)।’ यह सुनकर पौष्य ने उत्तंक से कहा-। ‘भगवन् ! बहुत दिनों पर कोई सुपात्र ब्राह्मण मिलता है। आप गुणवान् अतिथि पधारें हैं, अतः मैं श्राद्ध करना चाहता हूँ। आप इसमें समय दीजिये’। तब उत्तंक ने राजा से कहा- ‘मेरा समय तो दिया ही हुआ है, किन्तु शीघ्रता चाहता हूँ। आपके यहाँ जो शुद्ध एवं सुसंस्कृत भोजन तैयार हो उसे मँगाये।’ राजा ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर जो भोजन सामग्री प्रस्तुत थी, उसके द्वारा उन्हें भोजन कराया। परन्तु जब भोजन सामने आया, तब उत्तंक ने देखा, उसमें बाल पड़ा है और वह ठण्डा हो चुका है। फिर तो ‘यह अपवित्र अन्न है’ ऐसा निश्चय करके वे राजा पौष्य से बोले-‘आप मुझे अपवित्र अन्न दे रहे हैं, अतः अन्धे हो जायँगे’। तब पौष्य ने भी उन्हें शाप के बदले शाप देते हुए कहा-‘आप शुद्ध अन्न को भी दूषित बता रहे हैं, अतः आप भी संतानहीन हो जायँगें।’ तब उत्तंक राजा पौष्य से बोले-। ‘महाराज! अपवित्र अन्न देकर फिर बदले में शाप देना आपके लिये कदापि उचित नहीं है। अतः पहले अन्न को ही प्रत्यक्ष देख लीजिये।’ तब पौष्य ने उस अन्न को अपवित्र देखकर उसकी अपवित्रता के कारण का पता लगाया। वह भोजन खुले केश वाली स्त्री ने तैयार किया था। अतः उसमें केश पड़ गया था। देर का बना होने से वह ठण्डा भी हो गया था। इसलिये वह अपवित्र है, इस निश्चय पर पहँच कर राजा ने उत्तंक ऋषि को प्रसन्न करते हुए कहा -। ‘भगवन्! यह केश युक्त और शीतल अन्न अनजान में आपके पास लाया गया है। अतः इस अपराध के लिये मैं आपसे क्षमा माँगता हଁ। आप ऐसी कृपा कीजिये, जिससे मैं अन्ध न होऊँ।’ तब उत्तंक ने राजा से कहा-। ‘राजन्! मैं झूठ नहीं बोलता। आप पहले अन्धे होकर फिर थोड़े ही दिनों में इस दोष से रहित हो जायँगे। अब आप भी ऐसी चेष्टा करें, जिससे आपका दिया हुआ शाप मुझ पर लागू न हो’। यह सुनकर पौष्य ने उत्तंक से कहा’- ‘मैं शाप को लौटाने में आसमर्थ हूँ, मेरा क्रोध अभी तक शान्त नहीं हो रहा हैं। क्या आप यह नहीं जानते कि ब्राह्मण का हृदय मक्खन के समान मुलायम और जल्दी पिघलने वाला होता है? केवल उसकी वाणी में ही तीखी धार वाले छुरे का सा प्रभाव होता है। किन्तु ये दोनों ही बातें क्षत्रिय के लिये विपरीत हैं। उसकी वाणी तो नवनीत के समान कोमल होती है, लेकिन हृदय पैनी धार वाले छुरे के समान तीखा होता है। ‘अतः ऐसी दशा में कठोर हृदय होने के कारण मैं उस शाप को बदलने में असमर्थ हूँ। इसलिये आप जाइये’ तब उत्तंक बोले-राजन् ! आपने अन्न की अपवित्रता देखकर मुझसे क्षमा के लिये अनुनय विनय की है, किन्तु पहले आपने कहा था कि ‘तुम शुद्ध अन्न को दूषित बना रहे हो, इसलिये संतानहीन हो जाओगे।’ इसके बाद अन्न का दोषयुक्त होना प्रमाणित हो गया, अतः आपका यह शाप मुझ पर लागू नहीं होगा।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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