महाभारत आदि पर्व अध्याय 11 श्लोक 1-19
ग्यारहवाँ अध्याय: आदिपर्व (पौलोमपर्व)
डुण्डभ की आत्म कथा तथा उसके द्वारा रूरू को अहिंसा उपदेश
डुण्डुभ ने कहा— तात ! पूर्वकाल में खगम नाम से प्रसिद्ध एक ब्राह्मण मेरा मित्र था। वह महान् तपोबल से सम्पन्न होकर भी बहुत कठोर वचन बोला करता था। एक दिन वह अग्निहोत्र में लगा था। मैंने खिलवाड़ में तिनकों का एक सर्प बनाकर उसे डरा दिया। वह भय के मारे मूर्छित हो गया। फिर होश में आने पर वह सत्यवाद एवं कठोरव्रती तपस्वी मुझे क्रोध से दग्ध सा करता हुआ बोला-। ‘अरे ! तूने मुझे डराने के लिये जैसा अल्प शक्ति वाला सर्प बनाया था, मेरे शापवश ऐसा ही अल्प शक्ति सम्पन्न सर्प तुझे भी होना पडे़गा’। तपोधन ! मैं उसकी तपस्या का बल जानता था, अतः मेरा हृदय अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और बड़े वेग से उसके चरणों में प्रणाम करके, हाथ जोड़, सामने खड़ा हो, उस तपोधन से बोला-सखे मैंने परिहास के लिये सहसा यह कार्य कर डाला है। ब्रह्मन् ! इसके लिये क्षमा करो और अपना यह शाप लौटा लो। मुझे अत्यन्त घबराया हुआ देखकर सम्भ्रम में पड़े हुए उस तपस्वी ने बार-बार गरम साँस खींचते हुए कहा-‘मेरी कही हुई यह बात किसी प्रकार झूठी नहीं हो सकती। ‘निष्पाप तपोधन ! इस समय मैं तुमसे जो कुछ कहता हूँ, उसे सुनो और सुनकर अपने हृदय में सदा धारण करो। ‘भविष्य में महर्षि प्रमति के पवित्र पुत्र रूरू उत्पन्न होंगे, उनका दर्शन करके तुम्हें शीघ्र ही इस शाप से छुटकारा मिल जायेगा। जान पड़ता है तुम वही रूरू नाम से विख्यात महर्षि प्रमति के पुत्र हो। अब मैं अपना स्वरूप धारण करके तुम्हारे हित की बात बताऊँगा। इतना कहकर महायशस्वी विप्रवर सहस्त्रपाद ने डुण्डुभ का रूप त्याग कर पुनः अपने प्रकाश मान स्वरूप को प्राप्त कर लिया। फिर अनुपम ओज वाले रूरू से यह बात कही-‘समस्त प्राणियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण ! अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है। ‘अतः ब्राह्मण को समस्त प्राणियों में से किसी की कभी और कही भी हिंसा नहीं करनी चाहिये। ब्राह्मण इस लोक में सदा सौभ्य स्वभाव का ही होता हैं, ऐसा श्रुतिका उत्तम वचन है। ‘वह वेद‘वेदांगों का विद्वान् और समस्त प्राणियों को अभय देने वाला होता है। अहिंसा, सत्यभाषण, क्षमा और वेदों का स्वाध्याय निश्चय ही ये ब्राह्मण के उत्तम धर्म हैं। क्षत्रिय का जो धर्म है वह तुम्हारे लिये अभीष्ट नहीं है। ‘रूरो ! दण्ड धारण, उग्रता और प्रजा पालन-ये सब क्षत्रियों के कर्म रहे हैं। मेरी बात सुनो, पहले राजा जनमेजय के यज्ञ में सर्पों की बड़ी भारी हिंसा हुई। द्विजश्रेष्ठ ! फिर उसी सर्पसत्र में तपस्या के बल-वीर्य से सम्पन्न, वेद-वेदागों के पारगंत विद्वान विप्रवर आस्तीक नामक ब्राह्मण के द्वारा भय भीत सर्पों की प्राण रक्षा हुई’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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