महाभारत वन पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-16
सप्तदश अध्याय: वनपर्व (अरण्यपर्व)
प्रद्युम्न और शाल्व का घोर युद्ध
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं--भरतश्रेष्ठ ! यादवों से ऐसा कहकर रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न एक सुवर्णमय रथ पर आरूढ़ हुए, जिसमें बख्तर पहनाये हुए घोड़े जुते थे। उन्होंने अपनी मकर चिन्हित ध्वजा को ऊँचा किया, जो मुँह बाये हुए काल के समान प्रतीत होती थी। उनके रथ के घोड़े ऐसे चलते थे, मानो आकाश में उड़े जा रहे हों। ऐसे अश्वों से जुते हुए रथ के द्वारा महाबली प्रद्युम्न ने शत्रुओं पर आक्रमण किया। वे अपने श्रेष्ठ धनुष को बारंबार खींचकर उसकी टंकार फैलाते हुए आगे बढ़े। उन्होंने पीठ पर तरकस और कमर में तलवार बाँध ली थी। उनमें शौर्य भरा था और उन्होने गोह में चमड़े के बने हुए दस्ताने पहन रखे थे। वे अपने धनुष को एक हाथ से दूसरे हाथ में ले लिया करते थे। उस समय वह धनुष बिजली के समान चमक रहा था। उन्होंने उस धनुष के द्वारा सौभ विमान में रहने वाले समस्त दैत्यों को मूर्छित कर दिया। वे बारंबार धनुष को खींचते, उस पर बाण रखते और उसके द्वारा शत्रु सैनिकों को युद्ध में मार डालते थे। उनकी उक्त क्रियाओं में किसी को भी थोड़ा-सा भी अन्तर नहीं दिखायी देता था। उनके मुख का रंग तनिक भी नहीं बदलता था। उनके अंग भी विचलित नहीं होते थे। सब ओर गर्जना करते हुए प्रद्युम्न का उत्तम एवं अद्भुत बल-पराक्रम का सूचक सिंहनाद सब लोगों को सुनायी देता था। शाल्व की सेना के ठीक सामने प्रद्युम्न के श्रेष्ठ रथ पर उनकी उत्तम ध्वजा फहराती हुई शोभा पा रही थी। उस ध्वजा के सुवर्णमय दण्ड के ऊपर सब तिमि नामक जल जन्तुओं का प्रथमन करने वाले मुँह बाये एक मगरमच्छ का चिन्ह था। वह शत्रु सैनिकों को अत्यन्त भयभीत कर रहा था। नरेश्वर ! तदनन्तर शत्रुहन्ता प्रद्युम्न तुरंत आगे बढ़कर राजा शाल्व के साथ युद्ध करने की इच्छा से उसी की ओर दौड़े। कुरुकुल तिलक ! उस महासंग्राम में वीर प्रद्युम्न के द्वारा किया हुआ वह आक्रमण क्रुद्ध राजा शाल्व न सह सका। शत्रु की राजधानी पर विजय पाने वाले शाल्व ने रोष एवं बल के मद से उन्मत हो इच्छानुसार चलने वाले विमान से उतरकर प्रद्युम्न से युद्ध आरम्भ किया। शाल्व तथा वृष्णिवंशी वीर प्रद्युम्न में बलि और इन्द्र के समान घोर युद्ध होने लगा। उस समय लोग एकत्र होकर उन दोनों का युद्ध देखने लगे। वीर ! शाल्व के पास सुवर्णभूषित मायामय रथ था। वह रथ ध्वजा, पताका, अनुकर्ष ( हरसा )[१] और तरकस से युक्त था। प्रभो कुरुनन्दन ! श्रीमान् महाबली शाल्व ने उस श्रेष्ठ रथ पर आरूढ़ बाणों की वर्षा आरम्भ की। तब प्रद्युम्न भी युद्ध भूमि में अपनी भुजाओं के वेग से शाल्व को मोहित करते हुए-से उसके ऊपर शीघ्रता पूर्वक बाणों की बौछार करने लगे। सौभ विमान का स्वामी राजा शाल्व युद्ध में प्रद्युम्न के बाणों से घायल होने पर यह सहन नहीं कर सका--अमर्ष में भर गया और मेरे पुत्र पर प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी बाण छोड़ने लगा। महाबली प्रद्युम्न ने उन बाणों को आते ही काट गिराया। तत्पश्चात् शाल्व ने मेरे पुत्र पर और भी बहुत-से प्रज्वलित बाण छोड़े। राजेन्द्र ! शाल्व के बाणों से घायल होकर रुक्मिणी नन्दन प्रद्युम्न तुरंत ही उस युद्ध भूमि में शाल्व पर एक ऐसा बाण चलाया, जो मर्मस्थल को विदीर्ण कर देने वाला था। मेरे पुत्र के चलाये हुए उस बाण ने शाल्व के कवच को छेदकर उसके हृदय को बींध डाला। इससे वह मूच्र्छित होकर गिर पड़ा। वीर शाल्वराज के अचेत होकर गिर जाने पर उसकी सेना के समस्त दानवराज पृथ्वी को विदीर्ण करके पाताल में पलायन कर गये। पृथ्वीपते ! उस समय सौभ विमान का स्वामी राजा शाल्व जब संज्ञाशून्य होकर धराशायी हो गया, तब उसकी समस्त सेना में हाहाकर मच गया।। 20 ।। कुरुश्रेष्ठ ! तत्पश्चात् जब चेत हुआ, तब महाबली शाल्व सहसा उठकर प्रद्युम्न पर बाणों की वर्षा करने लगा। शाल्व के उन बाणों द्वारा कण्ठ के मूलभाग में गहरा आघात लगने से अत्यन्त घायल होकर समर में स्थित महाबाहु वीर प्रद्युम्न उस समय रथ पर मूच्र्छित हो गये। महाराज ! रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न को घायल करके शाल्व बड़े जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा। उसकी आवाज से वहाँ की सारी पृथ्वी गूँज उठी। भारत ! मेरे पुत्र के मूच्र्छित हो जाने पर भी शाल्व ने उन पर और भी बहुत-से दुर्द्धर्ष बाण शीघ्रता पूर्वक छोड़े। कौरवश्रेष्ठ ! इस प्रकार बहुत-से बाणों से आहत होने कारण प्रद्युम्न उस रणांगण में मूच्र्छित एवं निश्चेष्ट हो गये। इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत अर्जुनाभिगनपर्व में सौभवधोपाख्यानविषयक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रथ के नीचे पहिये के ऊपर लगा रहने वाला काष्ठ।
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