एकोनविंशो अध्याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)
महाभारत: आदिपर्व: उन्नीस अध्याय: श्लोक 25- 31 का हिन्दी अनुवाद
इसी प्रकार उदार एवं उत्साह भरे हृदय वाले महाबली असुर भी, जो जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखायी देते थे, उस समय सहस्त्रों की संख्या में आकाश में उड़-उड़कर शिलाखण्डों की वर्षा से बार-बार देवताओं को पीडि़त करने लगे। तत्पश्चात् आकाश से नाना प्रकार के लाल, पीले, नीले आदि रंग वाले बादलों-जैसे बड़े-बड़े पर्वत भय उत्पन्न करते हुए वृक्षों सहित पृथ्वी पर गिरने लगे। उनके ऊँचे-ऊँचे शिखर गलते जा रहे थे और वे एक-दूसरे से टकराकर बड़े जोर का शब्द करते थे। उस समय एक दूसरे का लक्ष्य करके बार-बार जोर-जोर से गरजने वाले देवताओं और असुरों के उस समरांगण में सब और भयंकर मार-काट मच रही थी; बडे़-बड़े पर्वतों के गिरने से आहत हुई वन सहित सारी भूमि काँपने लगी। तब उस महाभयंकर देवासुर-संग्राम में भगवान् नर ने उत्तम सुवर्ण-भूषित अग्रभाग वाले पंखयुक्त बड़े-बड़े बाणों द्वार पर्वत शिखरों को विदीर्ण करते हुए मसस्त आकाश मार्ग को आच्छादित कर दिया। इस प्रकार देवताओं के द्वारा पीडि़त हुए महादैत्या आकाश में जलती हुई आग के समान उद्भासित होने वाले सुदर्शन चक्र को अपने पर कुपित देख पृथ्वी के भीतर और खारे पानी के समुद्र में घुस गये। तदनन्तर देवताओं ने विजय पाकर मन्दराचल को सम्मान पूर्वक उसके पूर्वस्थान पर ही पहुँचा दिया। इसके बाद वे अमृत धारण करने वाले देवता अपने सिंहनाद से अन्तरिक्ष और सवर्गलोक को भी सब ओर से गुँजाते हुए अपने-अपने स्थान को चले गये। देवताओं को इस विजय से बड़ी भारी प्रसन्नता प्राप्त हुई। उन्होंने उस अमृत को बड़ी सुव्यवस्था से रक्खा। अमरों सहित इन्द्र ने अमृत की वह निधि किरीटधारी भगवान् नर को रक्षा के लिये सौंप दी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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