महाभारत आदि पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-18

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एकविंशो अध्‍याय: आदिपर्व (आस्तीकपर्व)

महाभारत: आदिपर्व: एकविंशो अध्‍याय: श्लोक 1- 18 का हिन्दी अनुवाद

उग्रश्रवाजी कहते हैं—तपोधन ! तदनन्तर जब रात बीती, प्रातःकाल हुआ और भगवान् सूर्य का उदय हो गया, उस समय कद्रू और विनता दोनों बहिनें बड़े जोश और रोष के साथ दासी होने की बाजी लगाकर उच्चैःश्रवा नामक अश्व को निकट से देखने के लिये गयी। कुछ दूर जाने पर उन्होंने मार्ग में जलनिधि समुद्र को देखा, जो महान् होने के साथ ही अगाध जल से भरा था। मगर आदि जल-जन्तु उसे विक्षुब्ध कर रहे थे और उससे बड़े जोर की गर्जना हो रही थी। वह तिमि नामक बड़े-ब़डे़ मत्स्यों को भी निगल जाने वाले तिमिगिंलों, मत्स्यों तथा मगर आदि से व्यापत था। नाना प्रकार की आकृति वाले सहस्त्रों जल-जन्तु उसमें भरे हुए थे। विकट आकार वाले दूसरे-दूसरे घोर डरावने जलचरों तथा उग्र जल-जन्तुओं के कारण वह महासागर सदा सबके लिये दुर्घर्ष बना हुआ था। उसके भीतर बहुत से कछुए और ग्राह निवास करते थे। सरिताओं का स्वामी वह महासागर सम्पूर्ण रत्नों की खान, वरूण देव का निवास स्थान और नागों का रमणीय उत्तम गृह है। पाताल की अग्नि-बड़वानल का निवास भी उसी में है। असुरों को तो वह जल निधि समुद्र भाई बन्धुओं की भाँति शरण देने वाला है तथा दूसरे थलचर जीवों के लिये अत्यन्त भयदायक है। अमरों के अमृत की खान होने से वह अत्यन्त शुभ एवं दिव्य माना जाता है। उसका कोई माप नहीं है। वह अचिन्त्य, पवित्र जल से परिपूर्ण तथा अद्भत है। वह घोर समुद्र जल-जन्तुओं के शब्दों से और भी भयंकर प्रतीत होता था, उससे भयंकर गर्जना हो रही थी, उसमें गहरी भँवरें उठ रही थी तथा वह समस्त प्राणियों के लिये भय-सा उत्पन्न करता था। तट पर तीव्र वेग से बहने वाली वायु मानो झूला बनकर उस महासागर को चंचल किये देती थी। वह क्षोम और उद्वेग से बहुत ऊँचे तक लहरें उठाता था और सब ओर चंचल तरंगरूपी हाथों को हिला-हिलाकर नृत्य सा कर रहा था। चन्द्रमा की वृद्धि और क्षय के कारण उसकी लहरें बहुत ऊँचे उठतीं और उतरती थी (उसमें ज्वार-भाटे आया करते थे), अतः वह उत्ताल तरंगों से व्याप्त जान पड़ता था। उसी ने पांचजन्य शंख को जन्म दिया था। वह रत्नों का आकर और परम उत्तम था। अमित तेजस्वी भगवान् गोविन्द ने बाराह रूप से पृथ्वी को उपलब्ध करते समय उस समुद्र को भीतर से मथ डाला था और उस मथित जल से वह समस्त महासागर मलिन सा जान पड़ता था। व्रतधारी ब्रह्मर्षि अत्रि ने समुद्र के भीतरी तल का अन्वेषण करते हुए सौ वर्षो तक चेष्टा करके भी उसका पता नहीं पाया। वह पाताल के नीचे तक व्याप्त है और पाताल के नष्ट होने पर भी बना रहता है, इसलिये अविनाशी है। आध्यात्मिक योगनिद्रा का सेवन करने वाले अमित तेजस्वी कमल नाभ भगवान् विष्णु के लिये वह युगान्त काल से लेकर युगादिकाल तक शयनागार बना रहा है। उसी ने वज्रपात से डरे हुए मैनाक पर्वत को अभयदान दिया है तथा जहाँ भय के मारे हाहाकार करना पड़ता है, ऐसे युद्ध से पीडि़त हुए असुरों का वह सबसे बड़ा आश्रय है। बड़वानल के प्रज्वलित मुख में वह सदा अपने जलरूपी हविष्य की आहुति देता रहता है और जगत के लिये कल्याण कारी है। इस प्रकार वह सरिताओं का स्वामी समुद्र अगाध, अपार, विस्तृत और अप्रमेय है। सहस्त्रों बड़ी-बड़ी नदियाँ आपस में होड़-सी लगाकर उस विस्तृत महासागर में निरन्तर मिलती रहती हैं और अपने जल से उसे सदा परिपूर्ण किया करती हैं। वह ऊँची-ऊँची लहरों की भुजाएँ ऊपर उठाये निरन्तर नृत्य करता-सा जान पड़ता है। इस प्रकर गम्भीर, तिमि ओैर मकर आदि भयंकर जल-जन्तुओं से व्याप्त, जलचर जीवों के शब्द रूप भयंकर नाद से निरन्तर गर्जना करने वाले, अत्यन्त विस्तृत आकाश के समान स्वच्छ, अगाध, अनन्त एवं महान् जलनिधि समुद्र के कद्रू और विनता ने देखा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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